अबयज़ ख़ान
रंगीन टीवी पर फिल्म चल रही है राजा हिंदुस्तानी... हर कोई मग्न होकर फिल्म देखने में लगा है... एक शॉट् में हीरो आमिर खान करिश्मा कपूर का चुंबन लेता है... और सीटियां बजने लगती हैं... नाइनटीज़ के आखिर में किसी हिंदी फिल्म का ये सबसे लंबा चुंबन सीन था... आशिकों के दिलों की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं... लड़कियां लरज़ती हुई अपना चेहरा छिपा लेती हैं.... घड़ी रात का एक बजा रही है... आंखे नींद के आगोश में जा रही हैं... तभी कोई आवाज़ लगाता है... अरे कोई लड़की उठकर चाय बना ला... चाय का नाम सुनकर लड़कियां इधर-उधर दुबकने लगती हैं... क्योंकि एक तो रज़ाई में से निकलकर चूल्हा जलाने का अलकस, उसपर फिल्म के छूट जाने का डर... लेकिन बड़े बुज़ुर्गों के आगे उनकी एक न चलती... मरती क्या न करतीं चाय तो बनाना ही पड़ेगी और वो भी एक-दो नहीं, कम से कम तीस-चालीस लोगों के लिए... वो भी बड़ा सा भगोना भरकर...जिसमें चाय, दूध और पानी का संगम होगा... जिसे चाय कम जोशांदा कहा जाए तो शायद ठीक होगा...

नवंबर 1997 की बात है... जब टीवी का चलन बहुत कम घरों में था... और रंगीन टीवी तो खासकर कम देखने को मिलता था। ज्यादातर घरों में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी ही था। टीवी पर फिल्में तो वैसे भी हफ्ते में दो दिन शनिवार और रविवार को ही आती थी... लेकिन क्या करें बिजली आती नहीं थी, तो फिल्म भला कहां देखने को मिलती। लेकिन फिल्म देखने के शौकीनों ने एक ज़रिया निकाल लिया था.. वीसीआर पर फिल्में देखने का। लेकिन इस वीसीआर पर फिल्म देखने का असली मज़ा तो शादियों के दौरान आता था... घर में शादी के बाद जब काम-धाम निपट जाता था और घर में कुछ रिश्तेदार मेहमान ही बच जाते थे, तो शादी की अगली रात को वीसीआर चलाया जाता था। वीसीआर चलता कम था उसका हल्ला ज्यादा होता था। पूरे मौहल्ले भर को पता चल जाता था कि आज फलां घर में वीसीआर चलेगा... बाकायदा किराए पर वीसीआर मंगाया जाता था.. शादी के घर में जनरेटर तो होता ही था, सो लाइट की कोई फिक्र नहीं होती थी।

एक रात में वीसीआर पर तीन फिल्में चलती थीं। इस दौरान इश्किया मिज़ाज लड़कों की चांदी हो जाती थी, ज़रा किसी लड़की ने वीसीआर का जिक्र छेड़ा, जनाब जुट गये वीसीआर का इंतज़ाम करने में। और तो लड़कियों से उनकी फ़रमाइश भी पूछी जाती थी। शोले हर किसी की फरमाइश में सबसे ऊपर होती थी। वीसीआर चलने से पहले ही घर के सारे काम निपटा लिये जाते। इधर घर के बढ़े-बूढे़ सोने गये, उधर शुरु हो गया वीसीआर पर सनीमा... नवंबर की कड़कड़ाती रात थी और वीसीआर पर शुरु हुआ फिल्मों का दौर। पहली फिल्म चली राजा हिंदुस्तानी... तब ये फिल्म रिलीज़ ही हुई थी। घर के सभी लोग आंगन में दरी-गद्दा बिछाकर बैठे थे... ऊपर से लोगों ने टैंट हाउस से आये लिहाफ़ भी लपेट लिये थे। गाना बजा आये हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बनके.. एक ड्राइवर से एक अमीर बाप की बेटी का प्यार... एक मिडिल क्लास के लिए इससे बढ़िया स्टोरी भला और क्या हो सकती थी।

