अबयज़ ख़ान

रोज़ की तरह दफ्तर में ख़बर को लेकर अफ़रा-तफ़री मची थी... सुबह, सुबह वैसे भी ख़बरों का टोटा होता है, लिहाज़ा हर ख़बर को स्क्रीन पर उतारने की जल्दबाज़ी रहती है। अचानक एक ख़बर पर नज़र पड़ी, पहले तो कुछ खास नहीं लगा। लेकिन फिर ध्यान आया कि कम से कम इसके विज़ुअल्स तो देख ही लिए जाएं... ख़बर थी, कि राजस्थान के प्रतापगढ़ में भेरूलाल नाम के एक शख्स को सपना आया, जिसमें उसने एक घोड़ा और उसके पैरों के निशान देखे। सपने में उसके देवता रामदेव ने उसे गांव में मंदिर बनाने का आदेश भी दिया। भेरूलाल ने सुबह उठते ही गांववालों को इस सपने के बारे में ख़बर दी, सपने के मुताबिक उसे गांव में ही एक छोटा सा घोड़ा और उसके पैरों के निशान भी मिल गये।

बस फिर क्या था, भेरूलाल और गांव वाले फटाफट मंदिर बनाने में जुट गये। लेकिन जैसे ही ये ख़बर जंगल में आग की तरह फैली, सरकारी अमला भी गांव में पहुंच गया। लेकिन गांव वाले जिद पर अड़े थे, कि मंदिर तो ज़रूर बनाएंगे, आखिर भगवान खुद उनके द्वार पर जो आये हैं। लेकिन उस भेरुलाल को ये कौन समझाए, कि जिस सपने की बात वो कर रहा है, वो है तो ठेठ देसी, लेकिन उसके तार चाईना से जुड़े हैं। अब इन नासमझो को कौन समझाए, कि भईया ये एक छोटा सा प्लास्टिक का घो़ड़ा है, जो बच्चों के खेलने के काम आता है। और तो और उस घोड़े के पेट पर लिखा भी है मेड इन चाईना..

लेकिन आस्था के अंधविश्वास में डूबे इन गांव वालों को कौन बताए, कि भईया, ये किसी ड्रामेबाज़ का ड्रामा है... भ्रमजाल से बाहर निकलो.. हो सकता है किसी ने शरारतन गांव में प्लास्टिक का ये खिलौना डाल दिया हो। भगवान के बंदों कुछ तो दिमाग लगाओ... लेकिन शायद उन लोगों की अक्ल तो कहीं चरने चली गई थी। पुलिस-प्रशासन ने लोगों से लाख मिन्नतें की भगवान के नाम पर भगवान का मज़ाक मत बनाओ... कम से कम भगवान से तो डरो... लेकिन कोई सुनने के तैयार कहां... घोड़ा भी सोच रहा होगा, कि मेरे चक्कर में तो ये गांव वाले गधे बन चुके हैं।

गांव में चीन से आये घोड़ेनुमा भगवान की यात्रा निकाली गई, उसके पदचिन्हों की पूजा कर आरती की गई... लेकिन भगवान के ये बंदे कैसे समझें... कोई इसे बाबा रामदेव का चमत्कार बता रहा था.. तो कोई इसे भगवान का करिश्मा... आस्था में बहके लोगों के कदम ऐसे बहके, कि वो सरकारी अमले से भी दो-दो हाथ करने को तैयार हो गये। बाबा के कथित आदेश के बाद भेरूलाल तो जुट गया, सपने को पूरा करने में... गांव में ढोल-मंजीरों पर लोग नाचने लगे, भेरूलाल का सपना सच हो रहा था, ऐसा लगा जैसे धीरूभाई अंबानी किसी से कह रहे हों, दुनिया कर लो मुट्ठी में।

