अबयज़ ख़ान

रंग बरसती इस दुनिया में
चेहरे कितने बदरंग हैं
कोई अय्याशी में जीता है
कोई रहमो-करम पे रहता है
कोई मुर्ग-मुसल्लम खाता है
और कोई फ़ाकों में भी सोता है
किसी की ज़िंदगी फटेहाल है
और कोई कपड़ों से मालामाल है
कोई काला-गोरा करता है
कोई ऊंच-नीच पे मरता है
कोई जिस्मों का सौदागर है
और कोई लाशों को ढोता है
रंग बरसती इस दुनिया में
चेहरे कितने बदरंग हैं।
जाड़ा-गरमी और बरसात
सब अमीरों के मौसम हैं
अंगीठी में आग जलाकर
जब साहब सो जाते हैं
एक कंबल में सारी रात
वो पहरेदारी करता है
जब गर्मी में तपता सूरज
सर पर आ जाता है
साहब एसी में रहते हैं
वो खेत में ख़ून सुखाता है
बारिश का मौसम तो
और कयामत ढाता है
अपनी छत टपकती है, लेकिन
वो साहब का छाता सीता है
रंग बरसती इस दुनिया में
चेहरे कितने बदरंग हैं।
कोई हंसकर दुनिया जीता है
कोई आंसू पीकर सोता है
कुदरत का भी इंसाफ़ अनोखा है
किसी की झोली में भर दी दौलत
और किसी का छप्पर फाड़ दिया है
लेकिन फिर भी मंदिर में जाकर
वो रोज़ शीश नवाता है, और
बड़े साहब दारू की बोतल से
जश्न के जाम बनाते हैं
नये साल की मस्ती में वो
सारा शहर सजाते हैं, लेकिन
रोज़ सुबह वो फिर से
मज़दूरी पर जाता है
रंग बरसती इस दुनिया में
चेहरे कितने बदरंग हैं।
2 Responses
  1. बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
    आपने तो इस रचना के माध्यम से जीवन के यथार्थ का चित्रण कर डाला.

    आपको भी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाऎं.


  2. कोई काला-गोरा करता है
    कोई ऊंच-नीच पे मरता है
    कोई जिस्मों का सौदागर है
    और कोई लाशों को ढोता है



    बेहतरीन पंक्तियां,