अबयज़ ख़ान
इस प्यार को कोई नाम न दो.. इस एहसास को कोई नाम न दो.. इस जज़्बात को कोई नाम न दो... मगर ये कैसे मुमकिन है... जब एक ज़िंदगी दूसरी ज़िंदगी से मुकम्मल तरीके से जुड़ी हो... आंखो में लाखों सपने हों... दिल में हज़ारों अरमान हों... हज़ार ख्वाहिशें हों... फिर कैसे कोई नाम न दें... एक ही सफ़र के दो मुसाफिर थे... कुछ दूर चलकर बेशक रास्ते बदल गये हों... लेकिन मंज़िल तो एक ही थी... मकसद भी एक ही था... सुबह के सूरज की पहली किरन की तरह उसका एहसास था... शाम की लाली की तरह उसके उसके रंग थे... बदलते मौसम की तरह उसकी छुअन थी... हर एहसास अपने आप में अनूठा था.. हर जज़्बात के पीछे एक पूरी ज़िंदगी थी...

उसकी महक से सारा जहान महक उठता था.. उसके आने से ही हवाएं भी मदमस्त होकर चलती थीं... उसके आने की जब ख़बर महकी, उसकी खुशबू से मेरा घर महका... उसकी खुशबू से मेरा मन महका... ज़िंदगी फूल की पत्तियों की तरह और नाज़ुक हो गई... दिन पहले से और बड़े लगने लगे... इंतज़ार और भी बेहतरीन लगने लगा... वक्त की शायद इफ़रात हो चुकी थी... तमाम उम्र भी कम लगने लगी... सात जन्म भी कम लगने लगे... उसके आने की ख़बर से ही दिल बेकरार होने लगता... उसके जाने की ख़बर से बेचैनियां बढ़ जातीं... मुझे सरे-राह कोई मिला था... और मेरी ज़िंदगी में दाखिल हो चुका था... अगले जन्म में भी उसके साथ के लिए दुआएं होने लगीं...

ज़िंदगी फिर से बदल चुकी थी... सांसो की रफ्तार वक्त के साथ बदलने लगी... अब पहले से ज्यादा रवानगी आ चुकी थी... आंखो से उदासी गायब हो चुकी थी... ज़िदगी और भी हसीन हो चुकी थी... मौहब्बत ने अदावत को शिकस्त दे दी थी... हसरतें हिलोरें मारने लगीं... मन करता था, कि दुनिया की निगाहों से बचने के लिए समंदर को पार कर जाएं... और ये समंदर इतना बड़ा हो जाए, कि हमारी ज़िदगी के साथ-साथ चलता रहे... कभी ख़त्म न हो और अपने आगोश में समा ले... दुनिया के रंग अब और भी खूबसूरत लगने लगे थे.... तमाम कायनात से मौहब्बत होने लगी... उजड़े दयार में उसके कदम ऐसे पड़े, कि सबकुछ जन्नत नज़र आने लगा...

फूल इतने खूबसूरत लगने लगे, कि उसमें से ग़ज़ल निकलने लगी... उर्दू से बेपनाह मौहब्बत हो गई... उसकी छोटी-छोटी खुशियां जान से भी ज्यादा प्यारी लगने लगीं... मन करता कि काश अपनी एक अलग दुनिया हो, जहां कोई रोक-टोक न हो... जहां सबकुछ अपनी मर्ज़ी से हो... जहां किसी की दख़लअंदाज़ी न हो... जहां उसके साथ सिर्फ़ मैं हूं... और इसके सिवा कुछ भी नहीं... कुछ भी नहीं... सिर्फ़ हो तो बस इश्क की कैफियत... मौहब्बत का एक खुशनुमा एहसास.... हमारे दरम्यान न उदासी हो... न तन्हाई हो... अगर हो तो सिर्फ़ एक खुशनुमा एहसास... रंग भरा एहसास...एक हल्की सी छुअन...

