अबयज़ ख़ान
जंगल में आग लगी.. चारों तरफ़ हाहाकार मचा था.. आग की लपटें आसमान को छू रही थीं। जंगल से निकलकर धुआं बस्ती की फिज़ा में दम घोंटने लगा। आग इतनी भयानक हो चुकी थी, मानो पल भर में ही जंगल को राख कर देगी। तपिश ऐसी कि वहां एक पल भी रुकना नामुमकिन हो चुका था। बेबस जानवर जंगल से जानवर शहर की तरफ भाग रहे थे। जिंदगी बचाने के लिए उनके पास इसके सिवा शायद कोई ज़रिया नहीं था। चंद आतिश परस्तों ने कुछ रंग-बिरंगे काग़ज़ के टुकड़ों के लिए हरे-भरे जंगल को आग के हवाले कर दिया था।

बेज़ुबान जानवर बेबस थे.. उनका घर जल रहा था.. लेकिन कोई आग बुझाने वाला नहीं था। जानवरों की बस्ती में कुछ आतिशी इंसानों ने शोलों को हवा दे दी थी। कुछ बेज़ुबान तो इस आग में जलकर खाक हो गए, तो कुछ दम घुटने से ही इस दुनिया से रुखसत हो गए। जंगल जल रहा था, लेकिन पास की इंसानी बस्ती में किसी को भी अपना फर्ज़ याद नहीं आया.. जंगल से निकलकर जानवर बस्ती में पहुंचने लगे.. तो तमाशबीनों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया.. किसी ने दौड़ा-दौड़ाकर शेर को मार डाला.. तो कोई हाथियों पर पत्थरों की बरसात करने लगा।

अपना घर छोड़कर बेघर हुए इन जानवरों की सुध लेने वाला कोई नहीं था। शहर में इंसानी भेष में जानवर थे.. जो उनकी हालत पर तरस खाने के बजाए बेज़ुबानों पर ज़ुल्म कर रहे थे। इधर जंगल में आग भड़कती ही जा रही थी। मीलों में फैला जंगल आहिस्ता-आहिस्ता आग के आगोश में समाता जा रहा था। लेकिन किसी में इतनी ताकत नहीं थी, जो उस जंगल को आग से बचा ले। जंगल में बड़े से पीपल के पेड़ पर एक चिड़िया भी रहती थी.. इस आग में उसका घर भी छूटने वाला था... उसकी आंखो में आंसू थे.. उसे गम था अपना आशियाना छिन जाने का।

लेकिन चिड़िया से जंगल की आग देखी न गई। अचानक वो घोंसले से बाहर आई और कुछ दूर एक छोटे से तालाब पर पहुंची, वहां से उसने अपनी चोंच में दो बूंद पानी लिया, और लाकर उसे जंगल के ऊपर छिड़क दिया। इसके बाद वो फिर तालाब पर गई, दो बूंद पानी लाई और उसे जंगल पर छिड़क दिया। इसी तरह उसने दस-बारह बार किया। जब वो ऐसा करके थक गई तो अपने घोंसले में बैठकर सुस्ताने लगी। तभी सामने वाले पेड़ पर मौजूद अजगर ने उसकी तरफ देखा और बोला तुझे क्या लगता था, कि तेरी चोंच में पानी लाने से जंगल की आग बुझ जाएगी। तू क्यूं इतनी मेहनत कर रही थी। चिड़िया ने जवाब दिया। मैं भी जानती हूं कि मेरे चोंच में पानी लाने से जंगल की आग नहीं बुझने वाली। लेकिन कल जब इस जंगल का इतिहास लिखा जाएगा, तो मेरा नाम आग लगाने वालों में नहीं, बल्कि आग बुझाने वाले में लिखा जाएगा।
अबयज़ ख़ान
सभी दोस्तों से ये पुरखुलूस गुज़ारिश है, कि एक बार इस ग़ज़ल को पढ़ने की ज़हमत ज़रूर करें। बड़े अरसे बाद क़लम उठाई है, शायद ग़लतियां भी बहुत हों। ग़ज़ल कभी बहुत ज्यादा लिखी नहीं। कभी-कभार काग़ज़ पर अल्फ़ाज़ उकेरने की गुस्ताखियां की हैं। इस बार भी शायद कुछ ऐसा ही है। लिखने की कोशिश तो बहुत की, लेकिन किसी पैमाने पर उतरने वाली ग़ज़ल बन नहीं पाई। मीटर और पैरामीटर से अपना दूर तक भी वास्ता नहीं है। लिहाज़ा उसके लिए तो ज़रूर माफ़ करें। अगर आपको पसंद आ जाए तो इस अदीब की इसलाह ज़रूर करें।


जब से उसकी टेढ़ी नज़र हो गई।
दोस्तों जिंदगी दर-बदर हो गई।।

वो क्या गए हमसे रूठकर यारों।
महफिले और मुख़्तसर हो गईं।।

नफ़रतों के दायरे जब से बढ़ने लगे।
दिल की गलियां भी और तंग हो गईं।।

संगदिल के संग रहना ही ज़ेरेनसीब था।
जीती बाज़ी हारना अब किस्मत हो गई।।

उजले लिबास में लोग दिल के काले हैं।
मसीहाओं की अब यही पहचान हो गई।।

प्यार की बस्ती में धोखा ही धोखा है।
रंग बदलना लोगों की फितरत हो गई।।

प्यार, नफ़रत, ग़म, गुस्सा और फरेब।
ज़िंदगी की अब यही कहानी हो गई।।
अबयज़ ख़ान
कई दिन से उमस बढ़ती जा रही थी.. गर्मी के साथ चिपचिपाहट भी बढ़ने लगी थी.. फि़ज़ा खुशनुमा तो थी, लेकिन माहौल में काफ़ी नमी थी.. बस खुदा से दुआ थी, कि बारिश हो जाए.. कम से कम इस चिपचिपाती गर्मी से तो राहत मिलेगी.. लेकिन मौसम को शायद ये मंज़ूर नहीं था.. दिन तो किसी तरह दफ़्तर में गुज़र जाता था, लेकिन कबूतरखाने जैसे घरों में रात काटना बड़ा मुश्किल हो रहा था... लेकिन कहावत है न कि खुदा के घर देर है, लेकिन अंधेर नहीं... दिल्ली शहर में जब बारिश हुई तो झमाझम हुई.. बदरा बरसे तो जी भरकर बरसे.. आसमान में काली घटा ऐसी छाई, कि फिर तो रातभर बारिश ने मूसलाधार रूप अख्तियार कर लिया... बादलों ने तन और मन भिगो कर रख दिया.. लेकिन इस शहर और अपने गांव में यही फर्क है, कि यहां बारिश का मज़ा लेने के बजाए लोग चाहरदीवारी में ही कैद होकर रह जाते हैं।

और एक अपना गांव है, जहां बारिश में जमकर भीगो, कोई रोक-टोक नहीं... दिल्ली में बारिश झमाझम हो रही थी.. लेकिन ये क्या... एक घंटे बाद टीवी ऑन किया, तो हर चैनल पर डूबती-उतराती दिल्ली की तस्वीरें नज़र आ रही थी... शहर में कई-कई फुट पानी भर चुका था, गाड़ियों की लंबी-लंबी कतारें लगी थीं, दिल्ली जाम से दो-चार हो रही थी, और दिल्ली वाले बारिश से तरबतर। राजधानी की हालत पर तरस आ रहा था.. लेकिन क्या करें, बदहाली के लिए भी हम लोग ही ज़िम्मेदार हैं.. घर में नहीं हैं दाने और अम्मा चली भुनाने की तर्ज़ पर लोन लेकर गाड़ियों का अंबार लगाने पर तुले हैं.. और फिर जब घुटनों पानी से मशक्कत करके घर पहुंचते हैं, तो सरकार को कोसते हैं... सड़कें भी आखिर क्या करें... फैलकर बड़ी तो नहीं हो सकती न...

कई बार लगता है कि इससे तो अपना प्यारा छोटा सा गांव ही बेहतर है, जहां हम बचपन में भी बारिश के पानी में क़ाग़ज़ की कश्तियां चलाते थे.. और आज भी जाते हैं, तो बरसात में अपने इस पसंदीदा खेल को भला कैसे छोड़ सकते हैं.. पहली या दूसरी क्लास में रहे होंगे, काग़ज़ की नाव बनाना तो तभी सीख लिया था.. वैसे तो स्कूल में काग़ज़ के बहुत से खिलौने बनाना सीखे थे, लेकिन क़ाग़ज़ की नाव तो ज़िंदगी का एक हिस्सा बन गई.. शायरों ने इसे कलम में पिरो लिया, तो बच्चों ने इसमें अपनी दुनिया बसा ली.. बारिश के मौसम में फिर उसी घर में लौट जाने को जी करता है, मन करता है फिर से बचपन में लौट जाने को जहां दिलभर कर शरारतें करो.. जहां बरसात के पानी में छपाक.. छई करने को मिले.. जहां बारिश के पानी में किसी के ऊपर छींटे उड़ाने की फिर से छूटे मिले.. जहां बारिश के पानी में निकर पहनकर फिर से सड़क पर दौड़ने को मिले..

