अबयज़ ख़ान
बचपन में मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी पड़ी थी ईदगाह... उसमें हामिद नाम का एक छोटा सा बच्चा था, जो अपनी दादी के लिए मेले से एक चिमटा लाया था, ताकि उसकी दादी के हाथ जलने न पाएं... उस कहानी को पढ़कर दो आंसू हामिद और उसकी दादी के लिए ज़रूर छलक आते थे... लेकिन न तो अब हामिद है, न उसकी दादी और न ही अब कहीं मेले नज़र आते हैं... हिंदुस्तान की पहचान मेले गांव-देहातों की शान हुआ करते थे, मेलों में सज धजकर जाना फख्र की बात माना जाता था... जहां कहीं मेला लगता था, वहां तो समझो ईद हो जाती थी.. बड़ी फुर्सत से जाते थे मेले में... दूर-दूर से नाते-रिश्तेदार भी मेला करने आते थे...

मेरे कस्बे में भी साल में कई मर्तबा मेला लगता था... लेकिन सबसे मशहूर मेला मुहर्रम का था.. दूर-दूर से दुकाने आती थीं, जिसमें बच्चों के लिए तमाम तरह के खिलौनों की दुकाने होती थीं, तो कहीं औरतों के लिए बिसातखाने की दुकाने... कहीं-कहीं हर माल वालों की दुकान भी होती थी, जहां पांच रुपये में सुई से लेकर मानों तो हवाई जहाज तक मिल जाता था... तो कहीं हल्वे-पराठे और जलेबियों की दुकाने भी लगती थी... गर्मागर्म जलेबी खाने के बाद अगर आपकी जीभ को कुछ चटपटा खाने की मंशा हो, तो समोसों से लेकर आलू टिक्की और गोल गप्पे तक हाज़िर होते थे... गोल गप्पे भी दिल्ली की तरह नहीं.. पांच रुपये में तीन... वहां तो भरपेट खाओ.. जितना मन करे, कचौड़ियों से लेकर पकौड़ियों तक.. लेकिन दाम बस एक से दो रुपये तक...

मेले में खिलौनो और खील-बताशों के बीच ही सबीलें भी लगाई जाती थीं, जहां लोगों को शर्बत पिलाया जाता था....अगर अब आप खाने-पीने और दुकानदारी से निपट गये हों, तो चले आईए मेले के दूसरे छोर पर... अहा.. क्या-क्या नज़ारे होते थे... बड़े-बड़े झूले...जिसमें बैठने के बाद रोंगटे खड़े हो जाएं... और कोई पहली बार बैठ गया, तो समझो उसको तो चक्कर आ जाए... झूले में बैठने के बाद लगता था, कि बस सबसे ऊपर तो अब हम ही हैं... मेले में फोटोग्राफर की दुकान पर सबसे ज्यादा मजमा जुटता था...नौजवान लड़के-लड़कियां बड़ी अदा के साथ उसकी दुकान पर फोटो खिंचवाते थे... कोई हाथ में टेलीफोन लेकर फोटो खिंचवाता था, तो कोई मोटरसाईकिल पर सवार होकर अपनी तस्वीर बनवाता था.. चश्मा लगाकर और बन-ठनकर फोटो खिंचवाने वालों की तो पूछिए मत...

दूसरी तरफ़ तमाशे वाले.. एक से एक तमाशे... कहीं मदारी बंदर का नाच दिखा रहा है, तो कहीं जादूगर बच्चे का सिर धड़ से काट देता था, और तमाशा देखने वाले दूसरे बच्चों का तो खून सूख जाता था... फिर जादूगर सबको धमकाकर कहता था, कि जो आदमी यहां से बिना पैसे दिये जाएगा.. वो घर तक सही सलामत नहीं पहुंच पाएगा... उसको जादू के करतब से मैं बीमार कर दूंगा... और मासूम बच्चे डर के मारे घर से जो पैसे लेकर आते थे, वो सब उसी को देकर चले जाते थे... इसके बाद बारी आती थी सर्कस की... अजब-गजब करतब करती लड़कियों को देखने के लिए पूरा का पूरा कस्बा जुट जाता था... सर्कस के बाहर शेर का बड़ा सा बोर्ड भी लगा होता था, लेकिन शेर कभी नज़र नहीं आया...

वहीं पास में ही एक छोटा सा सनीमा वाला रोज़ाना तीन शो... शोले..शोले..शोले... सुपर डुपर हिट फिल्म... ज़रुर देखिए.. ज़रूर देखिए की आवाज़ लगाता था... सनीमा क्या था... पूरा जुगाड़ था... पटलों पर बैठकर वीसीआर पर फिल्म देखते थे... सनीमा से फ्री होने के बाद देर रात में एक और शो चलता था... नाम था डांस पार्टी... पता नहीं कहां से उसमें लड़कियां डांस करने आती थीं.. लेकिन उसमें मजमा बहुत जुटता था... देर रात तक डांस पार्टी चलती थी... और बिगड़ैल शहज़ादे उसमें पैसे लुटाकर देर रात घर लौटते थे...

