अबयज़ ख़ान
मारग्रेट अल्वा ने बोला कि कांग्रेस में टिकट बिकते हैं, तो मारग्रेट जी पर अनुशासन का डंडा डल गया, भैरों सिंह शेखावत ने बोला कि बीजेपी में टिकट बिकते हैं, तो बीजेपी के आला नेताओं ने उन्हें नसीहत दे डाली। लेकिन किसी ने इस बात पर तो गौर ही नहीं किया, कि टिकट तो सच में बिकते हैं। लेकिन आप सोच रहे होंगे कि बात तो बहुत पुरानी है, तो इतने अरसे बाद मुझे इसे ब्लॉग पर डालने की क्यों सूझी। लेकिन जनाब इसके पीछे की वजह भी कम दिलचस्प नहीं है। दफ्तर में मेरी एक दोस्त मुझसे मज़ाक में बोली, कि मुझे तो टिकट चाहिए, और मिल भी आसानी से जाएगा। बस कुछ पैसे खर्च करने होंगे। मुझे लगा कि चुनाव के लिए टिकट की बात कर रही है। मैंने कहा कि किससे खरीदोगी तुम टिकट। तो वो हंसकर कहती है, डीटीसी के बस कंडक्टर से। मैंने कहा अरे तुम तो टिकट बिकने की बात कर रहीं थीं, तो वो फिर कहती है, अरे बस में क्या फ्री में मिलता है। बात मुझे सूट कर गई। दिमाग लड़ाया, तो हर जगह टिकट बिकता हुआ नज़र आया। रेलवे से लेकर सिनेमा हाल तक। सर्कस से लेकर एक्ज़ीबिशन तक। ब्लूलाइन से लेकर डीटीसी बस तक। लोकल ट्रेन से लेकर हवाई जहाज़ तक। मेले से लेकर म्यूज़ियम तक। कितनी जगह टिकट बिकते हुए नज़र आये।

हर कहीं टिकट बिक रहा था। लोग लंबी-लंबी लाइन लगाकर टिकट ख़रीद रहे थे, लेकिन कोई भी शिकायत नहीं कर रहा था। बसों में तो लोग धक्के भी खा रहे थे, और फिर भी टिकट ले रहे थे, लेकिन शिकायत किसी को नहीं थी। उत्तम प्रदेश से लेकर उन्नत प्रदेश तक टिकटों को बेचने का खुला खेल फर्रुखाबादी चल रहा था। उसके बाद भी कोई चूं तक नहीं कर रहा था। हर राज्य में चुनाव के लिए टिकट बिक रहे थे। लेकिन कोई शिकायत नहीं कर रहा था। और तो और टिकट के दाम भी फिक्स थे, दो रुपये से लेकर जितना आपकी जेब बर्दाश्त कर सकती है, उतने का टिकट आपको मिल सकता है। फिर अल्वा जी और शेखावत साहब को क्या सूझी थी, जो शिकायत कर दी थी। रेलवे स्टेशन पर तो घंटो कतार में लगने के बाद भी लोग टिकट बिकने की शिकायत नहीं करते। ये अलग बात है कि लाइन में पॉकेट कट जाए, और बाद में घर जाने की भी हालत न रहे। मेट्रो के मल्टीप्लेक्स छोड़ दें, तो आज भी कई सिनेमाहॉल ऐसे हैं, जहां सिनेमा का टिकट न सिर्फ़ बिकता है, बल्कि लोग ब्लैक में भी ऊंचे दाम पर ख़रीदते हैं। फिर भी कोई टिकट बिकने की शिकायत नहीं करता। और तो और लॉटरी का टिकट ख़रीदने के बाद भी बहुत से लोगों को कुछ हाथ नहीं आता। फिर भी कोई शिकायत नहीं करता। अब अगर चुनाव में किसी नेताजी ने जनता की गाड़ी कमाई से टिकट खरीद लिया, तो इसमें जुर्म ही क्या है। अरे भई जीतकर वो जनता की मदद तो ही करेंगे। फिर काहे का चिल्लाना कि टिकट बिकते हैं। और फिर वैसे भी जीतने के बाद तो सारे पैसे वसूल ही हो जाते हैं। तो अगर आपको भी कभी टिकट ख़रीदना हो, तो पांच रुपये का टिकट लीजिए और हो जाईये बस में सवार। फिर न कहिए कि भईया टिकट बिक रहा है।
2 Responses
  1. जनाब,
    अगर टिकट फ्रि में भी मिलने लगेगा तो भी लोग टिकट पर सवाल उठाएंगे....
    वैसे आपने अच्छा लिखा....


  2. Anonymous Says:

    अविनाश को लेकर ब्लॉग से लेकर मीडिया के गलियारे तक में चर्चाएं गरम हैं। कुछ मजे ले रहे हैं तो कुछ अविनाश के लिए चिंतित हैं। मै भी चिंतित हूं। चिंता अविनाश और उसके परिवार को लेकर है। चिंता उस मानसिकता को लेकर है कि एक लड़की आरोप लगाती है और हम यकीन कर लेते हैं। यकीन ही नहीं अविनाश को दोषी भी बना देते हैं। यदि अविनाश ने ऐसा कुछ किया है तो उसे सजा मिलनी चाहिए। लेकिन यह तकलीफदायक है कि एक आरोप को आधार बनाकर उसे न सिर्फ नौकरी से निकाल दिया जाता है बल्कि अपराधी की तरह सलूक भी किया जा रहा है। आरोपी लड़की को जो लोग जानते हैं, वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इस लड़की का चरित्र कैसा है। यूनिवर्सिटी के छात्र के अलावा उसके शिक्षक भी आपको यह बता देंगे। इसके अलावा आरोप लगाने वाली लड़की अनुजा बिहार में जहां रही है उसके पड़ोसियों लेकर दिल्ली तक में इसके किस्से सुने जा सकते हैं। यकीन मानिए उसे जानने वाले उसे गालियों से विभूषित करते हैं । मर्यादा का ध्यान रखते हुए अनुजा के बारें में मैं कुछ नहीं कहूंगा लेकिन उसके चरित्र के बारें में भी लोगों को पता होना चाहिए। यकीन नहीं हो तो मेडिकल जांच करवा लेनी चाहिए उसकी। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।