मुझे अच्छी तरह याद है, जब जुलाई के महीने में स्कूल खुलते ही खूब बारिशें होती थीं, स्कूल में पानी भर जाता था.. और फिर सबकी छुट्टी हो जाती थी... बस फिर क्या था... किताबों से भरा बैग पीठ पर लादकर घर के लिए दौड़ लगा दिया करते थे.. क्या मस्त दिन थे, वो बारिश में भीगने के... हसीन और बेहद खूबसूरत दिन... जहां बरसात में पापा के साथ अंगीठी पर भुट्टा भूनकर खाते थे.. तालाब से सिंघाड़े तोड़कर लाते थे... क्या मस्ती होती थी.. मोहल्ले में हमारे पानी भर जाए, तो कोई नगरपालिका को नहीं कोसता था.. बच्चों की तो समझो ऐश हो जाती थी... लेकिन दिल्ली शहर को देखकर तो डर लगता है.. कहां हम बचपन में कागज़ की नाव चलाते थे, और कहां अब दिल्ली शहर के बरसाती पानी में कारें डूबती-उतराती हैं...
अबयज़ ख़ान
पप्पा.. अब भी पहले जैसे ही थे.. दिन बदल गए थे.. पप्पा नहीं बदले। उम्र की थकान उनके चेहरे से ज़ाहिर हो जाती है। लेकिन बच्चों की ख़ातिर वो आज भी उफ़ तक नहीं करते। मेरे लिए दुनिया में अगर कोई सबसे ज्यादा प्यारा है, तो मेरे पप्पा ही हैं। मां ने मुझे जन्म दिया है.. लेकिन पप्पा ने तो ज़िंदगी का ककहरा सिखाया है। एक हमारे पप्पा ही तो हैं, जिनके कंधो पर हम छोटी सी उम्र से ही ढेरों सपने संजो लेते हैं। होश संभालने के बाद पापा के सामने ही तो सबसे पहले हाथ फैलाया था। और पप्पा ने जेब से एक चवन्नी निकाल कर हाथ पर रख दी थी। उसके बाद तो ये सिलसिला सा चल निकला था। जब भी किसी चीज़ की ज़रूरत होती.. पप्पा के पास पहुंच जाते। दुनिया की तमाम मुश्किलें आ जाएं.. बस फिक्र क्या करना.. आखिर मेरे पप्पा जो हैं। सुबह क्लीनिक जाने वाले पप्पा जब शाम को थके-हारे घर लौटते थे.. तब झट से उनकी गोदी में चढ़ जाते थे। निगाहें कुछ खोजती थीं... शायद पप्पा बाज़ार से कोई चीज़ लाए हैं। कुछ खाने की चीज़... और पप्पा अपने बच्चों के मन की बात समझ जाते थे... घर लौटते वक्त उनके हाथ में कुछ न कुछ ज़रूर होता था। और पप्पा का लाड़ तो पूछिए मत। उनका बस चलता.. तो आसमान से तारे भी तोड़कर ले आते। झुलसती गर्मी हो, कड़कड़ाती सर्दी हो, या फिर बरसात.. कड़ी धूप में मीलों का सफ़र... टपकती हुई किराए के घर की छत...दीवारों में सीलन.. तमाम दुश्वारियां सामने थीं.. लेकिन पप्पा ने कभी हार नहीं मानी। उंगली पकड़कर साथ चलने वाले पप्पा हमारी खातिर कुछ भी करने के लिए तैयार रहते थे।

जैसे-जैसे हम बड़े हो रहे थे.. पप्पा के सामने फ़रमाइशों की झोली बढ़ती जा रही थी। मुश्किलों के उस दौर में भी प्यारे पप्पा ने कभी हार नहीं मानी। हमें पालने और पढ़ाने के लिए अपना सबकुछ कुर्बान कर दिया। अपनी ऐशो-आराम की उम्र उन्होंने हमारा मुस्तकबिल बनाने में गुज़ार दी। वक्त के साथ हम बढ़े होने लगे। कभी पापा की उंगली पकड़कर चलने वाले हम अब उनके कंधे से उचकने की कोशिश करने लगे। हम ये सोचकर कितने खुश होते थे.. कि हम पप्पा से बड़े हो रहे हैं। बार-बार पप्पा के बराबर खड़े होकर उनकी लंबाई से ऊपर जाने की कोशिश करते। लेकिन पप्पा अपने बच्चों के बड़े होने पर हमसे भी ज्यादा खुश होते थे। बेशक उनकी ज़िम्मेदारियां बढ़ रही थीं। फिर स्कूल से निकलकर कॉलेज का ज़माना आया। अब बारी थी.. घर से दूर दूसरे शहर में जाने की। लेकिन पप्पा अब भी खुश थे.. कि उनके बच्चे बड़े हो रहे हैं। लेकिन बच्चे तो अपनी ही दुनिया में मस्त थे। चवन्नी या एक रुपये से अब काम नहीं चलता था। अब पप्पा के सामने जेब खर्च की मोटी फ़रमाइश होती थी। फिर कॉलेज के बाद बारी आई नौकरी की। छोटे शहर से बड़े शहर का रुख हुआ। हम अब भी खुश थे.. बड़े शहर की चकाचौंध और नौकरी में पूरी तरह खो गए थे। पप्पा की गोद में सोने वाले अब पप्पा से मीलों दूर थे। पप्पा अब भी खुश थे.. लेकिन अब उनकी आंखे नम थीं.. क्योंकि बच्चे अब सचमुच बड़े हो गए थे... और उनसे बहुत दूर भी हो गए थे। और मेरे प्यारे पप्पा फिर से अकले हो गए।
अबयज़ ख़ान

ये ख़बर किसी का भी दिल दहला सकती है। हो सकता है इसको पढ़ने के बाद आपके रोएं भी खड़े हो जाएं.. लेकिन ये ख़बर एकदम सच है.. इसी ज़मीन पर एक मुल्क ऐसा भी है, जहां लोग मिनटों में एक हाथी को चट कर गए। सुनकर अटपटा लग रहा है न आपको.. लेकिन ये एकदम सच है.. इंसान ने हैवान का रूप इख्तियार कर एक हाथी को चट कर दिया। एक हुजूम देखते ही देखते विशालकाय हाथी को हज़म कर गया.. और किसी को डकार भी नहीं आई। छह हज़ार किलो का हाथी, डेढ़ घंटे से भी कम वक्त में ख़त्म हो गया.. देखते ही देखते हाथी की बोटी-बोटी कर दी गईं... और मैदान में कुछ बचा, तो सिर्फ़ हाथी का कंकाल..अगर आपको अब भी यकीन नहीं है, तो ये तस्वीरें देख लीजिए... जो इस कहानी को खुद-ब-खुद बयां कर रही हैं। क्योंकि तस्वीरें कभी झूठ नही बोलतीं...


हाथी का गोश्त खाने के शौकीन इन लोगों ने भालों और नुकीले हथियारों से उसका काम तमाम कर दिया। इन लोगों ने तो दरिंदगी की इंतिहा पार कर दी...जंगल में बीमारी से तड़प-तड़प कर हाथी मौत की नींद सो गया.. और उसे बचाने वाले हाथ उसकी मौत पर जश्न मनाने में जुटे थे। मामला जिम्बाब्वे के गोरालिज़ू नेशनल पार्क का है. जहां बीमारी की वजह से एक हाथी की मौत हो गई.. जैसे ही ये ख़बर इलाके में आम हुई.. एक हुजूम हाथी की तरफ़ उमड़ पड़ा... मरे हुए हाथी को देखते ही लोगों ने आव देखा न ताव.. भीड़ में जिसको भी मौका मिला.. वो हाथी का गोश्त खाने के लिए पागल हो गया... भूखी भीड़ मरे हुए हाथी पर टूट पड़ी। दरिंदगी की हद पार करते हुए लोगों ने उसकी बोटी-बोटी कर डाली... भूखे भेड़ियों की तरह लोगों ने उसके जिस्म से गोश्त के पारचे उतारना शुरु कर दिये। जिसको जो मिला, उसने मरे हुए हाथी पर वही आज़माया। तीर-तलवारों से लेकर छोटे-छोटे भालाओं तक, हाथी पर हर तरह के हथियार का इस्तेमाल किया गया... बच्चों से लेकर बड़े तक सब इस जश्न में शामिल थे...


गांव-गांव से लोग हाथी का गोश्त खाने के लिए उमड़ पड़े... हाथी के दोश्त की दावत आम हो गई... लोग बोरे और बर्तनों में भरकर गोश्त अपने घर ले गए.. लेकिन कुछ लोग तो ऐसे थे, जो हाथी के गोश्त को कच्चा ही चबा गए... गोश्त को झपटने के लिए हालत ये थी, कि लोग एक दूसरे से गुत्थमगुत्था भी हो गए... देखते ही देखते मिनटों में ही छह हज़ार किलो का हाथी कंकाल में बदल गया.. हालांकि इस घटना के बाद इंसान और जानवर में फर्क करना ज़रा मुश्किल हो रहा है... लेकिन इंसान अपना काम तमाम कर चुका था.. अब बारी जानवरों की थी... और इंसान के बाद वहां कुत्ते भी अपने लिए बोटी-हड्डी की तलाश में मंडराने लगे.. पापी पेट के लिए इंसान सचमुच हैवान बन गया.. एक मरे हुए हाथी के लिए इससे बुरा क्या होगा, कि उसकी मौत पर मातम मनाने के बजाए, लोग उसके मातम का जश्न मना रहे थे...
अबयज़ ख़ान
मां... मैंने कभी ख़ुदा की सूरत तो नहीं देखी..
मगर तेरे चेहरे में मुझे भगवान नज़र आता है..



मां जब मैंने इस दुनिया में आंखे खोली थीं... तो सबसे पहले तेरा ही चेहरा नज़र आया था.. तुम्हारे नाज़ुक हाथों में मेरी परवरिश हुई.. उंगली पकड़कर आपने ही तो मुझे चलना सिखाया था.. जब मैंने बोलना शुरु किया था, तो सबसे पहले मेरे मुंह से मां ही तो निकला था.. और तुम कैसे ख़ुशी से चहकी थीं... देखो-देखो.. उसने मुझे मां कहा है... घुटनों के बल चलते वक्त जब मुझे ज़रा सी ठेस लग जाती थी, तो कैसे तुम्हारा कलेजा छलनी हो जाता था.. जब मैंने होश संभाला, तब सबसे पहले तुमने ही मुझे उंगली पकड़कर चलना सिखाया था... उसके बाद स्कूल जाने से पहले तुमने ही तो मुझे घर में क ख ग घ सिखाया था... तुम मेरी मां के बाद मेरी पहली टीचर भी तो बनीं थीं... फिर जब मैं पापा की उंगली पकड़कर स्कूल जाने लगा, तो तुम सुबह सवेरे ही मेरे लिए उठ जाती थीं... पहले मुझे नहलाना-धुलाना, फिर जल्दी से नाश्ता बनाना.. मां तुम्हारे दिन की शुरुआत तो इसी के साथ ही होती थी...

जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा...फिर मेरी फ़रमाइशें बढ़ने लगीं... मेरे नख़रे बढ़ने लगे... मेरी शैतानियां बढ़ने लगीं.. लेकिन तुमने हमेशा किसी साए की तरह मेरा साथ निभाया... मैं बीमार हुआ, तुम रातों को भी मेरी ख़ातिर नहीं सोईं... मुझे दर्द हुआ.. तुम हमेशा मेरी ख़ातिर रोईं... लेकिन मेरी एहसानफ़रामोशी तो देखो...तुम्हारे खाने से लेकर तुम्हारी बातों तक हर किसी में मुझे ऐब निकालने की आदत थी.. लेकिन तुमने तो कभी उफ़ तक नहीं की... मैंने कितनी बार ज़िद की होगी तुमसे.. लेकिन तुम कभी ख़फ़ा भी तो नहीं होती थी... कितनी बार तुमसे झूठ भी बोला होगा.. लेकिन कभी मुझे सज़ा तक नहीं दी... मुझे अगर ज़ख्म हो जाए... तो मेरी मां की तो जान ही निकल जाती थी... मेरे स्कूल से देर हो जाने पर कैसे तुम बैचेन हो जाया करती थीं... जब पापा कभी मुझे डांटते थे, तो कैसे तुम मुझे अपने पीछे छिपा लिया करती थीं...

ज़िदगी की धूप में ख़ुद को खड़ा करने वाली मां, हर घड़ी सिर्फ़ मेरे लिए ही दुआ करती है...
मैं जब बड़ा हुआ तो स्कूल से कॉलेज जाने का वक्त आया.. लेकिन घर से बाहर जाने के बारे में सुनकर ही मां कैसे परेशान सी हो गई थीं.. उनके जिगर का टुकड़ा उनसे कहां रहेगा.. कैसे रहेगा.. उसे खाना कौन खिलाएगा, कौन उसके नख़रों को बर्दाश्त करेगा... लेकिन मुझे तो जाना था.. अब घर की दहलीज़ तो छूटना ही थी.. मां ने भी अपने बच्चे के बेहतर मुस्तकबिल के लिए दिल पर पत्थर रख लिया था... अब मां दूर हो गई थी... अब उससे बात करने के लिए एक फ़ोन का ही सहारा था... दूसरे शहर में अब मां की अहमियत का अंदाज़ा हुआ था... अब याद आती थी.. मां के हाथ की बनी खीर.. बचपन में उनके हाथ से सिले कपड़े.. घर के पीछे वाले पेड़ पर मां के हाथ का बनाया हुआ झूला.. गर्मी में आम का पन्ना.. सर्दियों में मां के हाथ का बुना हुआ स्वेटर.. अभी तो घर छूटा था... लेकिन मंज़िल तो किसी दूसरे शहर में थी...

पढ़ाई मुकम्मल होने के बाद अब तलाश थी नौकरी की... लेकिन अपने घर में नौकरी का कोई ज़रिया नहीं था... अब छोटे शहर से बड़े शहर की तरफ़ रूख़ करना मजबूरी थी... मां की आंखे नम नहीं थीं... बल्कि अब उनकी आंखों से ज़ार-ज़ार आंसू बह रहे थे.. बेटा अब बहुत दूर जा रहा था... जिगर का टुकड़ा अब शायद परदेसी होने वाला था... उसका दाना-पानी दूसरे शहर में ही लिखा था... अब घर नहीं छूटा था.. अब पापा के साथ मां भी छूट गई थी... घर से विदाई के वक्त पापा ने दिल को तसल्ली दे ली थी... लेकिन मां तो आख़िर मां थी... उसका लख़्ते-जिगर उसका नूरे-नज़र अब जा रहा था दूर-बहुत दूर... लेकिन एक बार फिर मां ने अपने अरमानों को जज़्ब कर लिया था... बेटा अब बड़े शहर में था.. लेकिन परदेस में वक्त ने सबकुछ बदल डाला था...

अब मां से सिर्फ़ फोन पर ही थोड़ी सी गुफ्तुगू होती है... अब मुनव्वर राना और निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लों में मां याद आती है... अब अकेले में तन्हाई में मां याद आती है... अब मां के हाथ की करेले की सब्ज़ी बहुत मीठी लगती है... अब मां घर लौटकर मां की गोद में न तो रोने का वक्त है और न ही मां की गोद में सोने का... अब मां बहुत दूर है... उस छोटे से गांव में जहां वो बेसन की रोटी पर देसी घी लगाती थी... जहां मिट्टी के चूल्हे पर आंखे जलाती है...जहां मेरी ख़ातिर अब भी वो पापा से लड़ जाती है... अब मां याद आती है... सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ, याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ। बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे, आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ। मां मुझे फिर से ले चलो उसी बचपन में जहां मेरी शैतानियां हों... और तुम्हारा ढेर सारा लाड़-प्यार... मेरा वादा है कि फिर मैं तुम्हें तंग नहीं करूंगा.. कभी नहीं.. कभी नहीं... कभी नहीं...
अबयज़ ख़ान


मेरी किस्मत और मेरा चांद
मुझसे खेल रहे थे लुकाछिपी का खेल

मेरा चांद मेरे क़रीब आकर भी दूर हो जाता
और मेरी किस्मत मुझे ठेंगा दिखा जाती।

चौदहवीं की रौशनी में चमकने के बावजूद
नजूमी के पन्नों में दमकने के बावजूद

दूरियों का दायरा...
चांद और किस्मत के दरम्यान और बढ़ गया

और मैं फ़ैसला लेने में लाचार था
कि मेरी किस्मत बुलंद है
या मेरा चांद मेरी ज़िंदगी है

आख़िर ज़िंदगी के एक मोड़ पर
मेरा चांद बेज़िया होने लगा
और किस्मत ने लुकाछिपी के
इस खेल में मुझे मात दे दी।।
(बेज़िया मतलब डूबना)
अबयज़ ख़ान
बंसत निकल चुका था... हर तरफ फागुन की मस्ती छाई थी.. खेतों में गेंहूं की फसल कट चुकी थी... गन्ना भी खेतों से उठ चुका था... दिल्ली में बहुत दिन रहने के बाद अकेलेपन में घर की याद सताने लगी थी... मैंने दफ्तर से कुछ दिन की छुट्टी ली और अपने घर चला गया... घर दिल्ली से दो सौ किलोमीटर था, लेकिन अपना था... सफर काटना मुश्किल हो रहा था... मन कर रहा था, कि उड़ते हुए घर पहुंच जाऊं... घरवाले बहुत याद आ रहे थे... सात घंटे की थकान भरा सफ़र पूरा करने के बाद मैं घर पहुंचा, तो घर में सूने चेहरों पर मुस्कुराहट लौट आई थी.. मेरे जाने से मानों घर खिल चुका था... घरवाले भी जानते थे, कि मैं दो-या तीन दिन की छुट्टी पर ही आया हूं.. लेकिन उनके लिए इतना ही काफी था, कि मैं उनकी नज़रों के सामने हूं...नाते-रिश्तेदारों से मुलाकात के बाद मैंने अपने खेत पर जाने का फैसला किया... चाचा को साथ लेकर मैं जंगल में अपने खेत पर निकल गया... गन्ने की फसल पूरी तरह उठ चुकी थी... खेत की मेंडों पर चारों तरफ लिप्टिस और पॉपुलर के पेड़ लगा दिये गये थे.. लिप्टस के पेड़ तो अब छाया भी देने लगे थे... बाकी खेत में गन्ने की पेड़ी थी... बीच-बीच में मैंथा भी बो दिया गया था... खेत अपनी तारीफ अपने मुंह से कर रहा था..

मेरा मन किया कि अब वापस दिल्ली न जाकर यहीं रुक जाऊं... अब कौन है दिल्ली में.. किसके लिए वापस जाऊं... यहां तो सभी अपने हैं.. मां-बाप हैं.. भाई हैं.. अपना घर है... और सबसे बड़ी बात अपनापन है... कम से कम मां के हाथ का खाना तो मिलेगा... दिल्ली में ढंग से खाना भी नसीब नहीं होता... मां के हाथ का खाना खाए हुए तो महीनों बीत जाते हैं... शकरकंद की खीर खाए हुए तो कई साल हो गये... लेकिन इस बार घर पर मां से कहकर गन्ने के रस की खीर ज़रूर बनवाई थी.. बहुत मज़ा आया था उसे खाने में.. कई साल बाद गन्ने के रस की खीर खाने का मौका मिला था...मेरे दिल ने फिर कहा... अब दिल्ली लौटकर क्या करोगे... कोई नहीं है वहां तुम्हारा... सिवाए नौकरी के... वो भी मज़दूरों जैसी... न खाने का होश... न जीने का... लेकिन फिर कहीं मन में एक ख्याल आ जाता.. कि घर पर मैं करूंगा भी क्या... न कोई नौकरी.. न कोई कारोबार...

लेकिन मन ने कहा..नहीं..नहीं.. अभी नहीं... इतनी जल्दी नहीं... अभी कुछ दिन और देखता हूं... शायद कोई बात बन जाए... इसी उधेड़बुन में छुट्टी के तीन दिन कहां गुज़र गये... पता भी नहीं चला... ऐसा लगा जैसे हवा का एक झोका आया... और सबकुछ उड़ाकर ले गया... मां की आंखों में आंसू थे.. इन तीन दिन में उनसे दो लफ्ज़ ढंग से बाते भी नहीं हुई थीं.. वक्त तो जैसे तूफ़ान की तरह उड़ गया था...
दिल्ली के लिए रावनगी की तैयारी शुरु हो गई... इसी बीच मैंने मौका निकालकर पापा से कह ही दिया...

पापा.. अब दिल्ली में मन नहीं लगता.. वापस घर आने को दिल करता है..
हां... तो आ जाओ.. इसमें परेशानी क्या है...
परेशानी तो कोई नहीं है.. लेकिन मैं सोच रहा हूं, कुछ दिन नौकरी और कर लूं... फिर जल्द ही यहां वापस लौट आऊंगा...
कोई बात नहीं.. तुम अपना मन बना लो... फिर जब चाहें आ जाना.. यहां तो तुम्हारा घर है...
पापा की इतनी सी बात ने बड़ा सहारा दे दिया...