सनीमा और सर्कस से निपट गये हों, तो चलिए आपको लेकर चलते हैं अजब अनूठे करतब में... जहां एक आदमी ऐलान करता है, कि वो बारह दिन तक साईकिल पर ही सवार रहेगा और बारहवें दिन समाधि ले लेगा... अजीबो-गरीब तमाशा होता था वो... आदमी बारह दिन तक साईकिल चलाता रहता था... उसी पर बैठकर खाता था... उसी पर नहाता था... गरज ये कि बारह दिन तक सारे काम साईकिल पर ही बैठकर करता था, फिर बारहवें दिन एक बड़ा सा गड्डा खोदा जाता था, जिसमें वो साईकिल समेत चला जाता था... फिर उसकी कब्र बनाई जाती थी, मतलब ये कि ज़िंदा आदमी कब्र में दफ्न.. फिर उसे दो दिन बाद कब्र से निकाला जाता था... और वो उसमें से जिंदा निकलता था... लेकिन इतना सब करने के बाद भी उसे मामूली से पैसे मिलते थे... लेकिन पेट भरने के लिए शायद उतना ही काफी होता था... हां इतना ज़रूर होता था, कि उस वक्त तमाशे और मेलों में भीड़ बहुत जुटती थी.. शायद उस वक्त लोगों को फुर्सत बहुत रही होगी... अब न वो मेले हैं और न फुरसत के वो चार दिन... जाने कहां गये वो मेले...
अबयज़ ख़ान
चलिए नए साल पर एक खुशख़बरी उन मर्दों के लिए जो शादी के बाद भी पति-पत्नी और वो के चक्कर से निकले नहीं हैं... और खुशख़बरी उनकी पत्नियों के लिए भी जो अपने दिलफेंक मियां से आजिज़ आ चुकी थीं... घबराइये मत... जो काम आपके पति कर रहे हैं वो उनकी ज़िंदगी में तो रंग भर ही रहा है, आपकी शादी-शुदा ज़िंदगी में भी उससे बहार आ जाएगी... अरे ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं... बल्कि ये नया राग तो अंग्रेज़ों की देन है... और वो भी कोई अंग्रेज़ पुरुष नहीं, बल्कि एक फिरंगी महिला... फ्रांस की मशहूर साइक्लोजिस्ट मैरसी वैलेंट कहती हैं, कि अगर आपके पति परमेश्वर किसी दूसरी मोहतरमा से आंख लड़ा रहे हैं, तो उनके पीछे चाकू लेकर भागने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि अब तो आपको खुश होना चाहिए... और अगर उनकी ज़िंदगी में कोई वो है, तो घबराइये मत, क्योंकि इससे आप दोनों के रिश्तों में गर्मी आने के बजाए नरमी आएगी... और ज़िंदगी पहले से ज्यादा बेहतर हो जाएगी... आपको यकीन न हो, तो अंग्रेज़ी की ये चार लाइने भी पढ़ लीजिए... पूरा माजरा समझ में आ जाएगा...

If your husband is enjoying a secret rendezvous with another women, don't run after him with a knife, for the extra-marital affair is a sign that your marriage is a healthy one.
That's the claim of France''s most prominent female psychologist Maryse Vaillant in controversial new book on the effects of infidelity on married life, Men, Love, Fidelity, reports The Telegraph.

मैडम मैरसी के मुताबिक इसे बेवफ़ाई भी नहीं माना जा सकता... और अगर आपके पति इस तरह के रिश्तों में भरोसा रखते हैं, तो उन्हें अकेला छोड़ दीजिए, क्योंकि कुछ दिन बाद वो इसे खुद ही छोड़ देंगे... पता नहीं फ्रांस की इन साइक्लोजिस्ट मैडम का दावा कितना सही है, लेकिन इतना तो तय है कि इसे पढ़ने के बाद टाइगर वुड की पत्नी पर क्या बीत रही होगी, इसका अंदाज़ा आप खुद ही लगा लीजिए... और टाइगर वुड का तो पूछिए ही मत, पांचो उंगलियां तो पहले ही घी में थीं, अब सर भी कढ़ाही में है... वो तो पति-पत्नी और वो से भी आगे बढ़ चुके थे... वो-वो करते-करते उनकी तो 18 वो हो गईं थीं, गजब मैनेजमेंट है भाई... वाह भई वाह... चलो टाइगर वुड्स के अलावा किसी और को भी राहत मिली... हमारे यहां भी एक नेताजी हैं... बड़े रंगीले.. बड़े रंगीन मिजाज़.. कौन नहीं जानता, उनके बारे में... कितना नाम छपा उनका अख़बारों में, कितनी बार बेचारे टीवी पर आए... इसको कहते हैं न हींग लगी न फिटकरी और रंग चोखा हो गया...उम्र भले ही पचपन की थी, लेकिन मन बेचारा जवानी का ही था...