गांव में भेरूलाल.. अंबानी के नक्शेकदम पर चल रहा था... उसका सपना सच हो रहा था... गांव वाले अड़ गये कि अगर सरकारी ज़मीन पर मंदिर नहीं बना, तो हम अलग से ज़मीन लेकर मंदिर बनाएंगे। 33 करोड़ देवी-देवताओं के इस संसार में अब इन देवता को क्या नाम दिया जाए, समझना ज़रा मुश्किल है... करीब पांच साल पहले मध्य प्रदेश के बैतूल से भी एक ख़बर आई थी। जिसमें कुंजीलाल नाम के शख्स ने खुद की मौत का वक्त मुकर्र किया था, लेकिन तय वक्त पर जब उसकी मौत नहीं आई, तो उसनेये ख़बर फैला दी थी, कि मेरी बीवी ने मेरे लिए व्रत रखा था, जिससे खुश होकर भगवान ने मुझे जीनवनदान दे दिया। और इस चक्कर में मीडिया की काफ़ी फ़ज़ीहत हुई थी। खुदा से दुआ है, कि लोगों से चाहें धन-दौलत छीन ले, शक्ल-सूरत ले ले, लेकिन उन्हें अक्ल ज़रूर दे दे। कम से कम इसी से देश का कुछ तो भला होगा।
अबयज़ ख़ान

हर अहद में हर चीज़ बदलती रही लेकिन

एक दर्द-ए-मोहब्बत है जो पहले की तरह है।


प्यार का कोई इतिहास तो नहीं है, लेकिन इसका दर्द हमेशा एक जैसा ही है। अगर माना जाए, तो प्यार की शुरुआत दुनिया में आदम और हव्वा के ज़माने से हुई थी। लेकिन प्यार की मिसाल में किसी का नाम आता है, तो विदेश में रोमियो और जूलियट, तो हिंदुस्तान में लैला-मजनू और शीरी-फ़रहाद को प्यार की बेमिसाल मूरत माना जाता है। अपने प्यार के लिए इन्होंने दुनिया की तमाम बंदिशों को हंसते-हंसते पार कर लिया। अपने महबूब के लिए ज़माने के तानों से लेकर गोलियां तक खाईं, लेकिन प्यार का एहसास और दर्द कभी कम नहीं हुआ। तमाम मौसम बदले, रुत बदलीं, वक्त बदला, लोग बदले, लेकिन वो मीठा सा प्यार कभी नहीं बदला।

जब कोई आपसे प्यार का एहसास करता है, तो दिल में एक अजीब से हलचल होती है। कभी-कभी सपनों में किसी की छुअन महसूस सी होती है। कभी-कभी लगता है कि दुनिया में इसके सिवा कुछ भी नहीं है, दुनिया में सबसे हसीन अगर कुछ है, तो सिर्फ़ आपका महबूब और आपका प्यार है। फिर ज़माने की परवाह किसे होती है। आपका प्यार आपसे जितना दूर जाता है, उससे अपनेपन का एहसास और भी बढ़ जाता है। बदलते मौसम के साथ पल-पल प्यार के रंग भी बदलते हैं.. दुनिया और सपनीली हो जाती है... मन में कुछ-कुछ होता है, कई बार लगता है कि ये ज़मीन और आसमान एक क्यों नहीं हो जाते, कई बार दिल चाहता है कि सारा जहान झुककर आपके कदमों में आ गिरे।


बसंत के हसीन मौसम में प्यार को पंख लग जाते हैं। अपने महबूब के साथ सपनों की दुनिया बसाई जाती है... लेकिन वक्त बदला तो प्यार का अंदाज भी बदल गया। बाग-बगीचों और प्रेम पत्रों से निकलकर प्यार रेसत्रां और पार्क में पहुंच गया। लव-लेटर की जगह ई-मेल और एसएमएस ने ले ली... मोबाइल पर बतियाने का जो दौर शुरु होता है, वो घंटो तक चलता है....लंबी बातचीत के बाद भी लगता है, कि अभी तो बात ही क्या हुई है। ऐसे में मोबाइल कंपनियां भी धड़ल्ले से फायदा उठा रही हैं। प्यार के इस एहसास को हर कोई कैश कराने में लगा है। जेब हल्की हो रही है... गर्लफ्रेंड को रिझाने के लिए बाज़ार भी नये-नये नुस्खे ला रहा है।

प्यार का एहसास कराने के लिए वेलेंटाइन डे नाम का एक त्योहार ही चल निकला है। प्यार मॉर्डन हो गया है, लेकिन प्यार करने वाले अब भी ज़माने से नहीं डरते, प्यार पर पहरा लगाने वाले हर दौर में थे और आज भी हैं। आदिम युग में प्यार करने वालों को पत्थर मार-मार कर कुचल दिया जाता था, सलीम और अनारकली को भला कौन भूल सकता है। एक कनीज को अपना प्यार अमर करने के लिए दीवार में चुन जाना कबूल था।... वक्त बदला, सदियां बदली, लेकिन न तो प्यार के दुश्मन बदले, न प्यार का अंदाज़ बदला और न ही प्यार के एहसास में कोई कमी आई। लेकिन अब प्यार पर पहरा लगाने वाले ज़ालिम ही नहीं जल्लाद भी हो गये।