अनमने मन से घरवालों से विदाई लेकर दिल्ली के लिए रवानगी की... लेकिन घर से निकलते वक्त भी दिल कह रहा था, कि वापस मत जाओ.. वहां कौन है तुम्हारा... किसके लिए जा रहे हो.. लेकिन क्या करता.. नौकरी जो ठहरी...

फिज़ा भी मुखालिफ थी.. रास्ते मुख्तलिफ थे... हम कहां मुकाबिल थे.. सारा ज़माना मुख़ालिफ़ था..
अबयज़ ख़ान
अरे कहां हैं...आप..? आपके सपनों की कार अब आपसे विदा ले रही है... और आप खामोश हैं... पहले आपका स्कूटर आपसे विदा हुआ.. और अब आपकी कार... अरे वही कार जिसके लिए आपने अपनी जेब काटकर कुछ रुपये गुल्लक में जमा किया थे... वही कार जिसके लिए आपने अपना पुराना स्कूटर भी बेच दिया था... चार पहियों वाली छोटी सी वही कार, जिसे शोरूम से घर लाने के बाद आप सीना चौड़ाकर घूमते थे.. जिसके लिए, आपने आनन-फानन में आंगन के बाहर एक गैराज भी तैयार कराया था.. अरे भई कार आ रही है, तो गैराज क्यों नहीं होगा... वरना कार खड़ी कहां होगी... कार आने के बाद उसकी आवभगत में क्या जश्न हुआ था.. कार को देखने के लिए पूरा मोहल्ला जमा हो गया था.. मजाल क्या कोई बच्चा उसे छू तो ले... उस पर ज़रा सी खरोंच भी आ जाए तो उफ्फ़ जान ही निकल जाए.. वही कार जिसमें बैठकर आप अपने-अपनों को ही भूल जाते थे..

वही कार जिसने सोसाइटी में आपका स्टेटस सिंबल बढ़ा दिया था... अपने बीवी बच्चों के साथ आप जब उस कार में बैठते थे, तो शायद खुद को किसी लॉर्ड से कम नहीं समझते थे.. घर में सपनों की कार ने आपको बड़ा आदमी बनाया था, तो साथ में अदब और सलीका भी सिखाया था... कपड़े पहनने का सलीका सिखाया था.. अब कार में बैठने के लिए क्रीज़ वाले ही कपड़े पहने जाते थे.. कार ज़रा सी गंदी हो जाए, तो फिर क्या.. पूरा घर मिलकर उसकी धुलाई-सफ़ाई में लग जाता था.. कार ने ज़रा सी खिचखिच क्या की, बस ज़रा देर में ही पहुंच गई गैराज... उसके नाज़-नखरे उठाने के लिए पूरा घर लग जाता था.. बात-बात में आप कहीं जाने के बहाने ढूंढते थे, ताकि कार को गैराज से निकालकर कहीं तफ़रीह ही कर आएं.. कार में बैठने के बाद रूतबा ऐसा बढ़ा था, कि अब नु्क्कड़ की चाय पीने के बजाए रेस्त्रां में बैठकर गप्पें नोश फ़रमाई जाती थीं... कहीं बाहर खाना खाने के बहाने ढूंढे जाते थे... बेगम और बच्चों के साथ गर्मियों की छु्ट्टियों में पहाड़ पर जाने के प्रोग्राम बनते थे..

इधर छुटिटयों का ऐलान हुआ, उधर पूरा घर जुट गया तैयारियों में... पीछे डिग्गी में भरा ढेर सारा सामान.. और चल दिये मंज़िल की ओर... और कार बेफिक्र हर कहीं आपके साथ जाने को तैयार.. हरदम तैयार... बस स्टार्ट करने की देर है.. और लो जी चल पड़ी अपनी मंज़िल की तरफ़... फिर चाहें कैसी ही सड़क हो.. सड़क ऊबड़-खाबड़ हो या फिर उसमें गड्ढे हों...पथरीली हो, या फिर पहाड़ की चढ़ाई, बेचारी ने उफ़्फ तक नहीं की... कार में चलने के बाद आपकी शाहखर्ची भी बढ़ गई थी.. भले ही पैसे से आप अमीर न बने हों, लेकिन कार ने आपका रूतबा तो ज़रूर बढ़ाया था... अब आप सादा फिल्टर के बजाए सिगार पीने लगे थे.. यार दोस्तों में कार की शानदार सवारी के किस्से बार-बार सुनाए जाते थे... आपकी बेगम मोहल्ले भर की औरतों को कार के किस्से-कहानियां सुनाती थीं.. और आपके पप्पू की तो पूछिए ही मत.. स्कूल में सब बच्चे अब पप्पू से दोस्ती करना चाहते थे, ताकि किसी बहाने पप्पू की कार में चड्डू खाने को मिल जाए.. चड्डू न सही कम से कम कार तो देखने को मिल ही जाएगी...

वक्त का पहिया घूमा तो मारूति ने मिडिल क्लास से निकलकर गरीब आदमी के घर में कदम रखा... सेकेंड हेंड मारूति के चलन ने उन लोगों को भी कार वाला बना दिया, जो खुद को 'बे'कार समझते थे... कार ने आम आदमी का इतना ख्याल रखा, कि 20 से 50 हज़ार की हैसियत वाले भी मारूति 800 की बदौलत कार वाले हो गए... लेकिन अब आप बड़े आदमी हो गए, तो उस छोटी सी कार को भला क्यों याद रखेंगे... वक्त के साथ आपके सपने भी बड़े होने लगे हैं... अब मारूति को छोड़कर आप लक्ज़री कार में सवार हो चुके हैं... अब आपको अपनी कार का शीशा हाथ से ऊपर चढ़ाने की ज़रूरत नहीं हैं... अब आपकी गाड़ी में सब कुछ ऑटोमेटिक है... बड़ी कार के साथ रूतबा और भी बढ़ा हो गया है...अब आप ऐसी की ठंडी हवा में लक्ज़री कार की सवारी का लुत्फ़ लेते हैं..देश की बड़ी आबादी को कार वाला बनाने वाली मारूति 800 जा रही है... कभी न लौटकर आने के लिए.. लेकिन आपको क्या.. आपकी बला से...

26 साल का लंबा अरसा तय करने के बाद मारूति कंपनी ने उस कार को बंद करने का फैसला किया है, जो हिंदुस्तान के मिडिल क्लास के परिवार को ढोती थी...जो किसी वक्त में हिंदुस्तान के सुखी परिवार का स्टेट्स सिंबल बन चुकी थी.. 14 दिसंबर 1983 को जब इंदिरा गांधी ने इसे गुड़गांव से लॉंच किया था, तो कार बाज़ार में तहलका मच गया था... हालांकि भारत में उस वक्त कुछ गिनी-चुनी ही कारें थीं.. और वो भी अमीरों के शौक में शामिल थीं... मिडिल क्लास तो तब कार के बारे में सोच भी नहीं सकता था.. मारूति से सिर्फ़ खानदान ही नहीं जुड़े थे, बल्कि इस कार के साथ जज़्बात जुड़े थे... 26 बरस में मारूति ने करीब 28 लाख से ज्यादा 800 मॉडल की कारें बेचीं.. लेकिन आज वही कंपनी कह रही है, कि हम भावनाओं को हावी नहीं होने देते.. देश में ख़तरनाक होती आबोहवा के लिए अब इस बेचारी को भी ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है... लेकिन कोई ये नहीं कहता कि सड़कों पर दनानदन दौड़ रही कारें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार हैं... फिर बेचारी अकेली मारूति 800 पर ही तोहमत क्यों..? कंपनी ने बाकी सभी कारों को यूरो-4 पर अपग्रेड कर लिया है, और मिडिल क्लास के बाद आम आदमी की इस कार पर किसी को ज़रा भी तरस नहीं खाया...
अबयज़ ख़ान
इस बार ब्लॉग की पोस्ट बिल्कुल ही अलग सी है.. इस बार कलम नहीं सिर्फ तस्वीरें बोलेंगी... देखने में भले ही ये तस्वीरें मामूली सी हों... लेकिन इनके पीछे कई सदियां छिपी हुई हैं.. इन तस्वीरों में जीकर तमाम पीढ़ियां गुज़र गईं... ये तस्वीरें बेशक गुजरे ज़माने की दास्तान बयान करती हों... लेकिन इन तस्वीरों के पीछे फोटोग्राफी की कई दास्तानें छिपी हैं... एक दौर छिपा है, जिसकी कहानियां हम आज की पीढ़ी को सुनाते हैं.. ये तस्वीरें गुज़रा ज़माना याद कराती हैं.. तो बचपन के दिनों को याद कराकर आंखों को भी नम कर देती हैं...

अब ज़रा चाची की इस इस तस्वीर को ही गौर से देख लीजिए... फोटो खिंचवाने का ये भी एक अनूठा ही शौक था.. फोटो स्टूडियो में नकली मोटरसाईकिल पर बैठकर फोटो खिंचवाने का भी अपना ही अलग मज़ा था... और पीछे सवारी भी बैठी हो, फिर तो क्या कहने... क्यों जी कुछ याद आया.. आंटी जी की इस तस्वीर को देखकर.. घर के पास वाले मेलों में तो अपने भी ऐसी तस्वीरे ज़रूर खिंचवाई होगी...