आखिर दिल पर किसका बस चलता है.. दिल तो बेचारा है... प्यार का मारा है... डर लगता है तन्हा सोने में जी.. दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी... फ्रांस की मोहतरमा मैरसी की किताब तो मार्केट में आने के बाद ही कोहराम मचा रही है... अंग्रेज़ तो उनकी इस थ्योरी को शायद इसको हज़म भी कर जाएं.. क्योंकि विदेशों में तो ये सब वैसे भी चलता है.. लेकिन अपने हिंदुस्तान के घरों में ज़रूर पड़ोस के घर से बेलन चलने की आवाज़े सुनाई पड़ने लगेंगी... ज़रा एक बार को मान लीजिए कि ये थ्योरी अपरूव्ड हो गई तो क्या होगा...खुदा की कसम कयामत हो जाएगी... पति-पत्नी और वो के किस्से हर मुहल्ले से सुनाई पड़ने लगेंगे...ज़रा रिश्तों में खटास आई नहीं, कि मश्विरे देने वालों की कतार लग जाएगी... कोई कहेगा मेरा ख्याल है, तुम अपने पति की किसी से सैटिंग करवा दो, फिर देखना कैसे तुम्हारे पति तुम्हारी उंगलियों पर नहीं नाचते हैं... मेरे पति की तो कई सैटिंग्स हैं, मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ता... वो तो मेरे एक इशारे पर चलते हैं... टोने-टोटको में एक नया टोटका ये भी शामिल हो जाएगा...वाह जी वाह, क्या थ्योरी है...रिश्ते फिर से बहाल करने के लिए।
अबयज़ ख़ान
भरोसा क्यों और किस पर किया जाए... किसलिए किया जाए... क्या सिर्फ़ इसलिए कि उसने आपको अपनी कसम खाकर ये एतबार करा दिया, कि मैं तुम्हारा भरोसा कभी डिगने नहीं दूंगा... क्या सिर्फ़ इसलिए कि उसने अपने बच्चों की कसम खाकर ये एतमाद दिला दिया, कि मैं तुम्हारे साथ दगा नहीं करूंगा... क्या सिर्फ़ इसलिए कि उसने तुम्हारे कंधे को हल्के से अपने हाथों से दबा दिया... और तुम्हें इस बात की तसल्ली दे दी, कि मेरे दोस्त बुरे वक्त में मैं ही तुम्हारे साथ हूं.. ज़माना तो बहुत ख़राब है और तुम अपने दिल के राज़ मुझसे शेयर कर सकते हो.. तुम अपनी ज़िंदगी का फलसफा मेरे सामने रख सकते हो.. तुम अपनी कहानी मुझे सुना सकते हो.. तुम अपना हाले-दिल मुझसे कह सकते हो...

तुम अपनी ज़िंदगी का कभी न खोलने वाला राज़ भी मुझे बता सकते हो, और मेरा वादा है तुमसे कि तुम्हारा ये राज़ कभी फरिश्तों को भी पता नहीं चल पाएगा... मेरा वादा है ये तुमसे, कि मैं तुम्हारा एतबार टूटने नहीं दूंगा... मेरा वादा है तुमसे, कि तुम्हारा ये राज़ हमेशा-हमेशा के लिए दफ्न हो जाएगा... और हम अपनी ज़िंदगी की किताब के वरक खोलकर उसके सामने रख दें... क्या कोई राज़ किसी को सिर्फ़ इसलिए बता दिया जाए, क्योंकि उसने आपको अपने कुछ ज़ाती राज़ बता दिये हैं... लेकिन बावजूद इसके इस बात की क्या गारंटी है कि इसके बाद दुनिया में कोई भी आपके निजी माअमलात में दख़लअंदाज़ी नहीं कर पाएगा... आपके राज़ हमेशा-हमेशा के लिए दफ्न हो जाएंगे...

आप पर उंगली उठाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाएगा... क्या ऐसा सचमुच होता है, जब आप किसी को अपने राज़ बता देते हैं और उसके बाद आपकी निजी ज़िंदगी में चैन-सुकून आ जाता है... कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता... मेरा अपना तजुर्बा तो कहता है कि इसके बाद आपकी टेंशन और बढ़ जाती है... और आपको हमेशा इसी बात का डर सताता रहता है कि पता नहीं वो कब मेरे राज़फ़ाश कर दे... कई बार ऐसा होता है, कि जिसे आपने सबसे ज्यादा अज़ीज़ समझकर अपना राज़दार बनाया, कुछ दिन बाद उसी के साथ रिश्तों में दरार आ गई... फिर इस बात की क्या गारंटी है, कि वो आपके राज़फ़ाश नहीं करेगा...

शायद इसीलिए आपको कई बार ऐसे शख्स की खुशामद भी करनी पड़ती है, जिसे आप रत्तीभर भी पसंद नहीं करते... सिर्फ़ इसीलिए कि कहीं वो आपके राज़ बेपर्दा न कर दे... आखिर इस भरोसे का भरोसा है क्या..? आखिर इंसानी फितरत का भरोसा क्या है...? आखिर इस भरोसे का पैमाना क्या है..? शायद इन तमाम सवालों का जवाब किसी के पास नहीं होगा, और अगर हुआ, तो यही कि किसी न किसी पर तो भरोसा करना ही पड़ेगा ही, वरना इसके बिना तो ज़िंदगी का पहिया घूमने से रहा... या फिर आप लोग भी यही कहेंगे कि राज़ को राज़ ही रहने दो... क्योंकि पर्दा जो उठ गया, तो फिर गिर नहीं पाएगा... और ज़माने का भरोसा क्या इसकी तो फितरत ही ज़ालिम है...