चाहें पश्चिमी उत्तर प्रदेश हो, या हरियाणा, प्यार की ख़ता सिर्फ़ मौत होती है। वहशियाना मौत, ऐसी मौत जिसमें मां-बाप और भाई-बहन ही अपने जिगर के टुकड़ों का क़त्ले-आम कर देते हैं। बात-बात में पश्चिम की नकल कर मॉडर्न होने का दम भरने वाले हम लोग इस मामले में मॉर्डन बनने की कोशिश कतई नहीं करते। मां-बाप अपने बच्चों को तमाम तरह की छूट खुलेआम देते हैं, समाज के ठेकेदार फ्लेक्सीबिलिटी की बात करते हैं, लेकिन जब कोई ज़माने के सामने अपने प्यार का इज़हार करता है, तो यही ज़माना दीवार बनकर खड़ा हो जाता है।

फिर मज़हब और जात-बिरादरी का रोना रोया जाता है। हिंदू और मुसलमान पर बहस होती है, मांगलिक और गैर मांगलिक पर बहस होती है। हरियाणा की खाप पंचायत के फैसलों को कौन भूला होगा, प्यार कर अपनी नई दुनिया बसाने वाले एक युवक को सिर्फ़ इसलिये मार डाला गया, कि उसने एक ही गोत्र में शादी की थी, लेकिन हुआ क्या? खूब हो-हल्ला मचा, लेकिन वोट के ठेकेदारों के मुंह से उफ़्फ़ तक नहीं निकली... लेकिन सलाम है...प्यार के परिंदों को जिन्होंने हर अहद में अपने प्यार को अमर रखा, और ज़माने की हर दीवार को गिरा दिया।
अबयज़ ख़ान
पागलखाने के डॉक्टर ने नये आने वाले मरीज़ का चेकअप किया, मरीज़ डॉक्टर को काफ़ी सेहतमंद लगा तो डॉक्टर ने पूछा तुम तो काफ़ी तंदरुस्त लग रहे हो। पागलखाने कैसे आ गये? मरीज़ ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, डॉक्टर साहब मैं पागल नहीं हूं...मैं बिल्कुल ठीक हूं। दरअसल कुछ अरसा पहले मैंने एक बेवा से शादी की थी। उस औरत की एक जवान बेटी थी, वो अपनी मां यानि मेरी बीवी के साथ मेरे ही घर में रहती थी। इत्तेफ़ाक से मेरे बाप को वो लड़की पसंद आ गई। उस लड़की से मेरे बाप ने शादी कर ली। इस तरह मेरी बीवी मेरे बाप की सास बन गई। कुछ महीने बाद मेरे बाप के घर एक लड़की पैदा हुई, वो रिश्ते में मेरी बहन हुई क्योंकि मैं उसके बाप का बेटा था। दूसरी तरफ़ वो मेरी नवासी भी थी, क्योंकि मैं उसकी नानी का शौहर था।

इस तरह मैं अपनी बहन का नाना बन गया। कुछ महीनों बाद मेरे घर मेरी बीवी को लड़का पैदा हुआ। एक तरफ़ मेरी सौतेली मां मेरे बेटे की बहन लगती थी, दूसरी तरफ़ मेरी सौतेली मां मेरे बेटे की दादी भी लगती थी। इसलिए मेरा बेटा अपनी दादी का भाई बन गया। डॉक्टर साहब ज़रा सोचो मेरा बाप मेरा दामाद है और मैं अपने बाप का ससुर। मेरी सौतेली मां मेरे बेटे की बहन है। इस तरह मेरा बेटा मेरा मामू बन गया और मैं अपने बेटे का भांजा। डॉक्टर ने दोनों हाथों से अपना सर पकड़ा और चिल्लाकर कहा मेहरबानी करके मुझे बख्श दे, वरना मैं पागल हो जाऊंगा...