चलिए अब एक और तस्वीर से आपको रूबरू कराते हैं.. 80 से 90 के दौरान अगर आपकी शादी हुई होगी, तो अपनी बेगम के साथ आपने भी तस्वीर तो ज़रूर खिंचवाई होगी.. क्या कमाल के फोटग्राफर हुआ करते थे... आपके इशारे से पहले ही समझ जाते थे, कि आपको ऐसी तस्वीर चाहिए, जिससे ये साबित हो जाए, कि आप उसके लिए चांद ही तोड़कर ले आए.. ढूंढिए अपने घर में भी कोई ऐसी तस्वीर...चांद में से झांकते शौहर जनाब अपनी बीवी को दिलासा दिला रहे हैं कि बेगम मान भी जाओ.. असली न सही, कम से कम आपके लिए चांद तो ले ही आया.. लेकिन बेगम हैं कि फोटो में भी रूठी-रूठी नज़र आती हैं.. तस्वीर में चांद भी है, दिल भी है, लेकिन दिलरुबा रूठी-रूठी सी है.. इंडियन फोटोग्राफी का पूरा कमाल है.. लेकिन कमाल ये है कि बेगम हैं कि मानती ही नहीं.. कुछ याद करिए.. आपने भी ऐसी तस्वीर ज़रूर बनवाई होगी.. तो निकालिए अपनी एलबम और गुज़रे ज़माने को भी ज़रा याद कर लीजिए..

अब एक तस्वीर यारबाज़ों के लिए.. ये उनके लिए जिन्हें काम के बाद यारी का बड़ा शौक था.. दोस्तों के साथ घूमने जाने के बहाने ढूंढते थे... और बात-बात पर पहुंच जाते थे फोटोग्राफर भाईसाहब के पास.. नए-नए कपड़ों और सूटबूट में सजधजकर पहुंच गए तस्वीर खिंचवाने.. लेकिन वो तस्वीर ही क्या जिसमें टशन न हो.. जिसमें अदा न हो.. दोस्तों का साथ हो और एक्टिंग न हो, तो फिर क्या कहने.. फोटोग्राफर की दुकान पर अदा दिखाने का पूरा सामान मौजूद होता था.. बस फिर क्या था.. हाथ में पकड़ा टेलीफोन और पीछे टेलिविज़न.. बगल में खड़े हो गए साथी.. क्या कमाल की पिक्चर होती थी.. पीछे पहाड़ों का नज़ारा, कुर्सी पर बैठकर बन गये लाट साहब.. फोटोग्राफर ने कहा स्माइल प्लीज़... और लो जी खिंच गई तस्वीर... अपने यार दोस्तों के साथ तो आपने भी ज़रूर खिंचवाई होगी ऐसी तस्वीर.. क्यों जी याद आए दोस्तों के साथ कुछ पुराने दिन..यारबाज़ी के दिन...

ये तस्वीर देखकर आपको हंसी तो आ रही होगी, लेकिन हंसियेगा मत.. कभी न कभी तो आपने भी किसी के साथ ऐसी तस्वीर खिंचवाई होगी.. रानी मुखर्जी न सही, प्रीती जिन्टा ही सही.. कुछ नहीं तो माधुरी के साथ ही.. आपके दिल ने भी धक-धक तो किया ही होगा... अरे क्या हुआ असली न सही.. तो उसकी तस्वीर ही सही... कम से कम तस्वीर ने तसव्वुर करने को कब मना किया है... पीछे पहाड़ों का खूबसूरत नज़ारा और बगल में रानी मुखर्जी हो.. तो किस कमबख्त का मन नहीं करेगा...एक अदद तस्वीर बनवाने के लिए... बस रानी मुखर्जी की कमर में डाल दिया हाथ.. कौन सा रानी मुखर्जी मना कर रही है.. और फिर वैसे भी फोटोग्राफर तो पूरे ही पैसे लेगा.. और फिर जब मौका मिल रहा है, तो क्यों न कैश करा लिया जाए... मेला भी याद रहेगा.. और मेले में खिंचवाई तस्वीर भी..तस्वीरें भले ही पुराने दौर की हों... लेकिन एक दौर को याद करा गईं... कुछ भूला-बिसरा वक्त..
अबयज़ ख़ान
सबसे पहले आप ये तस्वीर देख लीजिए.. और तस्वीर में इस बोर्ड पर जो लिखा है उसे भी गौर से पढ़ लीजिए... जी हां सबसे ऊंचा पेट्रोल पंप.. और सबसे ऊंचा सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं, बल्कि दुनिया का सबसे ऊंचा पेट्रोल पंप.. या ये भी कह सकते हैं कि भारत-तिब्बत सीमा पर सबसे आखिरी पेट्रोल पंप... अगर यहां आकर आपकी गाड़ी में पेट्रोल ख़त्म हो गया.. तो समझो.. फिर तो आपकी गड्डी चलने से रही... हिंदुस्तान के इस अनूठे पेट्रोल पंप पर भी हम आपको ले चलेंगे.. लेकिन उससे पहले ये जान लेना ज़रूरी है, कि भारत का ये सबसे आखिरी और दुनिया का सबसे ऊंचा पेट्रोल पंप आखिर हैं कहां..? शिमला से करीब 425 किलोमीटर और समुद्रतल से 3800 मीटर ऊंचाई पर एक छोटा सा कस्बा है काज़ा... हिमाचल के लाहौल-स्पीति ज़िले में मौजूद इस कस्बे की खूबसूरती देखते ही बनती है...

वैसे तो पूरे लाहौल-स्पीति को ही बर्फीला रेगिस्तान कहा जाता है... लेकिन काज़ा की पहाड़ियों पर जमी बर्फ और हल्के काले बादल इसको और भी दिलकश बना देते हैं... लाहौल स्पीति की पूर्वी सीमा तिब्बत से मिलती है और तिब्बत की सीमा के पास ही मौजूद है काज़ा.. स्पीति नदी के किनारे पहाड़ी की चोटी पर बसे इस छोटे से कस्बे में कुछ होटल्स और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए छोटा सा बाज़ार भी है...हालांकि काज़ा के बारे में कहा जाता है कि यहां ऑक्सीजन की कमी की वजह से कई बार आपको सांस लेने में भी दिक्कत हो सकती है.. लेकिन यहां पहुंचने का रोमांच सारी थकावट को दूर कर देता है... काज़ा से कुछ ऊपर ही है रोहतांग दर्रा, जिसकी समुद्रतल से ऊंचाई तकरीबन 3980 मीटर है.. और रोहतांग जाने वाले काज़ा से होकर ही गुज़रते हैं...

मनाली से भी काज़ा के लिए आपको टैक्सियां मिल सकती हैं... लेकिन सर्दियों में जब बर्फ ज्यादा पड़ती है, तो काज़ा जाने वाले रास्ते भी कुछ वक्त के लिए बंद हो जाते हैं... कई बार तो बिजली की भी दिक्कत आने लगती है... काज़ा से करीब बीस किलोमीटर दूर है किब्बर गांव... काज़ा से किब्बर जाने वाले रास्ते में ही पड़ता है दुनिया का सबसे ऊंचा पेट्रोल पंप... छोटे से गांव किब्बर कि आबोहवा इतनी खुशनुमा है कि मन करता है, बस यहीं के होकर रह जाओ... यहां की चोटियों पर खड़े होकर लगता है कि आसमान अब और दूर नहीं है और अगर एक पत्थर भी तबियत से उछाला जाए, तो यकीनन आसमां में सुराख हो सकता है... काज़ा के पास ही इंडियन ऑयल ने बनाया है अनूठा रिकॉर्ड.. दुनिया का सबसे ऊंचा पेट्रोल पंप कायम करने का...

इस पेट्रोल पंप पर वो सभी सहूलियतें हैं जो किसी दूसरे पेट्रोल पंप पर होती हैं... पेट्रोल-डीज़ल के साथ ही, फर्स्ट एड तक... पहाड़ी पर मौजूद पेट्रोल पंप छोटा ज़रूर है, लेकिन आपके सफ़र में कभी रुकावट नहीं आने देता... पेट्रोल पंप के आस-पास सफेद चांदी जैसी बर्फ की चोटियां आपको बरबस ही अपने आगोश में ले लेती है... तिब्बत की सीमा से सटे इस पेट्रोल पंप पर जो भी आता है, वो खुद पर फख्र ज़रूर करता है... इस पेट्रोल पंप के कुछ लम्हों को अपने कैमरे में ज़रूर कैद करता है... खास बात ये है कि पेट्रोल पंप के बड़े से बोर्ड के नीचे सर्व शिक्षा अभियान का नारा भी लिखा है.. जो माता-पिता शिक्षित होंगे, संतान उसी की सुखी होगी... यानि इंडियन ऑयल का ये पंप, न सिर्फ पहाड़ की मुश्किल राहों को आसान बना रहा है, बल्कि सरकार के नेक काम में भी इसने भागीदारी निभाई है... वाकई लाजवाब है भारत का आखिरी और दुनिया का सबसे ऊंचा पेट्रोल पंप...
आखिर में काज़ा से जुड़ी एक और दिलचस्प बात.. जब मैंने ये पोस्ट पब्लिश की, उसके बाद मेरे पास आदर्श का फोन आया, आदर्श का कहना था, कि काज़ा वैसे तो एक टूरिस्ट प्लेस है ही, लेकिन जब किसी अधिकारी या कर्मचारी को सज़ा देना होती है, तो सरकार उसका ट्रांसफर काज़ा में कर देती है... है न दिलचस्प बात..
अबयज़ ख़ान
जब आपका कोई आपसे रूठ जाए तो आप क्या करते हैं... उसे मनाने की कोशिश करते हैं न..? लेकिन फिर भी कोई आपसे रूठा ही रहे तो आप क्या करेंगे.. उसे एक बार फिर से मनाने की कोशिश करेंगे... लेकिन अगर वो आपसे मिलना ही न चाहे तब आप क्या करेंगे... क्या कोई किसी से इस कदर भी रूठ सकता है, कि वो फिर उसे मनाने का मौका भी न दे... क्या कोई गुनाह इतना बड़ा भी हो सकता है, कि उसकी माफी नहीं हो सकती... इक छोटी सी बात क्या तमाम रिश्तों को ख़त्म कर देती है, क्या तमाम जज़्बात ख़त्म हो जाते हैं... क्यों तुम मेरे साथ खुद को भी सज़ा दे रहे हो... अगर कसूर मेरा है, तो सज़ा भी मुझे मिलनी चाहिए.. तुम बेवजह गुनाह में भागीदार क्यों बन रहे हो... तुम भले ही अपने दिल पर पत्थर रखकर उसे समझाने की कोशिश करो... लेकिन मैं ये अच्छी तरह जानता हूं, कि खुश तुम भी नहीं हो...