वरना क्या भरोसा उसके वादे का मगर..
दिल को खुश रखने को एक वादा तो है...
अबयज़ ख़ान
कोहरे में कुछ सुझाई नहीं दे रहा था.... हाथ को हाथ नज़र नहीं आ रहा था... लेकिन फिर भी घर तो पहुंचना ही था.. रात के करीब साढ़े बारह बज रहे थे... मोटरसाइकिल पर चलना दूभर हो चुका था... सड़क पर हर तरफ़ बस कोहरा ही कोहरा था... आगे वाली कार के पीछे मैं चलता चला जा रहा था...घर किस रास्ते पर है मालूम नहीं पड़ रहा था... धुंध में दो पग भी चलना मुश्किल था... बाइक दस किलोमीटर की रफ्तार से रेंग रही थी... सड़क पर सन्नाटा पसरा था... लोग अपने-अपने घरों में बिस्तरों में दुबके थे... घर का रास्ता कोसों दूर लग रहा था... दफ्तर से मेरा घर बामुश्किल पांच या छह किलोमीटर होगा... लेकिन कोहरे की चादर में ये रास्ता लगातार लंबा होता जा रहा था... कोहरे ने हेलमेट के शीशे पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया था... हेल्मेट हटाते ही मुंह पर ओस की बूंदे गिरने लगती... हालांकि ठंड में कंपकपी छूट रही थी...लेकिन मौसम का एक रुमानी अंदाज़ ये भी अच्छा लग रहा था...
दास्तानों में होने के बावजूद हाथ बर्फ़ हो चुके थे... जो कार आगे चल रही थी, कुछ दूर चलने के बाद वो अचानक ओझल हो गई.... अब मेरे लिए एक कदम बढ़ाना भी मु्श्किल हो चुका था... मैं किस रास्ते पर जा रहा हूं... मुझे कुछ पता नहीं था... कुछ दूर चलने के बाद मुझे मेरी तरह ही बाइक पर एक और शख्स नज़र आया... सोचा इन्हीं जनाब से रास्ता पूछ लिया जाए... लेकिन शायद वो खुद भटके हुए थे... खैर जैसे-तैसे घर पहुंचा... करीब डेढ़ बज चुका था.. दस मिनट का सफर एक घंटे में पूरा हुआ... घर में घुसते ही न आव देखा न ताव... जल्दी से रज़ाई उठाई और बिस्तर के आगोश में जाने में ही भलाई समझी... लेकिन नींद इतनी जल्दी कहां आना थी... अब तो आदत पड़ चुकी थी देर रात सोने की... और तकरीबन रात के ढाई बजे ही जाकर आंख लगी होगी...

रात गहराने के साथ ही बिस्तर लगातार सर्द होता जा रहा था... याद आ रहा था बचपन और बचपन की कहानियां... मुंशी प्रेमचंद का हल्कू मेरी आंखो के सामने खड़ा था.. जिसने साहूकार का कर्ज़ चुकाने की खातिर अपने लिए कंबल तक नहीं खरीदा... और पूरी रात जंगल में ऐसे ही ठिठुरते हुए गुज़ार दी थी... हल्कू तो अब भी बहुत हैं.. लेकिन उनका दर्द समझने वाला कोई मुंशी प्रेमचंद शायद अब नहीं है... मैंने सुबह दस बजे का अलॉर्म लगाया था... लेकिन आंख सुबह सात बजे ही खुल गई... किसी ने दरवाज़े पर नॉक किया था... मन किया उठते ही जो भी होगा उसे दो-चार बातें तो ज़रूर सुनाऊंगा... सुबह-सुबह ही नींद खराब कर दी... लेकिन दरवाज़ा खोला तो कामवाली बाई खड़ी थी... ठंड में ठिठुरते हुए...

कोहरा अब भी रात जैसा ही पसरा हुआ था... मौसम अब भी उतना ही सर्द था... उसके जिस्म पर इतनी ठंड में भी एक पुरानी सी शॉल थी.. कपड़ों की हालत देखकर लग रहा था, कि इससे पहले वो दूसरे घर में काम करके आई है... और अब यहां... बाप रे बाप.. इतनी सर्दी में अपना तो पानी में हाथ डालने को भी दिल नहीं करता... और ये लोग घर से बाहर ठंड में सिकुड़े जा रहे हैं...दरवाज़े में अख़बार का बंडल भी पड़ा था... जो अख़बार वाला लड़का सुबह ही डाल गया था... ठंड में अपनी साईकिल पर... आंधी हो या तूफान, जाड़ा हो या बरसात... उसे तो काम पर जाना ही है... दुनिया सोती रहे... अखबार वाला लड़का कभी नहीं सोता... दूधवाला तय वक्त पर दूध देने आ जाता है... भले ही वो पानी पहले से ज्यादा मिलाता हो... लेकिन उसके भी आने का वक्त नहीं बदला... दरवाज़े पर बर्तन में दूध भी रखा हुआ था...