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अबयज़ ख़ान

दरवाज़े पर टकटकी लगाए आंखे एक अदद चिट्ठी का इंतज़ार करती हैं... मन करता है कि साइकिल की घंटी सुनाई पड़े और दौड़कर दरवाज़े पर चले आयें, शायद कोई चिट्ठी आई हो, शायद कोई संदेशा आया हो, शायद कोई अपना हो, जिसने हाले-दिल लिखकर भेजा हो... लेकिन न तो साईकिल की घंटी सुनाई पड़ती है, और न ही डाकिया बाबू नज़र आते हैं... अब कोई आता है, तो मोबाइल पर फोन की घंटी, एसएमएस और ई-मेल... टेक्नोलॉजी की दुनिया ने उन सुनहरे दिनों को कहीं पीछे छोड़ दिया है, जब हफ्तों इंतज़ार के बाद एक ख़त आता था... दूर देश से आई इस चिट्टी में इतना कुछ होता था, कि पढ़ते-पढ़ते कभी आंख नम हो जाती थी, तो कभी सारे जहान की खुशियां एक चिट्ठी में सिमट आती थीं...

चिट्ठी अपने साथ खुशियां लाती थी, किसी को मुन्ने का हाल सुनाती थी, तो किसी को नौकरी का संदेशा देती थी, बूढ़े मां-बाप को बेटे के मनीऑर्डर का इंतेज़ार होता था, जिसमें पापा के आशीष के साथ चंद रुपये भी होते थे... चिट्ठी में दादा-दादी का हाल मिलता था, बॉर्डर पर बैठे लाडले की चिट्टी मिलने के बाद मां की आंखो से ज़ार-ज़ार आंसू बहते थे... किसी की शादी का दावतनामा होता था, तो कोई अपने प्यार को हाले-दिल लिखता था... नये साल पर ढेर सारे ग्रीटिंग कार्ड पहले से ही भेज दिये जाते थे... गर्मियों की छुट्टियों से पहले ही फटाफट नानी को संदेशा भेजते थे, इस बार गर्मियों की छुट्टियों में आ रहे हैं... उस छोटी सी चिट्ठी में नानी के लिए ढेर सारी फरमाइशें होती थीं...

गली में गुज़रते डाकिया बाबू के हाथ में अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड का बंडल देखकर मन हिलोरें मारने लगता था... पंद्रह पैसे का एक पोस्टकार्ड पंद्रह दिन का हाल सुना जाता था... कई बार तो बैरंग ही लेटर आते थे, जब डाकिया बाबू को उसके लिए दो से पांच रुपये तक भी देना पड़ते थे, लेकिन चिट्ठी के उतावलेपन में पैसे खर्च करने का भी कोई गम नहीं। कई बार तो लोग शरारत में भी बैरंग चिट्ठी भेज दिया करते थे... लेकिन एक अदद कागज़ के पुरज़े के लिए ये शरारत भी बड़ी मस्त लगती थी... चिट्ठी का इंतज़ार इतना होता था, कि कई बार तो लिफ़ाफे को देखकर ही उसका मज़मून समझ में आ जाता था... उस वक्त दूरियां बहुत थीं, लेकिन पंद्रह-बीस दिन में आने वाली उस चिट्ठी को पढ़कर ऐसा लगता था, जैसे सबकुछ इस छोटे से कागज के पुरजे में सिमट आया हो...

घर में या आस-पास कहीं कोई लेटर आता था, तो सबसे पहले हम उस पर से डाक टिकट छुटाने में जुट जाते थे, अजब शौक था डाक टिकट इकट्ठे करने का... कई बार तो शरारतन हम उन्हीं टिकट को लिफ़ाफे पर लगाकर फिर से पोस्ट कर देते थे.... मौहल्ले में हमारे कई लोग ऐसे भी थे, जिन्हें ख़त लिखना या पढ़ना नहीं आता था, ऐसे लोगों के लिए समाजसेवा करने में हम हमेशा आगे रहते थे, किसी की चिट्ठी लिखने और पढ़ने में जो लुत्फ़ आता था, उसका अपना अलग ही मज़ा होता था... रात को घंटो बैठकर चिट्ठियां लिखने की कोशिश करते थे, कई बार पसंद नहीं आती थी, तो फाड़कर फिर से लिखते थे... रोज़ सुबह उठते ही एक अदद ख़त का इंतज़ार होता था...

