अबयज़ ख़ान
नवाबों के इस शहर की हर अदा निराली है। तहज़ीब और उर्दू के इस शहर में चाकू की धार भले ही कुंद पड़ चुकी हो, लेकिन इस शहर में रफ्तार बाकी है। दिल्ली से करीब सवा दौ सौ किलोमीटर दूर नेशनल हाईवे 24 पर बसा ये शहर मेहमानों के इस्तकबाल में हाथ फैलाए खड़ा रहता है। नवाबी आन-बान और लज़ीज़ खानो के अलावा इस शहर ने शायरी में भी अपना एक मुकाम बनाया है। लेकिन आज बात सिर्फ़ खाने की। और खाने में भी रामपुर के मशहूर हब्शी हल्वे की। नाम भले ही अटपटा सा लगे, लेकिन आप बिल्कुल सही समझ रहे हैं, दरअसल इस हल्वे का नाम अफ्रीका में रहने वाले हब्शियों के नाम पर ही पड़ा है। रामपुर के नवाब कल्बे अली खां जब साउथ अफ्रीका गये थे, तो वहां का हब्शी हल्वा उन्हें बेहद पसंद आया। इतना पसंद आया, कि वो हल्वा बनाने वाले करीगर को ही वहां से अपने साथ ले आये। और फिर रामपुर में बनाया जाने लगा ख़ास हब्शी हल्वा।
इस हल्वे की खास बात ये है कि इसे कमज़ोरी और ताकत की अहम दवा माना जाता है। लेकिन रामपुर में इस हल्वे को बनाने की ज़िम्मेदारी उठाई शहर के मशहूर हकीम अब्दुल हकीम खान ने। डेढ़ सौ साल पहले रामपुर के बाज़ार नसरुल्ला खां में उन्होंने हल्वे की दुकान खोली। नसरुल्ला खां बाज़ार जाने के लिए स्टेशन पर उतरने के बाद आप रिक्शा कर सकते हैं, जो महज दस रुपये में आपको बाज़ार में छोड़ देगा। तंग रास्ते वाले इस बाज़ार में हफ्ते के सातों दिन भीड़ का आलम रहता है। इसी भीड़ भरे बाज़ार में है हकीम साहब की दुकान। लेकिन अब हकीम साहब तो रहे नहीं, लिहाज़ा उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी इस पुश्तैनी धंधे को संभाल रही है। दुकान और दुकानदार की बात से हटकर अब बात की जाए हल्वे की। देसी घी, और ख़ालिस दूध से बना ये हल्वा पूरी रात आग पर बनाया जाता है। साथ ही हल्वे में सूखे मेवों और समनख के साथ ही देसी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल भी किया जाता है। ख़ास बात ये है कि हल्वे के बनाने वाले इसका फार्मूला बताना नहीं चाहते। शायद यही वजह है कि रामपुर शहर में इसकी दो ही दुकाने हैं और दोनों ही इसी खानदान की हैं। खाने में चॉकलेट जैसा स्वाद देने वाला ये हल्वा इतना लज़ीज़ होता है कि जो कोई एक बार इसे खाले, तो खाते-खाते भी उसका मन न भरे। हालांकि इसे सर्दियों के लिए बेहद उम्दा माना जाता है, लेकिन हल्वे की मांग इतनी है, कि इसे बारह महीनों तक बेचा जाता है। कई फिल्मी सितारे भी जैसे मैक मोहन, पोपटलाल भी हकीम साहब के हल्वे के ख़ास मुरीद हैं। इसके अलावा कई देशी-विदेशी सैलानी भी रामपुर से गुज़रते वक्त इस हल्वे को साथ ले जाना नहीं भूलते। हल्वे की भीनी-भीनी खुशबू का ज़ायका अगर आपकी ज़ुबान को लग जाए, तो आप भी इसके दीवाने हुए बिना नहीं रह पाएंगे।
अबयज़ ख़ान
मां मेरी सूरत तेरी सूरत से अच्छी तो नहीं, लेकिन मुझे तेरे आंचल की तलाश है। तेरी गोद में सो जाने को जी चाहता है। लेकिन मां, मैं तो इतनी बदनसीब निकली, कि जन्म के बाद ही मुझे दर-दर की ठोंकरे खाने के लिए छोड़ दिया गया। आखिर मेरा क्या कसूर था। क्यों मैं अनाथों की तरह दूसरों के रहमो-करम पर जीती हूं... मां सुन लो मेरी भी फरियाद 

मैंने ज़मीन पर कदम रखा था, तो मां के नर्म आंचल का इंतज़ार किया था। मां की गोद में खेलने के सपने देखे थे। पापा की उंगली पकड़कर घर से निकलने का ख्वाब संजोया था। भाई के साथ घर के पिछवाड़े मिट्टी की गुड़िया बनाने का सपना देखा था। लेकिन इस दुनिया में तो आने के बाद सारे सपने ही चूर-चूर हो गये। मेरी किलकारी पर मुझे थपकी देना तो दूर, मां ने तो मेरे आने के बाद मुझे आंखे खोलने का मौका भी न दिया। घर के नर्म बिस्तर के बजाए मेरी आंख खुली, तो उस जगह जहां सिर्फ़ और सिर्फ़ अंधियारा था। मेरे जन्म पर खुश होने वाली मेरी मां मेरे जन्म पर समाज से नज़रें चुरा रही थी। मैं तमाशा बन चुकी थी, और सारे तमाशाई थे।



आखिर क्यों मां... तुम ऐसा क्यों करती हो। लोग अपनी बिटिया को लेकर कितने सपने संजोते हैं, तमाम अरमान मन में पाले रहते हैं। लेकिन मेरे साथ ऐसा ज़ुल्म क्यों। आखिर मुझे अधिकार क्यों नहीं है, तुम्हारे साथ जीने का। आखिर मुझे अपने नर्म हाथों की थपकी देकर सुलाने से तुम्हें परहेज़ क्यों है? आखिर कौन है वो मेरा बदनसीब बाप... जो मेरे आने से इतना शर्मिंदा है कि तुम्हें भी दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर गया है। आखिर क्यों नहीं है मुझे भी जीने का हक? मेरा तो कोई कसूर भी नहीं था, मैं तो आपके प्यार की निशानी थी। लेकिन मुझे तो लावारिसों की तरह छोड़ दिया गया। जहां मेरे लिए सांस लोना भी मुश्किल था। और जो लोग मेरे लिए हमदर्दी रखते थे, वो भी मेरे बारे में तमाम तरह की बातें कर रहे थे। आखिर क्यों ये समाज इतना बेदर्द है, जो मेरे जन्म पर नेग देने के बजाए आंसू बहाता है। आखिर मां, मैं भी तुम्हारा ही एक रूप हूं.. आज तुम जिस मुकाम पर खड़ी हो, कल वहीं मेरी भी मंजिल होगी। लेकिन मैं इतना तो मानती हूं... कि एक मां अपनी बेटी का गला नहीं घोट सकती। क्योंकि मां तो भगवान का दूसरा रूप होती है।
सच में मां का कद इतना बड़ा है कि दुनिया में हर कोई उसके सामने बौना नज़र आता है। मां के पैरों तले जन्नत है, ये तो सभी जानते हैं, लेकिन मां का दर्जा तो जन्नत से भी ऊपर है। हज़ार ख़ताओं को माफ़ करने का जज़्बा अगर किसी में है, तो वो मां ही है। शायद इसीलिये कहते हैं कि सबसे प्यारी मां... और मुझे भी तलाश है एक ऐसी ही मां की.. मां क्या तुम सुनोगी मेरी पुकार..
 
एक अभागी बेटी...