गली में अब भी दस-पंद्रह साल के दूसरे लड़के अख़बार के बंडल बना-बनाकर दूसरों के घर में फेंक रहे थे.. तन पर उनके एक स्वेटर से ज्यादा कुछ भी नहीं था... साईकिल के हैंडल पर उनकी उंगलियां ठंड में काली पड़ चुकी थीं... पैरों में हवाई चप्पल के बावजूद वो सर्दी के सामने घुटने टेकने को तैयार नहीं थे... हवा के थपेड़ों में उन्होंने ज़िंदगी जीना सीख लिया था... और इस बात को भी अच्छी तरह जानते थे, कि ये मौसम तो अमीरों के लिए बने हैं... सर्दियों में गर्म कपड़े, रज़ाई में चाय के साथ मूंगफली और गजक... कमरे में गर्म हीटर... ये सब तो बड़े लोगों के चोंचले हैं.... लेकिन उन बदनसीबों को तो हर दिन काम पर जाना है... उनको न सर्दी लगती है, न गर्मी और न बारिश के थपेड़े उनका रास्ता रोक पाते हैं... उन्हें तो सिर्फ़ भूख लगती है... और घर पर बच्चे उनका इंतज़ार करते हैं....
अबयज़ ख़ान
इस प्यार को कोई नाम न दो.. इस एहसास को कोई नाम न दो.. इस जज़्बात को कोई नाम न दो... मगर ये कैसे मुमकिन है... जब एक ज़िंदगी दूसरी ज़िंदगी से मुकम्मल तरीके से जुड़ी हो... आंखो में लाखों सपने हों... दिल में हज़ारों अरमान हों... हज़ार ख्वाहिशें हों... फिर कैसे कोई नाम न दें... एक ही सफ़र के दो मुसाफिर थे... कुछ दूर चलकर बेशक रास्ते बदल गये हों... लेकिन मंज़िल तो एक ही थी... मकसद भी एक ही था... सुबह के सूरज की पहली किरन की तरह उसका एहसास था... शाम की लाली की तरह उसके उसके रंग थे... बदलते मौसम की तरह उसकी छुअन थी... हर एहसास अपने आप में अनूठा था.. हर जज़्बात के पीछे एक पूरी ज़िंदगी थी...

उसकी महक से सारा जहान महक उठता था.. उसके आने से ही हवाएं भी मदमस्त होकर चलती थीं... उसके आने की जब ख़बर महकी, उसकी खुशबू से मेरा घर महका... उसकी खुशबू से मेरा मन महका... ज़िंदगी फूल की पत्तियों की तरह और नाज़ुक हो गई... दिन पहले से और बड़े लगने लगे... इंतज़ार और भी बेहतरीन लगने लगा... वक्त की शायद इफ़रात हो चुकी थी... तमाम उम्र भी कम लगने लगी... सात जन्म भी कम लगने लगे... उसके आने की ख़बर से ही दिल बेकरार होने लगता... उसके जाने की ख़बर से बेचैनियां बढ़ जातीं... मुझे सरे-राह कोई मिला था... और मेरी ज़िंदगी में दाखिल हो चुका था... अगले जन्म में भी उसके साथ के लिए दुआएं होने लगीं...

ज़िंदगी फिर से बदल चुकी थी... सांसो की रफ्तार वक्त के साथ बदलने लगी... अब पहले से ज्यादा रवानगी आ चुकी थी... आंखो से उदासी गायब हो चुकी थी... ज़िदगी और भी हसीन हो चुकी थी... मौहब्बत ने अदावत को शिकस्त दे दी थी... हसरतें हिलोरें मारने लगीं... मन करता था, कि दुनिया की निगाहों से बचने के लिए समंदर को पार कर जाएं... और ये समंदर इतना बड़ा हो जाए, कि हमारी ज़िदगी के साथ-साथ चलता रहे... कभी ख़त्म न हो और अपने आगोश में समा ले... दुनिया के रंग अब और भी खूबसूरत लगने लगे थे.... तमाम कायनात से मौहब्बत होने लगी... उजड़े दयार में उसके कदम ऐसे पड़े, कि सबकुछ जन्नत नज़र आने लगा...

फूल इतने खूबसूरत लगने लगे, कि उसमें से ग़ज़ल निकलने लगी... उर्दू से बेपनाह मौहब्बत हो गई... उसकी छोटी-छोटी खुशियां जान से भी ज्यादा प्यारी लगने लगीं... मन करता कि काश अपनी एक अलग दुनिया हो, जहां कोई रोक-टोक न हो... जहां सबकुछ अपनी मर्ज़ी से हो... जहां किसी की दख़लअंदाज़ी न हो... जहां उसके साथ सिर्फ़ मैं हूं... और इसके सिवा कुछ भी नहीं... कुछ भी नहीं... सिर्फ़ हो तो बस इश्क की कैफियत... मौहब्बत का एक खुशनुमा एहसास.... हमारे दरम्यान न उदासी हो... न तन्हाई हो... अगर हो तो सिर्फ़ एक खुशनुमा एहसास... रंग भरा एहसास...एक हल्की सी छुअन...