उसी दौर में पंकज उदास की एक ग़ज़ल चिट्ठी आई है...आई है... वतन से चिट्ठी आई है.. ने खूब धूम मचा रखी थी, जितनी बार उसे सुनते थे, आंख नम हो जाती थीं, लगता था हमारी भी कोई चिट्ठी आयेगी, जिसमें ऐसा ही दर्द भरा हाल होगा.. मुनिया की शरारत होगी, पापा का ढेर सारा प्यार होगा... दादा-दादी और नाना-नानी की दुआएं होंगी... लेकिन जब चिट्ठी नहीं आती थी, तो बैचेनी बढ़ जाती थी, साईकिल की घंटी की आवाज़ सुनाई दी, तो सब काम छोड़कर गली में दौड़ लगाते थे, शायद कोई चिट्ठी आई है... डाकिया बाबू की पैंट पकड़कर बार-बार पूछते थे, अंकल हमारी चिट्टी कब आयेगी? लेकिन तब बड़ी मायूसी हाथ लगती थी, जब न कोई चिट्ठी और न कोई संदेश आता था...

लेकिन अब हर तरफ़ सूनापन है... सरकारी कामकाज न हो, तो शायद डाकखाने तो अब तक बंद हो गये होते... मोबाइल क्रांति और नेट ने रिश्तों के तार बेशक जोड़े हों, लेकिन अब संवेदनाएं कहीं मर सी गई हैं... रिश्तों के खालीपन को बातों से भरने की कोशिश ज़रूर करते हैं... लेकिन हाले-दिल बयां करने का जो काम एक चिट्ठी कर सकती है, वो नेट और फोन के बस की बात नहीं... जाने कहां गये वो पिन कोड, अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड... जाने कब लौटेगा डाकिया बाबू का वो सुनहरा दौर.. जब घर पर कोई चिट्ठी आयेगी...
अबयज़ ख़ान
महीने की पहली तारीख़ गुज़र गई, लेकिन एकाउंट में पैसा अभी तक नहीं पहुंचा था। एक-एक दिन पहाड़ जैसा लग रहा था। जेब पूरी तरह खाली थी, पेट भरने से ज्यादा किस्तें अदा करने की फिक्र थी। खाना खाये बगैर भूखे रह लेंगे, लेकिन चैक बाउंस होने के बाद जो हालत होगी, उसके बारे में सोचकर ही रूह कांप जाती है। अब पहले जैसा तो ज़माना रहा नहीं, जो सारे प्लान रिटायरमेंट के बाद करना पड़े, जिंदगी बहुत फास्ट हो चुकी है। ज़माना बदल चुका है। आज के नौजवान रिटायर होने का इंतेज़ार नहीं करते। ज़िदगी में सब कुछ जी लेने की चाहत में दिन-रात हाड़ तोड़ मेहनत हो रही है। सुबह से शाम तक धूप में पसीना बहाने के बाद भी लगता है बहुत कुछ बाकी रह गया है।

जब छोटे थे, तो हमारे अंकल ने रिटायरमेंट के बाद मिले फंड से पहले बेटी की शादी की, उसके बाद बचे पैसे से अपने लिए एक छोटा सा मकान खरीदा। बाकी की सारी ज़िंदगी पेंशन पर गुज़ार दी। पहले के लोग मकान का सपना रिटायरमेंट के बाद ही देखते थे। लेकिन आज ज़माना रफ्तार का है। रिटायरमेंट का इंतेज़ार नहीं होता। आजकल के लड़के नौकरी के साथ ही छोकरी की तलाश भी शुरु कर देते हैं। इंतेज़ार तो बिल्कुल भी नहीं, अब शादी की ज़िम्मेदारी मां-बाप के कंधों से लेकर खुद ही निभाने लगे हैं। इधर नौकरी मिली, उधर सात फेरे लेने की तैयारी, शादी के बाद मकान का सपना, और इस सपने को देखने में बिल्कुल भी लेट-लतीफ़ी नहीं। क्योंकि अब सपने देखे नहीं जाते, बल्कि बनाये जाते हैं। अब मकान के लिए पैसा जमा करने की दिक्कत नहीं, पैसा बांटने वाले तो शहर के हर कोने पर खड़े हैं। रात-दिन कभी भी, किसी भी वक्त आपको फोन करके पैसा बांटने की फिराक में रहते हैं

