अबयज़ ख़ान
मैं ज़िंदगी भर तुमसे रूठा रहूं तो तुम क्या करोगे
मेरी जां मुझे मनाओगे या मुझ पे हंसा करोगे

खिलौना समझ के लोगों ने की दिल्लगी हमसे
दिल को रखोगे दिल में या तुम भी दिल्लगी करोगे

अनमोल आंसू जो रातों को भिगो गये दुपट्टे को
उन मोतियों का तुम संग दिल एहसास क्या करोगे

गुज़र गया है अपना वक्त और गुज़र भी जाएगा
अफ़सोस तो ये है जाना अब तुम कैसे जिया करोगे

जब जानोगे 'अबयज़' को तो बहुत हैरत होगी तुमको
कभी कोसेगे किस्मत को, कभी ख़ुद पे हंसा करोगे।।
अबयज़ ख़ान
हम जिन्हें दिल में बसाने की बात करते हैं
वो बेमतलब ही फंसाने की बात करते हैं।।

वो हमें याद रखेंगे ये आरज़ू है फ़िज़ूल
क्योंकि वो हरकतें ही करते हैं ऊल-जलूल।।

शौक से आये बुरा वक्त अगर आता है
हमको भी चटनी-फ़ाकों में मज़ा आता है।।

मारकर वो मुझे खुश हैं लेकिन
मार उनकी भी बहुत पड़ी थी लोगों।।

हर कोई परेशान है अपनी ज़िंदगी से यहां
फिर भी खुदकुशी करने के कोई आसार नहीं हैं।।

गलियों में वही लड़के, हाथों में वही पत्थर
क्या अब भी तेरे भाई मुझे रोज़ ही मारेंगे।।

कब समां देखेंगे हम ज़ख्मों के भर जाने का
नाम लेता ही नहीं कोई डॉक्टर इधर से जाने का।।

सोचते ही रहे पूछेंगे तेरी आंखो से
किससे सीखा है, हुनर लड़कियां पटाने का।।

बैचेन इस कदर था, सोया न रात भर
मच्छर भी बहुत थे, खटमल भी बहुत।।

ग़म तेरे बिछड़ने का हम दिल में समां लेंगे
साथ खड़ी है दूसरी इसको ही पटा लेंगे।।

तेरी इक झलक के लिए दिल बेकरार है
आज कोई नहीं तो तुझसे ही प्यार है।।

दिल की आरज़ुओं की शमां न जल पड़े
ऐसा न हो सीढ़ी पर पैर फिसल पड़े
फिर किस तरह करे कोई इज़हारे मौहब्बत
जब आपकी चप्पलें उसके चेहरे पर पड़ें।।

तेरी महफिल में रोशनी के लिए
मैं पड़ोसी के बल्ब उतार लाया
तू ज़रा नफ़रत से फेर ले आंखे
मैं अभी लाइट बंद करके आया।।

मौहब्बत में ऐसे मक़ाम आ गये हैं
न लड़कियों की कमी, न कम हैं लड़के
ममता-जया को तो सलीका नहीं था
अटल-कलाम भी थे अच्छे लड़के।।
अबयज़ ख़ान
बहुत अरसे के बाद आज बारिश की पहली बूंद गिरी
भीग गया फिर सारा तन-मन, और
घर से दूर परदेस में मुझे याद आई उसकी
जिसने मेरे साथ तमाम उम्र रहने का वादा किया था
उसके इस वादे को मैंने एक बार फिर आज़माना चाहा
कलम उठाकर बरसात का पहला ख़त लिख डाला
मेरे महबूब, बरसात की पहली बारिश में
अब तुम्हारे बिना मन नहीं लगता।
कम से कम इसी बहाने
एक बार मुलाकात का मौका दे दो
इस मुलाकात के बाद हमारी कोशिश होगी
दोबारा कभी एक-दूसरे से बिछड़ न पाएं
मगर जवाबे ख़त कुछ इस तरह था
मेरे महबूब मुझे डर नहीं बारिश की बूंद का
या मुझे डर नहीं बरसात का
मुझे तो डर सिर्फ़ इस बात का है
कि उसके बाद जो सैलाब आयेगा, उससे
हम दोनों का वुजूद ख़तरे में पड़ जाएगा
और मैं नहीं चाहती
कि बरसात की पहली बारिश के सैलाब में
मेरी वजह से तुम्हें 'देगोश' होना पड़े
क्योंकि तुमसे ज़िंदा मैं हूं
और मुझसे ज़िंदा तुम।।
(देगोश का मतलब मुश्किल में पड़ना)
अबयज़ ख़ान
अब मेरे घर में कोई रिश्तेदार नहीं है
छत का आसरा है कोई दीवार नहीं है।