बस फिर क्या था, लड़के खुद को सपने में आमिर खान और लड़कियां खुद को करिश्मा कपूर समझने लगीं। और उनके मां-बाप एक दूसरे के लिए खलनायक...। फिल्म देखते-देखते सपनों में अपनी दुनिया बसाने लगे। फिल्म की पूरी स्टोरी ख्यालों-ख्वाबों में उतर जाती। तीन फिल्मों के बीच में हर फिल्म के बाद इंटरवल होता था। इस दौरान चाय का दौर चलता था। लड़कियां चाय बनाने बावर्चीखाने में पहुंची, पीछे से मटरगश्ती करते हुए मजनू मियां भी कतार में लग जाते थे। अगर गलती से ऑपरेटर ने फिल्म लगा दी, फिर देखिए चाय बनाने वाली का गुस्सा... हमारे बिना आये तुमने फिल्म कैसे चला दी, पता नहीं है, हम चाय बना रहे हैं। बेचारे को फिल्म फिर से लगाना पड़ती थी। इस दौरान ऑपरेटर साहब का भी बड़ा रुतबा होता था, टीवी पर फिल्म लगाकर जनाब खुद तो एक कोने में दुबक जाते थे, लेकिन कोई उनको सोने दे तब न...

शोर मचता था.. अरे तस्वीर तो आ नहीं रही है... अरे इसकी आवाज़ कहां चली गई...? सबसे ज्यादा मज़ा तब आता था, जब कैसेट बीच में फंस जाती थी... बेचारे ऑपरेटर को नींद से उठकर आके फिर से वीसीआर को सैट करना पड़ता था। पहली फिल्म के बाद आधे लोग तो सो जाते थे और तीसरी फिल्म तक तो इक्के-दुक्के लोग ही टीवी सैट पर नज़रे चिपकाए होते थे। लेकिन इस दौरान आशिक मिजा़ज अपनी टांकेबाज़ी को बखूबी अंजाम देने में कामयाब रहते थे। अरे भाई फिर फिल्म देखने का फायदा ही क्या हुआ... फिल्म कौन कमबख्त देखने आया था... असली मकसद तो बारात में आई लड़की से टांका भिड़ाना था। लड़की ने अगर मुस्कुरा कर उनसे बात कर ली, तो समझो भाईजान का रतजगा कामयाब हो गया। सुबह मौहल्ले में सबसे ज्यादा सीना उन्हीं का चौड़ा होता था। लेकिन इस दौरान कुछ कमबख्त ऐसे भी होते थे, जो फिल्म तो कम देखते थे, लेकिन दूसरों की जासूसी करने में लगे रहते थे और सुबह की पौ फटने से पहले भांडा फोड़ दिया करते थे। खैर अब न तो वीसीआर रहा, न पहले जैसे सुनहरे दिन.. अब तो फिल्म से लेकर प्यार-मौहब्बत तक सबकुछ हाईटेक हो गया है।
अबयज़ ख़ान

छड़े हो जी... इस सवाल को सुनकर जैसे कुछ समझ ही नहीं आया... छड़े का मतलब... हमने तो अबतक छड़ी के बारे में ही सुना था... लेकिन ये छड़े क्या है? अरे मेरा मतलब है शादी हुई है या नहीं..? मेरा मतलब कुंवारे हो क्या..? जी मैंने कहा... माफ़ करना जी फिर हम आपको कमरा नहीं दे सकते... हमें फैमिली वालों को ही अपना घर देना है... छड़ों को नहीं देते... ठीक है जैसी आपकी मर्ज़ी... मैंने मकान मालिक को शुक्रिया कहा... और वापस लौट आया... मकान भले ही न मिला हो.. लेकिन एक अल्फ़ाज़ के बारे में जानने का मौका और मिल गया... छड़े... यानि कुंवारे...दिल्ली, हरियाणा, नोएडा, गाज़ियाबाद और मगरिबी सूबे उत्तर प्रदेश में इस तरह की बोलचाल आम है.. अगर आप किराए पर मकान लेने जाएंगे तो ये सवाल आपसे सबसे पहले पूछा जाएगा.... मकान की तलाश के दौरान अक्सर ऐसे ही सवालों से दो-चार होना पड़ता है... कई बार तो सवालों की बौछार इस तरह होती है, जिससे कुछ देर के लिए आपको ऐसा लगेगा कि शायद आपने कोई जुर्म किया है और आपसे पूछताछ हो रही है...