लेकिन शायद ये सबकुछ इतना आसान नहीं था... मकतबे इश्क में हमने एक ढंग ही निराला देखा... उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ.... अब हर तरफ़ सन्नाटा है... ऐसा लगता है, जैसे वक्त से पहले पतझड़ आ चुका हो... पेड़ों से पत्ते सब झड़ चुके हैं.. मौसम करवट बदल चुका है... लेकिन अफ़सोस ये कि बसंत भी तो नहीं आया... अब न फूलों से ग़ज़ल निकलती है... न उर्दू से मौहब्बत है... न सांसों में पहले की तरह रवानगी है... अब समंदर से भी डर लगता है... अब उनींदी आंखो में सपने भी नहीं आते... अब न रुमानियत है.... न जाने क्यों एसा लगता है जैसे कोई सफ़र में साथ था मेरे... फिर भी संभल-संभल के चलना पड़ा मुझे... अब इंतज़ार है बस फिर से मौसम बदलने का.... और मुझे यकीन है... पतझड़ के बाद फिर से बहार आएगी... और मौसम फिर से पहले से भी ज्यादा हसीन हो जाएगा...
अबयज़ ख़ान
मैं क्या लिखूं... मेरे हाथ आज जवाब दे रहे हैं... दिल बैठा जा रहा है... समझ नहीं आता.. आखिर ऐसा क्यों होता है... जो आपको सबसे प्यारा होता है, ऊपर वाला भी उसी को सबसे ज्यादा प्यार क्यों करता है... आज सुबह जब अमिताभ का फोन आया... तो मेरा जिस्म बेजान हो गया... देर रात सोने के बाद सुबह मैं बेफिक्री की नींद में था.. अचानक फोन बज उठा.. सुबह के पौने आठ बजे थे.. देखा तो अमिताभ का फोन था.. उसकी आवाज़ में भर्राहट थी.. अरे आपने कुछ सुना... क्यों क्या हुआ... अरे सुना है अशोक सर को हार्ट अटैक पड़ा है.. ही इज़ नो मोर.. क्या बात कर रहे हो दिमाग ख़राब है तुम्हारा... नहीं मैं सही कह रहा हूं... अभी शोभना का फोन आया है.. उसने बताया कल्याण सर उन्हें मेट्रो अस्पताल ले गये हैं...

आनन-फानन में मैंने बाइक उठाई और दौड़कर नोएडा में मेट्रो अस्पताल पहुंच गया.. गाड़ी बेताहाशा भाग रही थी... लेकिन अमिताभ की बात पर यकीन नहीं हो रहा था... अस्पताल पहुंचकर अपनी आंखो से उन्हें देख लिया... लेकिन यकीन नहीं हुआ... अरे खुदा ये कैसे हो सकता है... अस्पताल के बेड पर पड़े अशोक जी लग रहा था.. जैसे अबयज़ को देखकर मुस्कुरा पड़ेंगे.. और सीधे बोलेंगे चल यार चाय पीने चलते हैं... लेकिन अशोक सर तो शायद कभी न उठने के लिए ही सोये थे.. मैं इंतज़ार कर रहा था... कि अशोक सर एकदम मुस्कुराते हुए उठेंगे और पूछेंगे तुमने नई नौकरी की पार्टी अभी तक नहीं दी... लेकिन अशोक सर ने तो शायद कसम खाई थी.. कुछ न पूछने के लिए... मैंने तो सोच लिया था.. कि अब उन्हें सिगरेट पीने के लिए भी नहीं रोकूंगा.. लेकिन उन्होंने तो आज सिगरेट पीने के लिए भी नहीं कहा... अचानक उनका बेटा कहता है... पापा उठ जाओ न प्लीज़... चाहे गिफ्ट मत दिलाना... सुनकर मेरी आंखे भर आईं... लेकिन अशोक सर तो अपने बेटे के लिए भी नहीं उठे...
क्रिसमस का दिन बेटा घर पर पापा के आने का इंतज़ार कर रहा था.. और पापा अपने बेटे को बाज़ार लेकर जाने का वादा करके आए थे... लेकिन कौन जानता था... कि ये सुबह तो कभी लौटकर नहीं आएगी... उस 11 साल के मासूम को क्या पता था.. कि उसके पापा इस बार उसका वादा तोड़ देंगे... लेकिन अशोक सर ने मेरा भी एक वादा तोड़ा है... मुझसे उन्होने कहा था.. कि अबयज़ तुम नई जगह जा रहे हो.. हमें भूल मत जाना... मैंने कहा था.. कि सर आपको भला मैं कैसे भूल सकता हूं... मैं अपनी बात पर आज भी कायम हूं... लेकिन अशोक सर तो मुझे अकेला छोड़कर चले गये... मुझे याद है जब वीओआई के शुरुआती दिन थे.. अशोक सर ने ईटीवी हैदराबाद से यहां ज्वाइन किया था... सबसे पहली मुलाकात उनकी मुझसे ही हुई थी... और वो पहली बार में ही मुझे बड़े भाई का प्यार देने लगे थे... ईटीवी के स्टार एंकर रहे उस शख्स की डिक्शनरी में गुरुर नाम के अल्फाज़ की कोई जगह नहीं थी... चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट... किसी रोते हुए को भी हंसा देती थी...