कर्ज़ के पैसे से सपनों का मकान खड़ा होता है, तो अगला क़दम होता है गाड़ी खरीदने का। इधर बात मुंह से निकली उधर घर के गैराज में चमकती हुई गाड़ी, आपके बुज़ुर्गों को मुंह चिढ़ाती है, ये देखो, तुम जो काम ज़िंदगी भर नहीं कर पाये, वो तुम्हारे लड़के ने कितनी तेज़ी से कर डाला। गाड़ी के बाद घर की दूसरी चीज़ों को खरीदना तो और भी आसान है। ज़ीरो परसेंट के चक्कर में लोग ऐसे फंसते हैं, कि फिर तो ज़िंदगी किस्तों में गुज़रती है। बचपन में हमारे अब्बू महीने की पहली तारीख को दूध वाले, मकान मालिक और पड़ोस के लाला का हिसाब-किताब करते थे। लेकिन अब तो महीने की पहली तारीख को आधी से ज्यादा कमाई मकान की किस्त, गाड़ी की किस्त, लैपटॉप, फ्रिज, वॉशिंग मशीन और दूसरी चीज़ों में ही चली जाती है।

ऊपर से अगर वक्त पर किस्त जमा नहीं हुई तो सूद के पैसे अलग। और अगर लोन की एक भी किस्त टूटी तो बाउंसरों के मुक्कों से निपटने को तैयार रहो। सोने पर सुहागा ये कि अगर आपके घर में छोटे से साहबज़ादे हैं तो उनके स्कूल की नर्सरी की फीस इतनी होती है, जितने में आप स्कूल से कॉलेज तक ऐशो-आराम करके निपट गये थे। ऊपर से अख़बार, केबल, टेलीफ़ोन, गैस, बिजली-पानी के बिल सो अलग। किस्तें जमा करते-करते ज़िंदगी कमान बन जाती है। जिस ऐश के लिए ये सब कुछ किया था, वो तो कोसों तक नज़र नहीं आता। किस्तों में जमा हुए इस ऐशो-आराम पर कई बार आपको रश्क तो बहुत होता होगा, लेकिन आपके बाद बच्चे आपको सिर्फ़ इसलिए याद करेंगे, कि हमारे पापा ने विरासत में किस्तों का महल छोड़ा है।
अबयज़ ख़ान
मंदी, महंगाई और मेहमान... तंगी के इस दौर में जेब खाली है, आम तो आम गुठलियों के दाम भी नहीं मिल रहे हैं। बाज़ार में फलों का राजा पूरी धौंस के साथ बिक रहा है। 10 से 15 रुपये किलो वाला आम 50 से 60 रुपये किलो बिक रहा है। सब्जियों का राजा आलू तो और भी कमाल कर रहा है। दाम आसमान पर हैं, आलू दम ने लोगों का दम निकाल रखा है। तो प्याज ने आंसू निकाल रखे हैं। दाल ने कमर तोड़ दी, सो अलग। बैंगन के भाव ज़रा मार्केट में कम होते हैं, वर्ना शायद बैंगन भी आसमान पर होता। अब सब्जी महंगी, दाल महंगी और खाने के बाद मुंह मीठा करने वाले आम का जायका भी कड़वा हो गया है। घर में थाली का साइज सिकुड़ रहा था, तो किचन में भी सन्नाटा पसरा था।

फ्रिज भी खाली हो चुका था। अब तो उसमें पानी भी नहीं भर सकते, क्योंकि अनमोल पानी का भी मोल हो चुका था। क्या खाएं और क्या न खाएं, यही सोचकर दिमाग भन्ना गया था। हम तो मियां भाई हैं, सो मुर्गे की लात भी खा सकते हैं, लेकिन सावन में अपने दूसरे भाई लोग क्या करें। मर्गे की खाल उधेड़ना है, तो सावन निकलने का इंतज़ार तो करना ही होगा। बाज़ार में मंदी ने जान निकाल ली है। नौकरियों पर तलवार लटक रही है, सैलरी का पता नहीं है। ऊपर से कंगाली में उस वक्त आंटा गीला हो गया, जब घर पर बिन बुलाए मेहमान धमक पड़े। पहले दिन तो मेहमान का बड़ी गर्मजोशी से इस्तकबाल किया, एक-दो दिन उनकी खूब खातिरदारी भी की, लेकिन मेहमान ने तो घर में डेरा डाल लिया था।