तमाम तरह के सवालात और आपको शक की निगाहों से देखना... कहां के रहने वाले हो..? काम क्या करते हो? नाम क्या है? कितने लोग रहोगे? इससे पहले कहां रहते थे.? पुराना मकान क्यों छोड़ रहे हो..? इस शहर में तुम्हे कोई जानता है या नहीं.? तुम्हारे घर में कौन-कौन रहता है...? वगैरह-वगैरह। अगर आप इन टेढ़े-मेढ़े सवालों का जवाब देकर इस इम्तिहान को पास कर गये, तो समझो आपको मकान मिल गया। लेकिन आपकी टेंशन अभी यहीं ख़त्म नहीं हुई। अभी तो ढेर सारी शर्तें हैं जिनसे आपको दो-चार होना पड़ेगा। देखिये अगर घर में रहना है तो नॉनवेज नहीं चलेगा.. यार-दोस्त नहीं आयेंगे... बिजली का बिल अलग से आयेगा, बावजूद इसके लाइट कम जलाओगे.. प्रेस नहीं करोगे.. वॉशिंग मशीन नहीं चलेगी... रात को जल्दी आना होगा... ज्यादा शोर-शराबा नहीं होना चाहिए... ऐसा लगता है जैसे आपको मकान किराए पर नहीं मिल रहा है, बल्कि मान मालिक आपको मुफ्त में मकान दे रहा है।

बाप-रे-बाप इतनी शर्तें और इतने सवाल.. अगर इतनी तैयारी यूपीएससी के एक्ज़ाम में कर लेते.. तो सेकेंड क्लास अफ़सर तो ज़रूर बन जाते। और अगर आपने गलती से बता दिया कि भईया मैं पत्रकार हूं... आपको किसी तरह की तकलीफ़ नहीं होगी, तो समझो आपको मिलता हुआ कमरा भी हाथ से गया। लेकिन अभी आपकी परेशानियां यहीं ख़त्म नहीं हुई हैं। मकान दिलाने के लिए आपने जिन भाईसाहब की मदद ली थी, अभी तो उनका रोल बाकी था। दरअसल चार साल पहले मेरे साथ ऐसा हुआ कि मैंने एक दुकानदार भाई से पूछ लिया कि भईया यहां कोई मकान किराए पर मिल सकता है। इतना सुनना था कि जनाब की बांछे खिल गईं... अरे क्यों नहीं भाई साहब... ज़रूर मिल जाएगा... मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं... जिनका मकान किराए के लिए खाली है... जनाब ने सबसे पहले मुझे पानी पिलाया... और फिर अपनी मीठी-मीठी बातों से आईने में उतार लिया। मुझे लगा कि इस अंजान शहर में इतने शरीफ़ लोग भी रहते हैं... अल्लाह इनका भला करे।

बस भाई साहब ने अपनी दुकान बंद की और मुझे मकान दिखाने ले गये.. कई मकान दिखाए, जिसमें से एक मुझे पसंद आ गया। इसके बाद, बात हुई किराए की, मकान मालिक ने बड़ा सा मुंह खोला। भला हो दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स का... मकान का किराया भी आसमान पर पहुंच गया। चार हज़ार रुपये का किराया सुनकर झटका सा लगा। हमारे रामपुर शहर में तो चार हज़ार रुपये में नवाब साहब का किला भी किराए पर मिल जाएगा.. फिर ये पचास गज़ में बना दो कमरों का कबूतरखाना और किराया चार हज़ार रुपये। बात इतने तक होती, तब भी ठीक था... इसके बाद जो भाईसाहब हमें मकान दिलाने ले गये थे उन्होने भी मुंह खोल दिया... नकली हंसी निकालकर बोले... हें..हें..हें.. एक महीने का किराया मुझे भी देना होगा... ये मेरा कमीशन है। एक महीने का आप से लेंगे और एक महीने का मकान मालिक से।