ज़िंदगी किस मोड़ पे मेरा इंतेज़ार करेगी
मेरा तो अपना अब कोई घरबार नहीं है।

अपने ही बदल जाते हैं,ग़ैरों से शिकायत क्या
आदमी को आदमी पे अब ऐतबार नहीं है।

हर कोई परेशान है अपनी ज़िंदगी से यहां
उलझने सुलझने के अब कोई आसार नहीं हैं।

रिश्तों की उसके दिल में कोई अहमियत नहीं रही
उसका अब अपना कोई 'अबयज़' रिश्तेदार नहीं है।
अबयज़ ख़ान
जून 2002 की गर्म दोपहरी थी। शाहबाद से बस में सवार हुए तो दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर कदम रखा। वैसे तो गाज़ियाबाद से ही मन अजीब सा होने लगा था। घर से दूर करियर की तलाश में दिल्ली पहुंच तो गये थे। लेकिन घर छूट गया था। सिर्फ़ कुछ दिन के लिए नहीं, बल्कि बहुत लंबे वक्त के लिए। दिल्ली में उतरते ही कुछ दिन नाते-रिश्तेदारों के यहां टिकने के बाद एक किराए का कमरा लिया, कमरे में जैसे ही घुसे, आंखों से आंसू टपक पड़े। अम्मी के साथ-साथ घर याद आने लगा। अकेले थे, सो घंटो चुपचाप रो भी लिए। अपने घर पर किये सारे ऐशो-आराम आंखों के सामने नज़र आने लगे। वो घर जहां कभी गन्ने के खेत में घुस जाते थे, तो तब तक बाहर नहीं निकलते थे, जब तक खेत वाला दो-चार गालियां न सुना दे। गन्ने के रस की खीर तो एक सीज़न में दस-बारह बार से कम नहीं खाते थे। अम्मी के लाख मना करने के बावजूद भरी दोपहरी में क्रिकेट खेलने जाते थे, तो खेलते-खेलते कब अंधेरा हो जाता था, याद ही नहीं रहता था। कभी ऐसा कोई दिन नहीं गुज़रा जब हमने खाना खाने में नखरे न दिखाएं हों। अरहर की दाल-चावल बन जाए तो समझो हमारी तो ईद हो जाती थी। पालक, बैंगन जैसी सब्ज़ी बन जाए तो उस दिन तो भूख हड़ताल समझो। न कपड़े धोने का झंझट न सफ़ाई करने की चिकचिक। लेकिन हां पढ़ाई की तरफ़ से घरवालों को कभी कहने का मौका नहीं दिया। तभी तो इतनी छूट मिली हुई थी। शाम को स्कूल से निपटने के बाद खाना और सोने के अलावा कोई काम नहीं होता था। बचपन में दूरदर्शन के अलावा टीवी देखने का दूसरा कोई ज़रिया था नहीं, लिहाज़ा लाइट मेहरबान हुई तो थोड़ी देर अब्बू-अम्मी के साथ टीवी देख लिया। उस वक्त कशिश, नीम का पेड़, सर्कस जैसे सीरियल आते थे, बेहद शानदार थे वो सीरियल्स भी। हमारे घर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था, बिजली के अलावा बैटरी से भी चल जाता था। इतवार के दिन तो हमारे घर मेला लग जाता था। फिल्म देखने के लिए हम किराए पर बैटरी लाते थे और पूरा मौहल्ला हमारे घर फिल्म देखता था। इस दौरान चाय का दौर भी चलता था। अम्मी भगौने में भरकर पूरे घर के लिए चाय बनाती थीं। लेकिन दिल्ली में आते ही ये सारे ऐश काफ़ूर हो गये। न तो अब किसी पर नखरे दिखा सकते थे, न अम्मी के हाथ का खाना नसीब होता। दिल्ली के होटलों के मीनू में तो दो-चार सब्जियां फिक्स होती हैं। एक ही चीज़ को चार-चार चीज़ों में मिलाकर अठारह भोग बना देते हैं.. सबका टेस्ट भी एक जैसा ही। दाल मखनी, राजमा-चावल, शाही पनीर, मिक्स काली दाल ये चार सब्ज़ियां तो पेटेंट हैं। ये पनीर तो कमाल की चीज़ है। 56 तरह के भोग इस पनीर से ही ढाबे वाला दो मिनट में बना देता है। शुरु में एक महीने तो ये सब काफ़ी अच्छा लगा, उसके बाद तो इन सब्जियों से नफ़रत सी होने लगी। ऊपर से शाम को थक-हारकर कमरे पर आओ तो एक कमरे में ही बंद होकर रह जाओ। सड़ी गर्मी में भी उसी कमरे में बंद रहना पड़ता था। बरसात के बाद वाली गर्मी तो और भी बुरी, ऐसा लगता था जैसे तंदूर में बंद हो गये हों। ऊपर से पड़ोस के किराएदारों की चिकचिक वो अलग। घर पर अम्मी शाम को आंगन में बिस्तर लगाती थी, तो घंटो तो आसमान की तरफ़ ही टकटकी लगाए देखते रहते थे। और यहां तो हफ्तों बीत जाते हैं आसमां की तरफ़ देखे हुए। दिल्ली की डब्बेनुमा ज़िदगी में सुबह उठकर दफ्तर चले जाओ, शाम को आने के बाद उन्हीं कबूतरखानों में फिर सो जाओ। दस-बारह घंटे की नौकरी, दो घंटे घर से दफ्तर आने-जाने में, और चार घंटे सोने में। दिन के 24 घंटे, घंटो से हफ्ते, और हफ्तों से साल, दिन हवा की तरह निकले जा रहे थे। लेकिन इस शहर में छह साल रहने के बाद भी न तो किसी में अपनाइयत दिखी, और न इस शहर में कोई ऐसा मिला, जिससे आप अपने दिल की बात कहकर बोझ़ को हल्का कर लें। गालिब की इस दिल्ली ने रफ्तार पकड़ी तो और बेदर्द हो गई। कई बार लगता है पत्रकार बनने के जुनून में जिंदगी हमसे कोसों दूर चली गई।
अबयज़ ख़ान
घर से निकलते ही अचानक कुछ ऐसी चीज़ों पर नज़र पड़ जाती है, जिन्हें देखकर आपको लगता है कि ये तो पहले भी कहीं देखा है... साल दर साल बीत जातें हैं, मगर उन चीज़ों में कोई बदलाव नहीं आता... शाम को दफ्तर से आने के बाद घूमते हुए मार्केट में निकल गया.. अचानक एक बड़े से बैनर पर नज़र पड़ी... बैनर पर लिखी इबारत कुछ पुरानी सी लग रही थी... लिखा था पूनम साड़ी सेल... बचपन से इस लाइन को देखते-सुनते जवान हो गये... लेकिन इस लाइन में कोई बदलाव नहीं आया था... इबारत के साथ बाकी बातें भी वही पुरानी, पांच सौ रुपये वाला लखनवी सूट सिर्फ़ डेढ़ सौ रुपये में... एक हज़ार रुपये वाली बनारसी साड़ी सिर्फ़ दो सौ रुपये में, दो हज़ार रुपये वाला शानदार सिल्क का सूट सिर्फ़ चार सौ रुपये में... साथ में दो लाइन और जुड़ी थीं... कंपनी में आग लगने की वजह से मालिक को बहुत नुकसान हुआ है... कंपनी की डील टूट जाने की वजह से विदेश में जाने वाली लॉट रूक गई है, जिसकी वजह से सारा माल सस्ते में बस आपके लिए आपके शहर में... बचपन में ये लाइनें सुनकर कंपनी और सेल वालों के लिए दिल में हमदर्दी पैदा हो जाती थी, और हम भी घर वालों से ज़िद करके एक-आध जोड़ी कपड़े खरीद लाते थे... सोचकर ताज्जुब होता है कि आखिर इन लाइन्स में कितना दम है, जो अब तक हूबहू ऐसे के ऐसे ही चल रही हैं...