चंद दिनों में भी वो मेरे साथ इतना घुल गये थे.. कि उनके बगैर मुझे भी अकेलापन महसूस होने लगता था... हम लोग आपस में तमाम बातें शेयर करने लगे... रुतबे और उम्र में वो मुझसे बड़े ज़रूर थे.. लेकिन उनका रवैया मेरे साथ एक दोस्त की तरह ही था... शुरुआत में वो हैदराबाद से अकेले ही दिल्ली आए थे... उनकी पर्सनालिटी क्या कमाल की थी... मैंने एक दिन ऐसे ही उनकी बीवी के बारे में पूछ लिया.. फिर तो उन्हेने अपनी पूरी किताब खोलकर रख दी... उनकी लव मैरिज हुई थी.. एक पंजाबी लड़की से शादी करने के लिए उन्होंने क्या-क्या पापड़ बेले... ये भी उन्होने मुझे बताया... लेकिन एक सालह भी दे डाली... बेटे कभी लव मैरिज मत करना... तुम अपने प्यार के लिए अपनी खुशी के लिए अपनी मर्ज़ी से शादी तो कर लेते हो.. लेकिन इससे तुम्हारे मां-बाप की क्या हालत होती है.. तुम अंदाज़ा नहीं कर सकते...

दफ्तर में हम लोग जब भी चाय पीने जाते.. साथ में ही जाते थे.. अशोक सर को सिगरेट पीना होती थी और मुझे चाय... लेकिन अशोक सर सिगरेट बहुत पीते थे... मैंने एक बार उन्हें टोका, कि सर आप इतनी सिगरेट मत पिया करो... तो उनका अपना ही मस्त जवाब था.. वो हर फिक्र को धुएं में उड़ाने में भरोसा करते थे... अरे रहने दे न यार.. कुछ नहीं होता... जिंदगी में ऐश से जीना चाहिए... वैसे भी ये सिगरेट अब मुझसे नहीं छूट सकती... सीमा ने भी कई बार कोशिश की... लेकिन वो भी मेरी सिगरेट छुड़ा नहीं पाई... मैंने जब उन्हें बार-बार टोकना शुरु किया.. तो फिर वो चुपके से अकेले ही सिगरेट पीने चले जाते थे.. अशोक सर की मेरे साथ इतनी यादें जुड़ी हैं.. कि मैं उन्हें एक किताब में भी नहीं समेट सकता... जितने दिन वो मेरे साथ रहे... मैने अपना हर फैसला उनसे पूछकर लिया... वो मेरे हर राज़ के साझीदार थे.. लेकिन मजाल है, कि आजतक उनके मुंह से कोई बात किसी के सामने निकली हो... वो मेरे सारे राज़ अपने साथ ही लेकर चले गये...

लेकिन आज अस्पताल के बाहर सैकड़ों लोगों की भीड़ इस बात का एहसास करा रही थी... कि एक इंसान हमारे बीच नहीं है... आज हमने एक शख्सियत नहीं कोई है.. बल्कि एक इंसान खोया है... वो इंसान जिसने अभी इस दुनिया में चालीस बसंत भी पार नहीं किये थे.. लेकिन इतने कम वक्त में उस शख्स के चाहने वाले इतने थे.. कि अस्पताल के बाहर खड़े होने की जगह भी नहीं थी... लोगों की आंखो से आंसू बह रहे थे... लेकिन मुझे तो अब भी यकीन नहीं था... शाम को शमशान घाट पर आखिरी विदाई का वक्त था... उनका मासूम बेटा अपने पिता की चिता को आग दे रहा था... वो मासूम शायद अभी भी यही समझ रहा था... कि पापा क्रिसमस पर बाज़ार नहीं ले गये तो क्या.. नए साल पर तो ज़रूर ले जाएंगे... लेकिन सच्चाई तो यही थी.. कि उसके पापा नए साल पर क्या अब कभी नहीं आएंगे.. अब वो उससे कोई भी ऐसा वादा नहीं करेंगे... जिसे वो निभा न सकें... लेकिन अबयज़ से कौन कहेगा... कि चल यार चाय पीने चलते हैं...
अबयज़ ख़ान
तुमने तमाम उम्र साथ रहने का वादा तो नहीं किया था.. लेकिन तुम मेरी ज़िंदगी में बहुत आहिस्ता से दाखिल हो गये थे.. मुझे एहसास भी नहीं हुआ. और तुमने मेरे दिल पर हुकुमत कर ली.. मैं तुम्हारी हर अदा और हर इशारे का गुलाम हो गया... हर आहट पर जान देने को तैयार.. हर आह पर मर-मिटने को तैयार... तुममें कुछ तो ऐसा था.. जिसने मुझे मदहोश किया था... कोई तो ऐसी बात थी.. जिसने मुझे दीवाना बना दिया था... सुबह से लेकर शाम तक... हर आहट पर लगता था, कि तुम हो... फिज़ा चलती थी.. तो लगता था, कि तुम हो... पानी में अठखेलियां करते बच्चे हों, या शरारत भरी तुम्हारी कोई मुस्कुराहट... मेरे चारों तरफ़ शायद तुम्हारा एक घेरा बन चुका था... मेरी ज़िंदगी का शायद तुम एक हिस्सा बन चुके थे..