इतना सुनकर मेरी तो आंखे फटी रह गईं... अबतक जिन्हे हम अजनबी शहर में अपना अज़ीज़ समझ रहे थे एक झटके में ही वो हमारे लिए दलाल बन गये। समझ नहीं आ रहा था, कि थोड़ी देर पहले हमने इन्हें जो झोली भरकर दुआएं दी थीं, उनका क्या करें.. वापस भी नहीं ले सकते। अब इन्हें गालियां दें... या अपने लुटने पर शर्मिंदा हों... मुफ्त में जेब पर एक महीने का डाका पड़ रहा था। लेकिन वो सेर थे तो हम भी सवा सेर थे... बोल दिया हमें मकान नहीं चाहिए और भाई साहब से पिंड छुड़ाकर निकल गये। फिर चार-पांच दिन बाद हम उसी मकान में पहुंचे... मकान मालिक से बात की कि जनाब मकान चाहिए और अगर उनको बीच में डाला, तो दोनों को ही एक-एक महीने का चूना लगेगा... आप चाहें तो मकान दे सकते हैं... मकान मालिक को भी फायदे का सौदा लगा... और मकान की चाभी हमारे हाथ में सौंप दी.. मकान तो किराए पर मिल गया.. लेकिन इस दौरान जिन दिक्कतों से गुज़रना पड़ा उसकी टीस आज भी बाकी है।
अबयज़ ख़ान

आखिरी विदाई का वक्त था, तो माहौल थोड़ा ग़मगीन होना लाज़िमी था... जिसे अपने खून पसीने से सींचकर आशियां बनाया था, वो डेढ़ साल में ही ज़मीदोज हो गया... जिन सपनो में पंख लगाकर उड़ने की कोशिश की थी, उन्हे एक झटके में ही किसी ने कतर डाला था... तमाम किले बनाए थे... तूफ़ानों से लड़कर अपनी ज़िंदगी का क़तरा-क़तरा कुर्बान किया था.. उसकी एक-एक चीज़ को सहेजकर ऐसे सजाया था, जैसे कोई मां अपनी बेटी के लिए दहेज़ का सामान जुटाती है... एक चैनल से दूसरे चैनल तक ज़िंदगी में कुछ करने का जज़्बा था... दफ्तर में कलीग एक-दूसरे को देखकर जी रहे थे... हर किसी के मन में कुछ नया करने का जज्बा, खासकर उन लोगों के दिल में जिन्होने अभी जर्नलिज्म के पेशे में कदम ही रखा था... जो मीडिया की चमक-दमक देखकर मैनेजमेंट, आईटी, मेडिकल और इंजीनियरिंग जैसे कई ट्रेडिश्नल करियर को बायबाय करके आये थे, लेकिन उनको जो तजुर्बा हुआ उसके बाद तो वो शायद अपने बच्चों को भी कभी इस प्रोफेशन में न आने दें...

उनके सपनो का बुलबुला तो पल भर में बिखर गया था... मुझे अच्छी तरह याद है जब उन लोगों को ऑफ़र लेटर मिले थे, तो उनके चेहरे पर खुशी साफ़ पड़ी जा सकती थी, उनमें काम सीखने की कैसी ललक थी, एक-एक बात को वो बार-बार पूछने आते थे... वो चाहते थे, कि जल्दी-जल्दी सबकुछ सीख जाएं... लेकिन चार महीने में ही उनके सारे ख्वाब चकनाचूर हो गये.. मीडिया की कड़वी हकीकत से वो लोग इतनी जल्दी रूबरू हो जाएंगे, ऐसा तो उन्होने सपने में भी नहीं सोचा होगा... क्या-क्या प्लान बनाए होंगे अपनी ज़िंदगी को लेकर... लेकिन इसमें उन बेचारों का क्या कसूर है... कसूर तो कुकुरमुतों की तरह उगे उन इंस्टीट्यट का है, जिन्होने मीडिया की झूठी चमक-दमक दिखाकर लोगों से पैसे ऐंठ लिए...