बेशक ख़ताओं की सज़ा दी जाए.. लेकिन एक बार ख़तावार की बात भी तो सुन लेना चाहिए... ये जानते हुए भी कि कुछ गलतफहमियां किसी की ज़िंदगी को ज़र्रा-ज़र्रा भी कर सकती हैं... फिर कुछ नादानियां किसी को उम्र भर की सज़ा कैसे दे सकती हैं... मुमकिन है कोई किसी को भुला देता हो, लेकिन उसकी यादों को मिटाना तो नामुमकिन है... तस्वीरें कमरे से हटाई जा सकती हैं... लेकिन जो यादें दिलों में बस गईं उनको कैसे मिटाया जा सकता है... अपनी तस्कीन के लिए हम किसी को भुलाने की कोशिश कर सकते हैं... लेकिन भुला तो नहीं सकते न... बंदूक की गोली के ज़ख्म मुकर्रर वक्त पर भर जाते हैं... लेकिन प्यार के अंजाम में मिला ये घाव तो उम्र भर के लिए तड़पने को मजबूर कर देता है...

ये कैसे मुमकिन है, कि दो प्यार करने वाले ही फिर एक-दूसरे से हमेशा-हमेशा नफ़रत करने लगें... शिकवा तो ये कि हमने कभी खुद को बदला ही नहीं... मिले भी हर किसी से, लेकिन अफ़सोस के अजनबी ही बने रहे... प्यार कैसे किसी के लिए सज़ा बन जाता है... बाद नफ़रत के फिर एक दर्द का सिलसिला सा शुरु हो जाता है... प्यार तो हज़ार गुनाहों को माफ करता है, लेकिन फिर यही प्यार कैसे नफ़रत की वजह बन जाता है... कैसे शबनम शोलो में बदल जाती है... कैसे रुखसार पर ढलकने वाले आंसुओं का मतलब बदल जाता है... बेशक प्यार कभी कुछ जानकर नहीं होता... लेकिन एहसास तो हो ही जाता है... ज़रूरी तो नहीं कि प्यार जताने के लिए इज़हार की ज़रूरत ही पड़े...

प्यार तो आंखो की जुबां समझता है... जज़्बातों को पढ़ लेता है... कई बार तो लगता है कितनी आसान थी वो ज़िंदगी, जब हमारी सिर्फ खुशी से दोस्ती थी...अब लगता है कितनी अजीब है ज़िंदगी किसी को प्यार नहीं मिलता, तो किसी को मिलकर भी नहीं मिलता... लेकिन हमें तो कुछ पल की मोहलत भी न मिली...न तो वक्त ने हम पर रहम किया और न ज़माने ने... उनकी नज़रों ने हमें पल भर में ही रुसवा कर दिया... न हम सच्चे प्यार के काबिल रहे और न उन्होंने ही हमें एतबार के काबिल समझा... जिसके लिए रास्ते की तमाम बंदिशों को तोड़ा, एक दिन वही साथ छोड़कर चला जाता है.. बिना कुछ कहे, बिना कुछ बताए, बिना कुछ सुने... इक सज़ा दे जाता है... उम्र भर भुगतने के लिए...

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी, चैन से जीने की सूरत ना हुई
जिसे चाहा उसे अपना ना सके जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई
अबयज़ ख़ान
जुगाड़.. नाम सुनकर आपको कुछ अटपटा ज़रूर लगेगा.. लेकिन जनाब चौंकिए मत.. इस जुगाड़ पर तो आपकी और हमारी पूरी ज़िंदगी चल रही है.. ताज़ा-ताज़ा जुगाड़ आजकल झारखंड में चल रहा है.. क्या जुगाड़ लगाया, बीजेपी ने.. उन्हीं सोरेन साहब को पटा लिया, जिन्हें वो पानी पी-पीकर कोसती थी... लेकिन ये तो कुछ भी नहीं है.. जुगाड़ तो 1999 में हुआ था.. जब अटल जी एनडीए के 13 पहियों के रथ पर सवार होकर आए थे... बाद में उसमें कितने और जुड़े थे, अब तो ठीक से याद भी नहीं... लेकिन जुगाड़ का वो फार्मूला पूरे पांच साल चला था। लेकिन बात अब असली जुगाड़ की... असल में मेरा मकसद आपको जुगाड़ की यात्रा कराना था..

जनवरी के पहले हफ्ते की बात है.. मेरे चाचा और चाची हज से लौटकर आए, लिहाज़ा उनसे मिलने जाना भी ज़रूरी था... दिल्ली से खतौली तक का सफ़र तो बस से पूरा हो गया.. लेकिन खतौली से आगे उनके गांव फुलत तक जाने के लिए न तो बस थी, और न ही कोई ट्रेन... गांव तक जाने के लिए बस एक ही साधन था... जुगाड़.. क्या कमाल की गाड़ी है.. रतन टाटा देख लें तो शर्मा जाएं... उनकी लाख टके की नैनो तो जुगाड़ के आगे पानी भरती नज़र आए.. नैनो में कहां चार लोग ही बैठ सकते हैं... ज़रा वज़न ज्यादा हुआ, तो क्या भरोसा नैनो चलने से मना कर दे... लेकिन अपना जुगाड़ मस्त है... एक ही खेप में इंसान और जानवर एक साथ उसपर सवारी करते हैं... फिर भी जगह बाकी है, तो कुछ बोझा भी लाद लो... लेकिन अपना जुगाड़ उफ़ तक नहीं करता...

सड़क चाहें कैसी भी हो, ऊबड़-खाबड़ हो... पथरीली हो या रपटीली हो... जुगाड़ जब चलता है तो मस्त चलता है... उड़नखटोले जैसी दिखने वाली इस गाड़ी की डिज़ाइनिंग भी ऐसी लाजवाब कि अच्छे-अच्छे इंजीनियर भी चकरा जाएं... दुनिया में चार पहियों की इससे सस्ती गाड़ी तो शायद अबतक नहीं बनी होगी... क्या कमाल का जुगाड़ है... सबसे पहले डीज़ल इंजन के पुराने जनसैट का जुगाड़ किया... फिर कहीं से जीप का स्टैयिरंग लिया और उसमें ट्रैक्टर का गियर बॉक्स लगा दिया... एक्सीलेटर, क्लच और ब्रेक भी ट्रैक्टर के पुराने पुर्ज़ों से जुगाड़ लिये... लो जी आधी गाड़ी तो तैयार... लेकिन पहिए अभी बाकी हैं... सो पुरानी जीप और पुराने ट्रैक्टर से ये प्रॉब्लम भी सॉल्व हो गई...

इसके बाद कहीं से लकड़ी के कुछ पटले जुगाड़े और उन्हें मैकेनिक के यहां ले जाकर एक जुगाड़ वाली बॉडी बनवा ली.. फिर उसे फिट करा लिया... लो हो गया तैयार जुगाड़... न हींग लगी और न फिटकरी और रंग भी चोखा हो गया... अब चाहें इस पर खेत-खलिहान का बोझा लादो, या दरोगा जी की नाक के नीचे सवारियां भरो.. हाईवे पर दौड़ाओ या खेतों में, अपना जुगाड़ मस्त है... न रजिस्ट्रेशन का झंझट, न ड्राइविंग लाईसेंस की चिकचिक.. आखिर पूछता कौन है... बच्चे चलाएं या बूढ़े... जुगाड़ चलता जाता है... बिना किसी की परवाह किये... हिचकोले खाता.. हवा से बातें करता.. अपना जुगाड़ दौड़ता जाता है...

लेकिन जुगाड़ का भी एक दर्द है, देश की आधी आबादी उसके भरोसे टिकी है.. सैकड़ो गांव तो ऐसे हैं, जहां अगर जुगाड़ न हो, तो शायद वहां के लोग शहर का मुंह भी न देख पाएं... लेकिन फिर भी इस जुगाड़ की कोई कद्र ही नहीं... सब उसे बड़ी हिकारत की नज़र से देखते हैं... जनता के लिए बिजली सड़क पानी का दावा करने वाली सरकारों को तो शायद मालूम भी नहीं होगा, कि मुल्क में करीब आधी आबादी आज भी जुगाड़ पर टिकी है... और बाकी लोग भी देख रहे हैं, कि उनका देश भी जुगाड़ से ही चल रहा है... सरकारें ही जब जुगाड़ पर टिकी हों, तो ज़मीन पर रहने वालों को पूछता ही कौन है... सब्र कर जुगाड़ एक दिन तेरे भी पूछ होगी, जब अमेरिका चुपके से जुगाड़ का भी पेटेंट करा लेगा और फिर हम इंपोर्टेड जुगाड़ पर सफर करके बड़ा फख्र महसूस करेंगे...
अबयज़ ख़ान
बचपन में मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी पड़ी थी ईदगाह... उसमें हामिद नाम का एक छोटा सा बच्चा था, जो अपनी दादी के लिए मेले से एक चिमटा लाया था, ताकि उसकी दादी के हाथ जलने न पाएं... उस कहानी को पढ़कर दो आंसू हामिद और उसकी दादी के लिए ज़रूर छलक आते थे... लेकिन न तो अब हामिद है, न उसकी दादी और न ही अब कहीं मेले नज़र आते हैं... हिंदुस्तान की पहचान मेले गांव-देहातों की शान हुआ करते थे, मेलों में सज धजकर जाना फख्र की बात माना जाता था... जहां कहीं मेला लगता था, वहां तो समझो ईद हो जाती थी.. बड़ी फुर्सत से जाते थे मेले में... दूर-दूर से नाते-रिश्तेदार भी मेला करने आते थे...