लेकिन शायद ये सबकुछ इतना आसान नहीं था... मकतबे इश्क में हमने एक ढंग ही निराला देखा... उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ.... अब हर तरफ़ सन्नाटा है... ऐसा लगता है, जैसे वक्त से पहले पतझड़ आ चुका हो... पेड़ों से पत्ते सब झड़ चुके हैं.. मौसम करवट बदल चुका है... लेकिन अफ़सोस ये कि बसंत भी तो नहीं आया... अब न फूलों से ग़ज़ल निकलती है... न उर्दू से मौहब्बत है... न सांसों में पहले की तरह रवानगी है... अब समंदर से भी डर लगता है... अब उनींदी आंखो में सपने भी नहीं आते... अब न रुमानियत है.... न जाने क्यों एसा लगता है जैसे कोई सफ़र में साथ था मेरे... फिर भी संभल-संभल के चलना पड़ा मुझे... अब इंतज़ार है बस फिर से मौसम बदलने का.... और मुझे यकीन है... पतझड़ के बाद फिर से बहार आएगी... और मौसम फिर से पहले से भी ज्यादा हसीन हो जाएगा...
अबयज़ ख़ान
मैं क्या लिखूं... मेरे हाथ आज जवाब दे रहे हैं... दिल बैठा जा रहा है... समझ नहीं आता.. आखिर ऐसा क्यों होता है... जो आपको सबसे प्यारा होता है, ऊपर वाला भी उसी को सबसे ज्यादा प्यार क्यों करता है... आज सुबह जब अमिताभ का फोन आया... तो मेरा जिस्म बेजान हो गया... देर रात सोने के बाद सुबह मैं बेफिक्री की नींद में था.. अचानक फोन बज उठा.. सुबह के पौने आठ बजे थे.. देखा तो अमिताभ का फोन था.. उसकी आवाज़ में भर्राहट थी.. अरे आपने कुछ सुना... क्यों क्या हुआ... अरे सुना है अशोक सर को हार्ट अटैक पड़ा है.. ही इज़ नो मोर.. क्या बात कर रहे हो दिमाग ख़राब है तुम्हारा... नहीं मैं सही कह रहा हूं... अभी शोभना का फोन आया है.. उसने बताया कल्याण सर उन्हें मेट्रो अस्पताल ले गये हैं...

आनन-फानन में मैंने बाइक उठाई और दौड़कर नोएडा में मेट्रो अस्पताल पहुंच गया.. गाड़ी बेताहाशा भाग रही थी... लेकिन अमिताभ की बात पर यकीन नहीं हो रहा था... अस्पताल पहुंचकर अपनी आंखो से उन्हें देख लिया... लेकिन यकीन नहीं हुआ... अरे खुदा ये कैसे हो सकता है... अस्पताल के बेड पर पड़े अशोक जी लग रहा था.. जैसे अबयज़ को देखकर मुस्कुरा पड़ेंगे.. और सीधे बोलेंगे चल यार चाय पीने चलते हैं... लेकिन अशोक सर तो शायद कभी न उठने के लिए ही सोये थे.. मैं इंतज़ार कर रहा था... कि अशोक सर एकदम मुस्कुराते हुए उठेंगे और पूछेंगे तुमने नई नौकरी की पार्टी अभी तक नहीं दी... लेकिन अशोक सर ने तो शायद कसम खाई थी.. कुछ न पूछने के लिए... मैंने तो सोच लिया था.. कि अब उन्हें सिगरेट पीने के लिए भी नहीं रोकूंगा.. लेकिन उन्होंने तो आज सिगरेट पीने के लिए भी नहीं कहा... अचानक उनका बेटा कहता है... पापा उठ जाओ न प्लीज़... चाहे गिफ्ट मत दिलाना... सुनकर मेरी आंखे भर आईं... लेकिन अशोक सर तो अपने बेटे के लिए भी नहीं उठे...
क्रिसमस का दिन बेटा घर पर पापा के आने का इंतज़ार कर रहा था.. और पापा अपने बेटे को बाज़ार लेकर जाने का वादा करके आए थे... लेकिन कौन जानता था... कि ये सुबह तो कभी लौटकर नहीं आएगी... उस 11 साल के मासूम को क्या पता था.. कि उसके पापा इस बार उसका वादा तोड़ देंगे... लेकिन अशोक सर ने मेरा भी एक वादा तोड़ा है... मुझसे उन्होने कहा था.. कि अबयज़ तुम नई जगह जा रहे हो.. हमें भूल मत जाना... मैंने कहा था.. कि सर आपको भला मैं कैसे भूल सकता हूं... मैं अपनी बात पर आज भी कायम हूं... लेकिन अशोक सर तो मुझे अकेला छोड़कर चले गये... मुझे याद है जब वीओआई के शुरुआती दिन थे.. अशोक सर ने ईटीवी हैदराबाद से यहां ज्वाइन किया था... सबसे पहली मुलाकात उनकी मुझसे ही हुई थी... और वो पहली बार में ही मुझे बड़े भाई का प्यार देने लगे थे... ईटीवी के स्टार एंकर रहे उस शख्स की डिक्शनरी में गुरुर नाम के अल्फाज़ की कोई जगह नहीं थी... चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट... किसी रोते हुए को भी हंसा देती थी...