वॉयस ऑफ़ इंडिया... यही नाम था उस न्यूज़ चैनल का...था इसलिए क्योंकि अब वो तारीख बन चुका है.. अब उसे लोग सिर्फ़ याद करेंगे... उसके सिवा शायद किसी के पास कोई ऑप्शन भी नहीं होगा.. हम ख़बर हैं बाकी सब भ्रम है.... यही उसकी पंचिंग लाईन थी.. बड़े शहरों में, चौराहों से लेकर मेट्रो स्टेशन तक.. हर कहीं उसके अजीब से विज्ञापन वाले बोर्ड नज़र आते थे... लेकिन एक साल में ही हम ख़बर बन गये.. जब चैनल शुरु हुआ था... तो दूसरे चैनलों की धड़कनें तेज़ हो गईं थी.. हर कोई चाहता था, कि उसे एक बार इस चैनल में काम करने का मौका मिल जाए.. लोगों ने बड़ी तिकड़मे भिड़ाईं कि किसी तरह उनका सपना सच हो जाए.. बस एक बार उन्हें भी वॉयस ऑफ़ इंडिया में काम करने का मौका मिल जाए.. जिनका सपना पूरा हुआ वो खुद को खुशनसीब समझते थे... लेकिन जो बदनसीब यहां तक नहीं पहुंच पाए वो आज खुद को खुशनसीब समझते हैं...

अफ़सोस ये कि आज वो लोग भी हमें फूटी आंख देखना पसंद नहीं करते जो कल तक फोन पर नौकरी लगवाने की गुहार लगाते थे... मैं खुद ऐसे बहुत सारे लोगों को जानता हूं, जो मुझे फोनकर कहते थे, कि बस यार एक बार बात करवा दो.. किसी बॉस से मिलवा दो.. आज वही लोग खुद को हमसे बड़ा और समझदार साबित करने की कोशिश करते हैं... ऐसा नहीं है कि हमारी किस्मत कोयले से लिखी है, और दूसरी जगह काम करने वाले सोने से अपनी किस्मत लिखवाकर आये हैं... या वीओआई में काम करने वाले सभी लोगों की किस्मत एक साथ खराब हो गई.... वीओआई में काम करने के लिए लोगों ने कई बड़े चैनल्स छोड़ दिये। वीओआई में काम करने वालों में भी कोई कमी नहीं हैं। उनके ट्रैक रिकॉर्ड शानदार रहे हैं। ऐसे में वीओआई में काम करने वालों को हिकारत की नज़र से देखना भला कहां की समझदारी है।

कौन नहीं जानता कि इस दौर में कई बड़े चैनल होने का दावा करने वालों को पसीने आ गये... और उन्होने चुपचाप अपने एम्पलॉयज़ को बाहर का रास्ता दिखा दिया... और तो और उन्होने अपने एम्पलॉयज़ को प्रमोशन और इँक्रीमेंट तक नहीं दिया... लेकिन जिनके घर शीशे के हैं वो भी हमारे ऊपर पत्थर उछाल रहे हैं...ये जानते हुए भी कि इससे उनके घर में भी दरारें आयेंगीं... कौन जानता था, कि हिंदुस्तान की तीसरे नंबर की सॉफ्टवेयर कंपनी सत्यम का इतना बुरा हाल होगा... चाहे एफ़एमसीजी हो, एयरलाईन हो या शेयर मार्केट में काम करने वाली दूसरी बड़ी कंपनियां हों.. हर कोई मंदी की मार से जूझ रहा था... अगर चैनल डूबा तो इसकी एक बड़ी वजह तो यही थी, कि ये ऐसे वक्त में लॉंच हुआ जब बाज़ार में मंदी का आलम था.. मार्केट से रेवेन्यु आया नहीं और चैनल लॉस में जाता रहा.. वरना चालीस ओबी वैन के साथ शुरु हुए इस चैनल की इतनी जल्दी ऐसी हालत हो जाएगी, इसका तो किसी को भी गुमान नहीं था...