मेरे कस्बे में भी साल में कई मर्तबा मेला लगता था... लेकिन सबसे मशहूर मेला मुहर्रम का था.. दूर-दूर से दुकाने आती थीं, जिसमें बच्चों के लिए तमाम तरह के खिलौनों की दुकाने होती थीं, तो कहीं औरतों के लिए बिसातखाने की दुकाने... कहीं-कहीं हर माल वालों की दुकान भी होती थी, जहां पांच रुपये में सुई से लेकर मानों तो हवाई जहाज तक मिल जाता था... तो कहीं हल्वे-पराठे और जलेबियों की दुकाने भी लगती थी... गर्मागर्म जलेबी खाने के बाद अगर आपकी जीभ को कुछ चटपटा खाने की मंशा हो, तो समोसों से लेकर आलू टिक्की और गोल गप्पे तक हाज़िर होते थे... गोल गप्पे भी दिल्ली की तरह नहीं.. पांच रुपये में तीन... वहां तो भरपेट खाओ.. जितना मन करे, कचौड़ियों से लेकर पकौड़ियों तक.. लेकिन दाम बस एक से दो रुपये तक...

मेले में खिलौनो और खील-बताशों के बीच ही सबीलें भी लगाई जाती थीं, जहां लोगों को शर्बत पिलाया जाता था....अगर अब आप खाने-पीने और दुकानदारी से निपट गये हों, तो चले आईए मेले के दूसरे छोर पर... अहा.. क्या-क्या नज़ारे होते थे... बड़े-बड़े झूले...जिसमें बैठने के बाद रोंगटे खड़े हो जाएं... और कोई पहली बार बैठ गया, तो समझो उसको तो चक्कर आ जाए... झूले में बैठने के बाद लगता था, कि बस सबसे ऊपर तो अब हम ही हैं... मेले में फोटोग्राफर की दुकान पर सबसे ज्यादा मजमा जुटता था...नौजवान लड़के-लड़कियां बड़ी अदा के साथ उसकी दुकान पर फोटो खिंचवाते थे... कोई हाथ में टेलीफोन लेकर फोटो खिंचवाता था, तो कोई मोटरसाईकिल पर सवार होकर अपनी तस्वीर बनवाता था.. चश्मा लगाकर और बन-ठनकर फोटो खिंचवाने वालों की तो पूछिए मत...

दूसरी तरफ़ तमाशे वाले.. एक से एक तमाशे... कहीं मदारी बंदर का नाच दिखा रहा है, तो कहीं जादूगर बच्चे का सिर धड़ से काट देता था, और तमाशा देखने वाले दूसरे बच्चों का तो खून सूख जाता था... फिर जादूगर सबको धमकाकर कहता था, कि जो आदमी यहां से बिना पैसे दिये जाएगा.. वो घर तक सही सलामत नहीं पहुंच पाएगा... उसको जादू के करतब से मैं बीमार कर दूंगा... और मासूम बच्चे डर के मारे घर से जो पैसे लेकर आते थे, वो सब उसी को देकर चले जाते थे... इसके बाद बारी आती थी सर्कस की... अजब-गजब करतब करती लड़कियों को देखने के लिए पूरा का पूरा कस्बा जुट जाता था... सर्कस के बाहर शेर का बड़ा सा बोर्ड भी लगा होता था, लेकिन शेर कभी नज़र नहीं आया...

वहीं पास में ही एक छोटा सा सनीमा वाला रोज़ाना तीन शो... शोले..शोले..शोले... सुपर डुपर हिट फिल्म... ज़रुर देखिए.. ज़रूर देखिए की आवाज़ लगाता था... सनीमा क्या था... पूरा जुगाड़ था... पटलों पर बैठकर वीसीआर पर फिल्म देखते थे... सनीमा से फ्री होने के बाद देर रात में एक और शो चलता था... नाम था डांस पार्टी... पता नहीं कहां से उसमें लड़कियां डांस करने आती थीं.. लेकिन उसमें मजमा बहुत जुटता था... देर रात तक डांस पार्टी चलती थी... और बिगड़ैल शहज़ादे उसमें पैसे लुटाकर देर रात घर लौटते थे...

सनीमा और सर्कस से निपट गये हों, तो चलिए आपको लेकर चलते हैं अजब अनूठे करतब में... जहां एक आदमी ऐलान करता है, कि वो बारह दिन तक साईकिल पर ही सवार रहेगा और बारहवें दिन समाधि ले लेगा... अजीबो-गरीब तमाशा होता था वो... आदमी बारह दिन तक साईकिल चलाता रहता था... उसी पर बैठकर खाता था... उसी पर नहाता था... गरज ये कि बारह दिन तक सारे काम साईकिल पर ही बैठकर करता था, फिर बारहवें दिन एक बड़ा सा गड्डा खोदा जाता था, जिसमें वो साईकिल समेत चला जाता था... फिर उसकी कब्र बनाई जाती थी, मतलब ये कि ज़िंदा आदमी कब्र में दफ्न.. फिर उसे दो दिन बाद कब्र से निकाला जाता था... और वो उसमें से जिंदा निकलता था... लेकिन इतना सब करने के बाद भी उसे मामूली से पैसे मिलते थे... लेकिन पेट भरने के लिए शायद उतना ही काफी होता था... हां इतना ज़रूर होता था, कि उस वक्त तमाशे और मेलों में भीड़ बहुत जुटती थी.. शायद उस वक्त लोगों को फुर्सत बहुत रही होगी... अब न वो मेले हैं और न फुरसत के वो चार दिन... जाने कहां गये वो मेले...
अबयज़ ख़ान
चलिए नए साल पर एक खुशख़बरी उन मर्दों के लिए जो शादी के बाद भी पति-पत्नी और वो के चक्कर से निकले नहीं हैं... और खुशख़बरी उनकी पत्नियों के लिए भी जो अपने दिलफेंक मियां से आजिज़ आ चुकी थीं... घबराइये मत... जो काम आपके पति कर रहे हैं वो उनकी ज़िंदगी में तो रंग भर ही रहा है, आपकी शादी-शुदा ज़िंदगी में भी उससे बहार आ जाएगी... अरे ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं... बल्कि ये नया राग तो अंग्रेज़ों की देन है... और वो भी कोई अंग्रेज़ पुरुष नहीं, बल्कि एक फिरंगी महिला... फ्रांस की मशहूर साइक्लोजिस्ट मैरसी वैलेंट कहती हैं, कि अगर आपके पति परमेश्वर किसी दूसरी मोहतरमा से आंख लड़ा रहे हैं, तो उनके पीछे चाकू लेकर भागने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि अब तो आपको खुश होना चाहिए... और अगर उनकी ज़िंदगी में कोई वो है, तो घबराइये मत, क्योंकि इससे आप दोनों के रिश्तों में गर्मी आने के बजाए नरमी आएगी... और ज़िंदगी पहले से ज्यादा बेहतर हो जाएगी... आपको यकीन न हो, तो अंग्रेज़ी की ये चार लाइने भी पढ़ लीजिए... पूरा माजरा समझ में आ जाएगा...

If your husband is enjoying a secret rendezvous with another women, don't run after him with a knife, for the extra-marital affair is a sign that your marriage is a healthy one.
That's the claim of France''s most prominent female psychologist Maryse Vaillant in controversial new book on the effects of infidelity on married life, Men, Love, Fidelity, reports The Telegraph.

मैडम मैरसी के मुताबिक इसे बेवफ़ाई भी नहीं माना जा सकता... और अगर आपके पति इस तरह के रिश्तों में भरोसा रखते हैं, तो उन्हें अकेला छोड़ दीजिए, क्योंकि कुछ दिन बाद वो इसे खुद ही छोड़ देंगे... पता नहीं फ्रांस की इन साइक्लोजिस्ट मैडम का दावा कितना सही है, लेकिन इतना तो तय है कि इसे पढ़ने के बाद टाइगर वुड की पत्नी पर क्या बीत रही होगी, इसका अंदाज़ा आप खुद ही लगा लीजिए... और टाइगर वुड का तो पूछिए ही मत, पांचो उंगलियां तो पहले ही घी में थीं, अब सर भी कढ़ाही में है... वो तो पति-पत्नी और वो से भी आगे बढ़ चुके थे... वो-वो करते-करते उनकी तो 18 वो हो गईं थीं, गजब मैनेजमेंट है भाई... वाह भई वाह... चलो टाइगर वुड्स के अलावा किसी और को भी राहत मिली... हमारे यहां भी एक नेताजी हैं... बड़े रंगीले.. बड़े रंगीन मिजाज़.. कौन नहीं जानता, उनके बारे में... कितना नाम छपा उनका अख़बारों में, कितनी बार बेचारे टीवी पर आए... इसको कहते हैं न हींग लगी न फिटकरी और रंग चोखा हो गया...उम्र भले ही पचपन की थी, लेकिन मन बेचारा जवानी का ही था...

आखिर दिल पर किसका बस चलता है.. दिल तो बेचारा है... प्यार का मारा है... डर लगता है तन्हा सोने में जी.. दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी... फ्रांस की मोहतरमा मैरसी की किताब तो मार्केट में आने के बाद ही कोहराम मचा रही है... अंग्रेज़ तो उनकी इस थ्योरी को शायद इसको हज़म भी कर जाएं.. क्योंकि विदेशों में तो ये सब वैसे भी चलता है.. लेकिन अपने हिंदुस्तान के घरों में ज़रूर पड़ोस के घर से बेलन चलने की आवाज़े सुनाई पड़ने लगेंगी... ज़रा एक बार को मान लीजिए कि ये थ्योरी अपरूव्ड हो गई तो क्या होगा...खुदा की कसम कयामत हो जाएगी... पति-पत्नी और वो के किस्से हर मुहल्ले से सुनाई पड़ने लगेंगे...ज़रा रिश्तों में खटास आई नहीं, कि मश्विरे देने वालों की कतार लग जाएगी... कोई कहेगा मेरा ख्याल है, तुम अपने पति की किसी से सैटिंग करवा दो, फिर देखना कैसे तुम्हारे पति तुम्हारी उंगलियों पर नहीं नाचते हैं... मेरे पति की तो कई सैटिंग्स हैं, मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ता... वो तो मेरे एक इशारे पर चलते हैं... टोने-टोटको में एक नया टोटका ये भी शामिल हो जाएगा...वाह जी वाह, क्या थ्योरी है...रिश्ते फिर से बहाल करने के लिए।
अबयज़ ख़ान
भरोसा क्यों और किस पर किया जाए... किसलिए किया जाए... क्या सिर्फ़ इसलिए कि उसने आपको अपनी कसम खाकर ये एतबार करा दिया, कि मैं तुम्हारा भरोसा कभी डिगने नहीं दूंगा... क्या सिर्फ़ इसलिए कि उसने अपने बच्चों की कसम खाकर ये एतमाद दिला दिया, कि मैं तुम्हारे साथ दगा नहीं करूंगा... क्या सिर्फ़ इसलिए कि उसने तुम्हारे कंधे को हल्के से अपने हाथों से दबा दिया... और तुम्हें इस बात की तसल्ली दे दी, कि मेरे दोस्त बुरे वक्त में मैं ही तुम्हारे साथ हूं.. ज़माना तो बहुत ख़राब है और तुम अपने दिल के राज़ मुझसे शेयर कर सकते हो.. तुम अपनी ज़िंदगी का फलसफा मेरे सामने रख सकते हो.. तुम अपनी कहानी मुझे सुना सकते हो.. तुम अपना हाले-दिल मुझसे कह सकते हो...