चंद दिनों में भी वो मेरे साथ इतना घुल गये थे.. कि उनके बगैर मुझे भी अकेलापन महसूस होने लगता था... हम लोग आपस में तमाम बातें शेयर करने लगे... रुतबे और उम्र में वो मुझसे बड़े ज़रूर थे.. लेकिन उनका रवैया मेरे साथ एक दोस्त की तरह ही था... शुरुआत में वो हैदराबाद से अकेले ही दिल्ली आए थे... उनकी पर्सनालिटी क्या कमाल की थी... मैंने एक दिन ऐसे ही उनकी बीवी के बारे में पूछ लिया.. फिर तो उन्हेने अपनी पूरी किताब खोलकर रख दी... उनकी लव मैरिज हुई थी.. एक पंजाबी लड़की से शादी करने के लिए उन्होंने क्या-क्या पापड़ बेले... ये भी उन्होने मुझे बताया... लेकिन एक सालह भी दे डाली... बेटे कभी लव मैरिज मत करना... तुम अपने प्यार के लिए अपनी खुशी के लिए अपनी मर्ज़ी से शादी तो कर लेते हो.. लेकिन इससे तुम्हारे मां-बाप की क्या हालत होती है.. तुम अंदाज़ा नहीं कर सकते...

दफ्तर में हम लोग जब भी चाय पीने जाते.. साथ में ही जाते थे.. अशोक सर को सिगरेट पीना होती थी और मुझे चाय... लेकिन अशोक सर सिगरेट बहुत पीते थे... मैंने एक बार उन्हें टोका, कि सर आप इतनी सिगरेट मत पिया करो... तो उनका अपना ही मस्त जवाब था.. वो हर फिक्र को धुएं में उड़ाने में भरोसा करते थे... अरे रहने दे न यार.. कुछ नहीं होता... जिंदगी में ऐश से जीना चाहिए... वैसे भी ये सिगरेट अब मुझसे नहीं छूट सकती... सीमा ने भी कई बार कोशिश की... लेकिन वो भी मेरी सिगरेट छुड़ा नहीं पाई... मैंने जब उन्हें बार-बार टोकना शुरु किया.. तो फिर वो चुपके से अकेले ही सिगरेट पीने चले जाते थे.. अशोक सर की मेरे साथ इतनी यादें जुड़ी हैं.. कि मैं उन्हें एक किताब में भी नहीं समेट सकता... जितने दिन वो मेरे साथ रहे... मैने अपना हर फैसला उनसे पूछकर लिया... वो मेरे हर राज़ के साझीदार थे.. लेकिन मजाल है, कि आजतक उनके मुंह से कोई बात किसी के सामने निकली हो... वो मेरे सारे राज़ अपने साथ ही लेकर चले गये...

लेकिन आज अस्पताल के बाहर सैकड़ों लोगों की भीड़ इस बात का एहसास करा रही थी... कि एक इंसान हमारे बीच नहीं है... आज हमने एक शख्सियत नहीं कोई है.. बल्कि एक इंसान खोया है... वो इंसान जिसने अभी इस दुनिया में चालीस बसंत भी पार नहीं किये थे.. लेकिन इतने कम वक्त में उस शख्स के चाहने वाले इतने थे.. कि अस्पताल के बाहर खड़े होने की जगह भी नहीं थी... लोगों की आंखो से आंसू बह रहे थे... लेकिन मुझे तो अब भी यकीन नहीं था... शाम को शमशान घाट पर आखिरी विदाई का वक्त था... उनका मासूम बेटा अपने पिता की चिता को आग दे रहा था... वो मासूम शायद अभी भी यही समझ रहा था... कि पापा क्रिसमस पर बाज़ार नहीं ले गये तो क्या.. नए साल पर तो ज़रूर ले जाएंगे... लेकिन सच्चाई तो यही थी.. कि उसके पापा नए साल पर क्या अब कभी नहीं आएंगे.. अब वो उससे कोई भी ऐसा वादा नहीं करेंगे... जिसे वो निभा न सकें... लेकिन अबयज़ से कौन कहेगा... कि चल यार चाय पीने चलते हैं...
अबयज़ ख़ान
तुमने तमाम उम्र साथ रहने का वादा तो नहीं किया था.. लेकिन तुम मेरी ज़िंदगी में बहुत आहिस्ता से दाखिल हो गये थे.. मुझे एहसास भी नहीं हुआ. और तुमने मेरे दिल पर हुकुमत कर ली.. मैं तुम्हारी हर अदा और हर इशारे का गुलाम हो गया... हर आहट पर जान देने को तैयार.. हर आह पर मर-मिटने को तैयार... तुममें कुछ तो ऐसा था.. जिसने मुझे मदहोश किया था... कोई तो ऐसी बात थी.. जिसने मुझे दीवाना बना दिया था... सुबह से लेकर शाम तक... हर आहट पर लगता था, कि तुम हो... फिज़ा चलती थी.. तो लगता था, कि तुम हो... पानी में अठखेलियां करते बच्चे हों, या शरारत भरी तुम्हारी कोई मुस्कुराहट... मेरे चारों तरफ़ शायद तुम्हारा एक घेरा बन चुका था... मेरी ज़िंदगी का शायद तुम एक हिस्सा बन चुके थे..