उंगली पकड़कर जनाब पहुंचे तक पहुंच गये। मेहमान भगवान की जगह आफ़त बन गये। दस दिन तक भी जब उन्होंने जाने का नाम नहीं लिया, तो हम ही उनको भगाने की तरकीबें ढूंढने लगे। घर से बाहर दिल्ली शहर में हम दोनों भाई परेशान कि आखिर इस मेहमान से कैसे पिंड छुड़ाया जाए। बातों-बातों में मेहमान को कई बार समझाया, कि भईया तुम कब दफ़ा होगे, कब छोड़ेगे हमारी जान? लेकिन मेहमान भी पूरे ढीढ थे। जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। एक दिन हम दोनों भाईयों ने प्लान बनाकर उनसे झूठ बोला कि भईया हमें घर जाना है, तो अब आप भी अपना रास्ता नापो। लेकिन जनाब आसानी से पीछा छोड़ने के मूड में नहीं थे। बोले कोई बात नहीं, आप चले जाइये, मैं यहां अकेला ही रुक जाऊंगा।

आप आराम से अपने घर जाइये, अब हमारा दांव हम ही पर उल्टा पड़ गया। हम लोगों को समझ ही नहीं आया कि अब क्या करें। ये जनाब तो चिकने घड़े बन चुके हैं। पूरे दिन घर में उन्हें सोने और खाने के अलावा कोई काम भी नहीं था। फिर हमने एक और प्लान बनाया, हम दोनों भाईयों ने उन्हें अपने दफ्तर से फोन कर झूठ बोला कि भईया हम लोग शूट पर जा रहे हैं, तो जब आप जाएं, तो घर में ताला लगाकर चाभी पड़ोसी को दे जाएं। उन्होंने कहा ठीक है। इसके बाद हमने राहत की सांस ली, कि चलो पिंड छूटा। दोपहर को जब दफ्तर से काम निपटाकर लौटने लगे, तो सोचा कि चलो एक बार फोन कर पता करें, कि भाई साहब दफ़ा हुए या नहीं, लेकिन ये क्या, जनाब ने फोन उठाया, तो बोले अभी तो नहीं गया हूं, शायद शाम तक जाऊंगा। हमारी तो समझ नहीं आ रहा था, कि अब करें, तो क्या करें। अब घर भी कैसे जाएं, उनसे झूठ तो पहले ही बोल चुके थे, कि हम शूट पर निकल गये हैं। घर जाते हैं तो फंस जाएंगे।

मजबूरन घर जाने के बजाए हमने दिल्ली की सड़कें नापने का फैसला किया, ताकि वो छह बजे तक हमारा घर छोड़ें, और हम अपने घर पहुंचे। छह बजे तक बड़ी मुश्किल से इंतज़ार किया, लेकिन वो तो अब भी पत्थर की तरह जमे थे। हमने उनसे लाख गुजारिश की, कि भईया रात हो जाएगी, आपको तो फिर जाने में दिक्कत होगी, इसलिए दिन छिपे से पहले ही निकल जाओ, लेकिन जनाब टस से मस होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर दिल्ली नाप-नापकर हमारी टांगे टूट रहीं थीं, उधर वो हमारे घर में रखे हुए खाने के सामान पर हाथ साफ़ कर रहे थे। खैर जैसे-तैसे करके रात के ग्यारह बजे उनका फोन आया कि शायद मैं अगले आधे घंटे में निकल जाऊं। हमने थोड़ी राहत की सांस ली, आधा घंटा पहाड़ की तरह लग रहा था। खैर क़तरा-क़तरा करके घड़ी ने साढ़े ग्यारह बजाए। एक और फोन आया, जनाब मैं निकल चुका हूं, मेहमाननवाज़ी के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। हम-दोनों भाईयों को समझ नहीं आ रहा था कि हंसे या रोयें, क्योंकि दिल्ली नापते-नापते पैर दर्द कर चुके थे। भूख से बुरा हाल हो चुका था, ऑटो कर घर पहुंचे, तो फिर दरवाजा खोलकर सीधे बिस्तर पर गिर गये। और फिर बेफिक्री की जो नींद आई, वो अगले दिन सुबह ही टूटी। लेकिन तौबा कर ली बिन-बुलाए मेहमानों से।