हम एक जान दो जिस्म तो नहीं थे, लेकिन हम हर जज्बात के साथी थे.. हम हर दर्द के साथी थे.. हम हर दुख के साथी थे... हमने हर कदम साथ चलने का वादा तो नहीं किया था.. लेकिन हमने राह में कदम ज़रूर साथ बढ़ाए थे... उसी रास्ते पर जहां हमसे पहले तमाम लोग चलकर निकल गये... ये रास्ता मुश्किलों भरा ज़रूर था.. लेकिन इतना कठिन भी नहीं... हर सुबह की शुरुआत में क्यों लगता था.. जैसे कोई मेरी आंखों पर हाथ रखकर कहता हो... उठो सुबह हो चुकी है.. जागो.. सवेरा हो गया है.. देखो सूरज कितना चढ़ आया है...ऐसा लगता था, जैसे कोई कहता हो, कि देखो तुम अपना ख्याल नहीं रखते हो.. तुम सर्दी में ऐसे ही चले आते हो... तुम कभी अपने बारे में भी सोचा करो...

जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे तुमने मुझे शरारतन हल्की सी चपत लगाई हो और कहते हो, कि जाओ मुझे तुमसे बात नहीं करना.. तुमने कबसे मुझे फोन ही नहीं किया... तुम्हारे पास मुझसे साझा करने के लिए दो अल्फ़ाज़ भी नहीं हैं... आखिर ऐसा क्या हुआ था.. कि अचानक तुम मेरी ज़िंदगी में चुपचाप से दाखिल हो गये.. बिना कोई आहट किये... दिल के दरवाज़े पर कोई दस्तक भी न हुई... और तुम पहरेदार बन गये... मेरे एक-एक पल का हिसाब रखने लगे... मेरी हर घड़ी पर नज़र रखने लगे...दिल की धड़कनों ने भी अब तुम्हारे हिसाब से अपनी रफ्तार तय कर ली... मेरी रफ्तार भी अब तुम्हारी रफ्तार की साझा हो गई... हर कदम उसी रास्ते पर पड़ता, जहां तुम्हारी कदमबोसी हुई थी...
ऐसा क्यों लगता था, जैसे मेरा सबकुछ तुम्हारा हो चुका है... तुम्हारा सबकुछ मेरा हो चुका है... तुम्हारे लिए मेरा ईमान भी मुझसे बेईमानी करने लगा... क्यों मेरा मन कहता था, कि मेरी उम्र भी तुम्हे लग जाए... क्यों दुआओं में सिर्फ़ तुम्हारा ही नाम आता था... क्यों तुम्हारी पसंद मेरी पसंद बन चुकी थी... तुम्हारी किताबों में मुझे अपनी ही इबारत नज़र आती थी.. तुम्हारा होले से मेरे पास आकर मुझे चिढ़ा जाना या मुझसे चुटकी लेकर निकल जाना...क्या ये सब अनजाने में था.. क्यों मुझे लगता है कि तुम मेरा मुस्तकबिल थे.. तुम मेरा मुकद्दर थे... तुम मेरे लिए ज़िंदगी जीने की वजह थे.. तुम मेरे लिए जज्बा थे... तुम मेरा हौसला थे...