अपने करियर को हर कोई चार चांद लगाना चाहता है... जो लोग भी वॉयस ऑफ़ इंडिया में आए, वो बड़े लोगों को देखकर ही आए... लेकिन आज लोग हमें बिन मांगे सलाह दे रहे हैं, जो मदद तो नहीं कर सकते, लेकिन चुटकियां ज़रूर ले रहे हैं... आज वीओआई में जो कुछ हुआ, या उसके लोगों के साथ जो कुछ हुआ वो तो ज़िंदगी का एक हिस्सा है, और ऐसा नहीं है कि जो लोग आज हंस रहे हैं, कल उनकी ज़िंदगी में ऐसे दिन न आएं... लेकिन मुझे अफ़सोस उन लोगों के लिए है जिन्होने वीओआई के साथ सपने बुन लिए... अफ़सोस उन लोगों के लिए है, जिन्होने यहां पर अपना घर-परिवार तक बसा लिया... अफ़सोस उन लोगों के लिए है, जिन्होने वीओआई के भरोसे लोन लेकर मकान खरीद लिये.. उनके सामने तो एक तरफ़ कुआं और दूसरी तरफ़ खाई है.. वैसे भी महानगरों में रहने वालों की आधी ज़िंदगी तो किस्तों में कट जाती है... लेकिन ऐसा नहीं है कि सब दिन एक समान होते हैं, कभी के दिन बड़े होते हैं, तो कभी की रातें बड़ी होती हैं.. और वैसे भी अंधेरे के बाद ही सूरज निकलता है... खुदा या भगवान तो सबका होता है.. अगर उसने दुनिया में भेजा है, तो रोज़ी-रोटी का इतज़ाम करना उसकी ज़िम्मेदारी है... चलते-चलते बिन मांगी सलाह उन लोगों के लिए है, जो मीडिया को अपना प्रोफेशन बनाने जा रहे हैं... कोई भी कदम बढ़ाने से पहले एक बार वॉयस ऑफ़ इंडिया का इतिहास ज़रूर पढ़ लेना...
अबयज़ ख़ान

ईद ख़त्म हो चुकी थी और अब घर से दिल्ली रवानगी का वक्त करीब आ रहा था। अम्मी ने बैग में करीब-करीब सारा सामान बांध दिया था। कपड़ों और किताबों के अलावा खाने का भी कुछ सामान बैग में था। फिर वो सुबह भी आई जब दिल्ली जाने का वक्त आया। घर से निकलते वक्त तमाम हिदायतें भी मिलीं। किसी से फालतू दोस्ती मत करना, रास्ते में कुछ खाना मत... वगैरह..वगैरह। अलसुबह हम बस में सवार हुए, घर से कोई सीधी बस दिल्ली नहीं जाती थी, इसलिए हमेशा की तरह पहले मुरादाबाद की बस ली, वहां से आगे दिल्ली की बस में सवार होना था। मुरादाबाद पहुंचे तो दिल्ली की बस भी तैयार मिल गई। अभी तक सफ़र बड़े आराम से कट रहा था। सफ़र लम्बा था, इसलिए मैंने सोचा क्यों न झपकी ही ले ली जाए।

लेकिन एक घंटे के बाद ही अचानक बस रुक गई, मालूम हुआ, कि बस एक रोडसाइड ढाबे पर रुकी है। दिल्ली के रास्ते में पड़ने वाले एक ढाबे पर.... कुछ नाम भी लिखा था, उस पर शायद वैष्णव ढाबा। किसी भी हाईवे या सड़क से आप गुज़र जाईये... थोड़ी-थोड़ी दूर पर आपको कुकुरमुत्तों की तरह उगे ऐसे हज़ारों ढाबे मिल जाएंगे। जिन पर लिखा होता है... काके दा ढाबा, पम्मी दा ढाबा, शेरे पंजाब ढाबा, माता वैष्णो ढाबा, गुलशन ढाबा, मुस्लिम ढाबा वगैरह वगैरह... कुछ ढाबे तो बाकायदा इस बात का दावा करते हैं, कि वो फलाने परिवहन निगम से अनुबंधित हैं। नेशनल हाईवे-24 की सुनसान सड़क के ऐसे ही एक ढाबे पर ड्राइवर ने यूपी रोडवेज़ की बस रोक दी। बस रोकने के बाद ढाबे वाले के साथ ही ड्राईवर और कंडक्टर भी आवाज़ लगा रहे थे, जिस किसी को कुछ खाना-पीना है, वो खाले... अभी आधे घंटे बस ढाबे पर रुकेगी... किसी को टॉयलेट बाथरूम जाना है, वो जा सकता है। एक-एक कर सारी सवारियां बस से नीचे उतर गईं।