तुम अपनी ज़िंदगी का कभी न खोलने वाला राज़ भी मुझे बता सकते हो, और मेरा वादा है तुमसे कि तुम्हारा ये राज़ कभी फरिश्तों को भी पता नहीं चल पाएगा... मेरा वादा है ये तुमसे, कि मैं तुम्हारा एतबार टूटने नहीं दूंगा... मेरा वादा है तुमसे, कि तुम्हारा ये राज़ हमेशा-हमेशा के लिए दफ्न हो जाएगा... और हम अपनी ज़िंदगी की किताब के वरक खोलकर उसके सामने रख दें... क्या कोई राज़ किसी को सिर्फ़ इसलिए बता दिया जाए, क्योंकि उसने आपको अपने कुछ ज़ाती राज़ बता दिये हैं... लेकिन बावजूद इसके इस बात की क्या गारंटी है कि इसके बाद दुनिया में कोई भी आपके निजी माअमलात में दख़लअंदाज़ी नहीं कर पाएगा... आपके राज़ हमेशा-हमेशा के लिए दफ्न हो जाएंगे...

आप पर उंगली उठाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाएगा... क्या ऐसा सचमुच होता है, जब आप किसी को अपने राज़ बता देते हैं और उसके बाद आपकी निजी ज़िंदगी में चैन-सुकून आ जाता है... कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता... मेरा अपना तजुर्बा तो कहता है कि इसके बाद आपकी टेंशन और बढ़ जाती है... और आपको हमेशा इसी बात का डर सताता रहता है कि पता नहीं वो कब मेरे राज़फ़ाश कर दे... कई बार ऐसा होता है, कि जिसे आपने सबसे ज्यादा अज़ीज़ समझकर अपना राज़दार बनाया, कुछ दिन बाद उसी के साथ रिश्तों में दरार आ गई... फिर इस बात की क्या गारंटी है, कि वो आपके राज़फ़ाश नहीं करेगा...

शायद इसीलिए आपको कई बार ऐसे शख्स की खुशामद भी करनी पड़ती है, जिसे आप रत्तीभर भी पसंद नहीं करते... सिर्फ़ इसीलिए कि कहीं वो आपके राज़ बेपर्दा न कर दे... आखिर इस भरोसे का भरोसा है क्या..? आखिर इंसानी फितरत का भरोसा क्या है...? आखिर इस भरोसे का पैमाना क्या है..? शायद इन तमाम सवालों का जवाब किसी के पास नहीं होगा, और अगर हुआ, तो यही कि किसी न किसी पर तो भरोसा करना ही पड़ेगा ही, वरना इसके बिना तो ज़िंदगी का पहिया घूमने से रहा... या फिर आप लोग भी यही कहेंगे कि राज़ को राज़ ही रहने दो... क्योंकि पर्दा जो उठ गया, तो फिर गिर नहीं पाएगा... और ज़माने का भरोसा क्या इसकी तो फितरत ही ज़ालिम है...

वरना क्या भरोसा उसके वादे का मगर..
दिल को खुश रखने को एक वादा तो है...
अबयज़ ख़ान
कोहरे में कुछ सुझाई नहीं दे रहा था.... हाथ को हाथ नज़र नहीं आ रहा था... लेकिन फिर भी घर तो पहुंचना ही था.. रात के करीब साढ़े बारह बज रहे थे... मोटरसाइकिल पर चलना दूभर हो चुका था... सड़क पर हर तरफ़ बस कोहरा ही कोहरा था... आगे वाली कार के पीछे मैं चलता चला जा रहा था...घर किस रास्ते पर है मालूम नहीं पड़ रहा था... धुंध में दो पग भी चलना मुश्किल था... बाइक दस किलोमीटर की रफ्तार से रेंग रही थी... सड़क पर सन्नाटा पसरा था... लोग अपने-अपने घरों में बिस्तरों में दुबके थे... घर का रास्ता कोसों दूर लग रहा था... दफ्तर से मेरा घर बामुश्किल पांच या छह किलोमीटर होगा... लेकिन कोहरे की चादर में ये रास्ता लगातार लंबा होता जा रहा था... कोहरे ने हेलमेट के शीशे पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया था... हेल्मेट हटाते ही मुंह पर ओस की बूंदे गिरने लगती... हालांकि ठंड में कंपकपी छूट रही थी...लेकिन मौसम का एक रुमानी अंदाज़ ये भी अच्छा लग रहा था...
दास्तानों में होने के बावजूद हाथ बर्फ़ हो चुके थे... जो कार आगे चल रही थी, कुछ दूर चलने के बाद वो अचानक ओझल हो गई.... अब मेरे लिए एक कदम बढ़ाना भी मु्श्किल हो चुका था... मैं किस रास्ते पर जा रहा हूं... मुझे कुछ पता नहीं था... कुछ दूर चलने के बाद मुझे मेरी तरह ही बाइक पर एक और शख्स नज़र आया... सोचा इन्हीं जनाब से रास्ता पूछ लिया जाए... लेकिन शायद वो खुद भटके हुए थे... खैर जैसे-तैसे घर पहुंचा... करीब डेढ़ बज चुका था.. दस मिनट का सफर एक घंटे में पूरा हुआ... घर में घुसते ही न आव देखा न ताव... जल्दी से रज़ाई उठाई और बिस्तर के आगोश में जाने में ही भलाई समझी... लेकिन नींद इतनी जल्दी कहां आना थी... अब तो आदत पड़ चुकी थी देर रात सोने की... और तकरीबन रात के ढाई बजे ही जाकर आंख लगी होगी...

रात गहराने के साथ ही बिस्तर लगातार सर्द होता जा रहा था... याद आ रहा था बचपन और बचपन की कहानियां... मुंशी प्रेमचंद का हल्कू मेरी आंखो के सामने खड़ा था.. जिसने साहूकार का कर्ज़ चुकाने की खातिर अपने लिए कंबल तक नहीं खरीदा... और पूरी रात जंगल में ऐसे ही ठिठुरते हुए गुज़ार दी थी... हल्कू तो अब भी बहुत हैं.. लेकिन उनका दर्द समझने वाला कोई मुंशी प्रेमचंद शायद अब नहीं है... मैंने सुबह दस बजे का अलॉर्म लगाया था... लेकिन आंख सुबह सात बजे ही खुल गई... किसी ने दरवाज़े पर नॉक किया था... मन किया उठते ही जो भी होगा उसे दो-चार बातें तो ज़रूर सुनाऊंगा... सुबह-सुबह ही नींद खराब कर दी... लेकिन दरवाज़ा खोला तो कामवाली बाई खड़ी थी... ठंड में ठिठुरते हुए...

कोहरा अब भी रात जैसा ही पसरा हुआ था... मौसम अब भी उतना ही सर्द था... उसके जिस्म पर इतनी ठंड में भी एक पुरानी सी शॉल थी.. कपड़ों की हालत देखकर लग रहा था, कि इससे पहले वो दूसरे घर में काम करके आई है... और अब यहां... बाप रे बाप.. इतनी सर्दी में अपना तो पानी में हाथ डालने को भी दिल नहीं करता... और ये लोग घर से बाहर ठंड में सिकुड़े जा रहे हैं...दरवाज़े में अख़बार का बंडल भी पड़ा था... जो अख़बार वाला लड़का सुबह ही डाल गया था... ठंड में अपनी साईकिल पर... आंधी हो या तूफान, जाड़ा हो या बरसात... उसे तो काम पर जाना ही है... दुनिया सोती रहे... अखबार वाला लड़का कभी नहीं सोता... दूधवाला तय वक्त पर दूध देने आ जाता है... भले ही वो पानी पहले से ज्यादा मिलाता हो... लेकिन उसके भी आने का वक्त नहीं बदला... दरवाज़े पर बर्तन में दूध भी रखा हुआ था...

गली में अब भी दस-पंद्रह साल के दूसरे लड़के अख़बार के बंडल बना-बनाकर दूसरों के घर में फेंक रहे थे.. तन पर उनके एक स्वेटर से ज्यादा कुछ भी नहीं था... साईकिल के हैंडल पर उनकी उंगलियां ठंड में काली पड़ चुकी थीं... पैरों में हवाई चप्पल के बावजूद वो सर्दी के सामने घुटने टेकने को तैयार नहीं थे... हवा के थपेड़ों में उन्होंने ज़िंदगी जीना सीख लिया था... और इस बात को भी अच्छी तरह जानते थे, कि ये मौसम तो अमीरों के लिए बने हैं... सर्दियों में गर्म कपड़े, रज़ाई में चाय के साथ मूंगफली और गजक... कमरे में गर्म हीटर... ये सब तो बड़े लोगों के चोंचले हैं.... लेकिन उन बदनसीबों को तो हर दिन काम पर जाना है... उनको न सर्दी लगती है, न गर्मी और न बारिश के थपेड़े उनका रास्ता रोक पाते हैं... उन्हें तो सिर्फ़ भूख लगती है... और घर पर बच्चे उनका इंतज़ार करते हैं....