हम एक जान दो जिस्म तो नहीं थे, लेकिन हम हर जज्बात के साथी थे.. हम हर दर्द के साथी थे.. हम हर दुख के साथी थे... हमने हर कदम साथ चलने का वादा तो नहीं किया था.. लेकिन हमने राह में कदम ज़रूर साथ बढ़ाए थे... उसी रास्ते पर जहां हमसे पहले तमाम लोग चलकर निकल गये... ये रास्ता मुश्किलों भरा ज़रूर था.. लेकिन इतना कठिन भी नहीं... हर सुबह की शुरुआत में क्यों लगता था.. जैसे कोई मेरी आंखों पर हाथ रखकर कहता हो... उठो सुबह हो चुकी है.. जागो.. सवेरा हो गया है.. देखो सूरज कितना चढ़ आया है...ऐसा लगता था, जैसे कोई कहता हो, कि देखो तुम अपना ख्याल नहीं रखते हो.. तुम सर्दी में ऐसे ही चले आते हो... तुम कभी अपने बारे में भी सोचा करो...

जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे तुमने मुझे शरारतन हल्की सी चपत लगाई हो और कहते हो, कि जाओ मुझे तुमसे बात नहीं करना.. तुमने कबसे मुझे फोन ही नहीं किया... तुम्हारे पास मुझसे साझा करने के लिए दो अल्फ़ाज़ भी नहीं हैं... आखिर ऐसा क्या हुआ था.. कि अचानक तुम मेरी ज़िंदगी में चुपचाप से दाखिल हो गये.. बिना कोई आहट किये... दिल के दरवाज़े पर कोई दस्तक भी न हुई... और तुम पहरेदार बन गये... मेरे एक-एक पल का हिसाब रखने लगे... मेरी हर घड़ी पर नज़र रखने लगे...दिल की धड़कनों ने भी अब तुम्हारे हिसाब से अपनी रफ्तार तय कर ली... मेरी रफ्तार भी अब तुम्हारी रफ्तार की साझा हो गई... हर कदम उसी रास्ते पर पड़ता, जहां तुम्हारी कदमबोसी हुई थी...
ऐसा क्यों लगता था, जैसे मेरा सबकुछ तुम्हारा हो चुका है... तुम्हारा सबकुछ मेरा हो चुका है... तुम्हारे लिए मेरा ईमान भी मुझसे बेईमानी करने लगा... क्यों मेरा मन कहता था, कि मेरी उम्र भी तुम्हे लग जाए... क्यों दुआओं में सिर्फ़ तुम्हारा ही नाम आता था... क्यों तुम्हारी पसंद मेरी पसंद बन चुकी थी... तुम्हारी किताबों में मुझे अपनी ही इबारत नज़र आती थी.. तुम्हारा होले से मेरे पास आकर मुझे चिढ़ा जाना या मुझसे चुटकी लेकर निकल जाना...क्या ये सब अनजाने में था.. क्यों मुझे लगता है कि तुम मेरा मुस्तकबिल थे.. तुम मेरा मुकद्दर थे... तुम मेरे लिए ज़िंदगी जीने की वजह थे.. तुम मेरे लिए जज्बा थे... तुम मेरा हौसला थे...

मेरी नस-नस ये कहती है, कि तुम्हारे आने के बाद जीने की एक वजह मिल गई थी... तुम्हारी आंख से निकले मोती, क्यों मेरी बेचेनी की वजह बन जाते थे... क्यों मेरा एक दिन गायब हो जाना, तुम्हें बेकरार कर देता था... क्यों एक-दूसरे को देखे बिना हमारा दिन गुज़रता नहीं था... लेकिन न जाने क्यों मुझे आज भी समझ नहीं आता... कि कैसे कोई अजनबी किसी का हो जाता है... फिर कैसे उसी से रूठ जाता है... लेकिन ये भी सच है कि तुम्हारी हया तुम्हारा गहना है... और शायद यही वो वजह थी... जिसने मुझे तुम्हारी सादगी पर फिदा कर दिया... न जाने क्यों मुझे आज भी लगता है, कि तुम आओगे.. फिर से.. ज़रूर आओगे... और होले से एक चपत लगाकर कहोगे, कि तुम्हारा दिमाग ख़राब है.. जो बात-बात पर रूठ जाते हो...चलो मुझे भी तुमसे बात नहीं करना...