ढाबे वाला आवाज लगा रहा था... बीस रुपये में भरपेट खाना खाइये। बीस रुपये की थाली है, जिसमें दाल-चावल रोटी, सब्ज़ी, रायता और अचार मिलेगा। हर कोई अपने-अपने अंदाज़ में आवाज़ लगा रहा था, ग्राहकों को लुभाने की या यूं कहें बेवकूफ बनाने की भरपूर कोशिश की जा रही थी। खाना तो मेरे बैग में ही था, जो अम्मी ने घर से चलते वक्त बनाकर दिया था, तो मैंने सोचा कि चलो एक कप चाय ही पी ली जाए, कुछ सुस्ती ही उतर जाएगी। आगे बढ़कर चाय वाले से एक चाय ली, जो पांच रुपये की थी। लेकिन उस चाय को मुंह में रखते ही ऐसा लगा जैसे कोई बदबूदार और कड़वी चीज़ मुंह में डाल ली हो, चाय के स्वाद से लगा, जैसे ये कई दिन पुरानी हो, उसका ज़ायका बयान करने लायक नहीं है। मैंने फौरन ही चाय पास ही कूड़ेदान में फेंक दी... चाय वाले से उसकी शिकायत की, तो ऐसा लगा जैसे वो मेरे ऊपर चढ़ बैठेगा। लेकिन इस अजनबी जगह में मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा, और अपने पांच रुपये पर अफ़सोस कर बस में वापस आकर बैठ गया।


लेकिन थोड़ी देर बाद अचानक फिर कुछ शोर सा सुनाई दिया। मारो-मारो साले को... आवाज़ सुनकर मैं भी नीचे उतर गया। भीड़ में कुछ लोग एक आदमी को पीट रहे थे और वो बेचारा बचाने की गुहार लगा रहा था... जब वो लोग मारकर चलते बने तो मैंने उससे हमदर्दी के बतौर पूछा... भाई साहब क्या हुआ, ये लोग आपको क्यों मार रहे थे?? इतना कहते ही उस बेचारे की रुलाई फूट पड़ी। कहने लगा भईया हमें क्या पता था... ये लोग चिल्ला रहे थे बीस रुपये में भरपेट खाना खाओ। मैं भी खाने बैठ गया, लेकिन खाने खाने के बाद ये लोग खाने का डेढ़ सौ रुपया मांग रहे थे। हमने कहा भईया आप तो बीस रुपये में आवाज़ लगा रहे थे, तो कहने लगे ज्यादा जबान मत लड़ा... चल पैसे निकाल... मैंने कहा, मैं बीस से ज्यादा नहीं दूंगा... तुम लोगों को बेवकूफ़ बनाकर लूट रहे हो... बस इतना कहना था.. कि सारे लोग मुझे चिपट गये और मुझे मारने लगे। इतना सुनते ही मेरे बदन में कंपकपी छूट गई... मैंने सोचा मैं बड़ा खुशनसीब था, नहीं तो शायद वो चाय वाला मेरी भी ऐसी ही हालत करता। ये तो तस्वीर सिर्फ़ एक ढाबे की है, लेकिन सड़कों के किनारे पर बने ऐसे सैकड़ों-हज़ारों ढाबों का यही हाल है।

इन ढाबों पर बसों के ड्राईवर और कंडक्टर तो मुफ्त में खाना खाते हैं, लेकिन उसके बदले में उनकी सवारियों को बुरी तरह लूटा जाता है। अवैध तरीके से खुले इन ढाबों पर न तो पुलिस छापा मारती है और न ही प्रशासन कोई कार्रवाई करता है। जनता लुटती रहे तो उनकी बला से। उनका हफ्ता बंधा होता है जो तय वक्त पर उनके पास पहुंच जाता है। ढाबे वाले सवारियों से न सिर्फ़ मनमाने दाम वसूलते हैं, बल्कि उनके साथ बाउसरों और गुंडो की एक टीम भी होती है, जो आनाकानी करने वालों को मार-मार कर सबक सिखा देते हैं। उस आधे घंटे के दौरान ढाबे वालों का बस चले तो सवारियों के कपड़े उतार ले। हर चीज़ के दाम बाज़ार से तिगुने और चौगुने वसूले जाते हैं, और जो कोई रेट को लेकर एतराज़ करता है, उसे उनके मुस्टंडे अच्छी तरह से आटे-दाल का भाव समझा देते हैं। जनता आखिर करे भी तो क्या... सरकारें तो गूंगी-बहरी हैं।