सफ़र में जाते वक्त चाहें ट्रेन का रास्ता हो या बस का रूट हो... आपको हर दीवार, घर के पिछवाड़े, सड़क की पुलिया पर, चौपाल की दीवार पर या आपके मौहल्ले में गुप्त रोग विशेषज्ञों के ढेरो विज्ञापन मिल जाएंगे... इन इश्तेहारों की इबारत वही पुरानी, जो आपने बचपन में देखी सुनी होगी, हकीम साहब भी शायद वही पुराने या उनकी कोई औलाद जो उनके नाम का फायदा उठा रही होगी... गांवों में तो कई लोग जानबूझकर अपनी दीवारे इश्तेहार वालों को पुतने के लिए दे देते हैं, सोचते हैं दीवार की पुताई से बच जाएंगे.. लेकिन जब उनके बच्चे उनके सामने उस इबारत को पढ़कर गुज़रते है, तो उन पर घड़ो पानी पड़ जाता है... दीवार पर वही लिखा होता है, नामर्दी का शर्तिया इलाज, बेऔलाद एक बार ज़रूर मिलें... गारंटी कार्ड साथ में दिया जाएगा... पत्नी-पत्नी संतुष्ट नहीं हैं तो भी मिलें... शादी से पहले या शादी के बाद वगैरह-वगैरह... अब घर की दीवार पर ही सेक्स की इतनी जानकारी मिल रही हो, तो भला बच्चों को सेक्स एजुकेशन देने की क्या ज़रुरत है... इश्तेहारों की डिज़ाइनिंग भी वही, सफ़ेद चूने से पुती दीवार पर काले रंग से लिखे मोटे-मोटे अक्षर... आपको न सिर्फ़ पुराने दिनों की याद करा देतें है, बल्कि इस बात का एहसास भी कराते हैं कि दुनिया कितनी बदल गई है, लेकिन कुछ तो है जो अब भी नहीं बदला...