मेरी नस-नस ये कहती है, कि तुम्हारे आने के बाद जीने की एक वजह मिल गई थी... तुम्हारी आंख से निकले मोती, क्यों मेरी बेचेनी की वजह बन जाते थे... क्यों मेरा एक दिन गायब हो जाना, तुम्हें बेकरार कर देता था... क्यों एक-दूसरे को देखे बिना हमारा दिन गुज़रता नहीं था... लेकिन न जाने क्यों मुझे आज भी समझ नहीं आता... कि कैसे कोई अजनबी किसी का हो जाता है... फिर कैसे उसी से रूठ जाता है... लेकिन ये भी सच है कि तुम्हारी हया तुम्हारा गहना है... और शायद यही वो वजह थी... जिसने मुझे तुम्हारी सादगी पर फिदा कर दिया... न जाने क्यों मुझे आज भी लगता है, कि तुम आओगे.. फिर से.. ज़रूर आओगे... और होले से एक चपत लगाकर कहोगे, कि तुम्हारा दिमाग ख़राब है.. जो बात-बात पर रूठ जाते हो...चलो मुझे भी तुमसे बात नहीं करना...
अबयज़ ख़ान
उत्तर प्रदेश से तो सभी वाकिफ़ हैं.. उसी का एक हिस्सा है पश्चिमी उत्तर प्रदेश... धन-दौलत से मालामाल... गन्ना किसानों से भरपूर इस इलाके में पैसे की कोई कमी नहीं... रईसी इस इलाके की रग-रग में बसी है... उसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक ज़िला है बिजनौर... इस ज़िले का शुमार सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे ज़िलों में किया जाता है। सबसे ज्यादा सरकारी नौकरीपेशा इसी ज़िले से हैं... बिजनौर ज़िले में ही मौजूद है तहसील चांदपुर... बेहतरीन कस्बा.. शानदार कस्बा... नफ़ासत पसंदों का छोटा सा शहर.. तहज़ीब की चादर ओढ़े.. इस कस्बे में यूं तो हर शख्स खुशहाल है... लेकिन इसी कस्बे में एक मासूम भी है... अज़ीजुर्रहमान का बेटा शकूर... 14-15 साल का एक बच्चा... मासूम इसलिए.. क्योंकि उसपर जमाने ने सितम ढाए... लेकिन उसने उफ़ तक न की... घरवालों ने उसे बेड़ियों में जकड़ दिया... लेकिन उसकी ज़ुबान से कोई अल्फाज़ तक न निकला.. हां अपनी खामोश निगाहों से वो लोगों से इल्तिज़ा ज़रूर करता है.. लोगों को हसरत भरी निगाहों से भी देखता है..

लेकिन दुनिया बड़ी बेदर्द है.. और उस पर तरस खाने वाला कोई नहीं है... बचपन से बेड़ियों में जकड़े इस मासूम के घर की दीवारें भी उसके घरवालों की मुफ़लिसी को बयां करती हैं... सर्दी में भी उसके जिस्म पर एक निकर और एक फटी टी-शर्ट है.. खुले आंगन में ठंड से ठिठुरते उस बच्चे की परवाह शायद किसी को नहीं है... कच्चे घर की कच्ची दीवारों के बीच बेड़ियों में जकड़े शकूर के लिए तो ज़िंदगी किसी नरक से कम नहीं होगी... होश संभालने के बाद उस बदनसीब ने तो सुबह का सूरज बेड़ियों में ही देखा है... उसका दाना-पानी से लेकर सोने, गाने तक सबकुछ बेड़ियों में कट जाता है... लेकिन न तो बेरहम मां-बाप को तरस आता है... न उसके नाते-रिश्तेदारों को... लोग आते हैं.. उसका तमाशा देखते हैं.. और ऊल-जलूल से मशविरे देकर चले जाते हैं... बच्चे आते हैं उसे पत्थर मारकर चले जाते हैं... वो मौहल्ले भर के लिए तमाशा है.. और सब तमाशाई बन जाते हैं... तो कुछ लोग उससे डरे-सहमे उसके पास से भी गुज़रने पर खौफ़ खाते हैं...

इक्कीसवीं सदी में जीने वाले उस मासूम पर भी तरस नहीं खाते.. जिसे न तो अपना होशो-हवास है और न दुनिया का... लेकिन तरस तो उसके मां-बाप पर भी आता है. जो दकियानूसी बातों में पढ़कर अपने बेटे की ज़िंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं... उन नासमझों को किसी ने बता दिया, कि उनका बेटा बीमार है.. उस पर हवा का असर है... उसे भूत-प्रेतों से बचाना होगा... उस पर जिन्नातों का असर है...और उसे पंद्रह साल तक बेड़ियों से बांधकर रखो, तो वो ठीक हो जाएगा... बस उस दिन से उस बच्चे की ज़िंदगी जहन्नुम की मानिंद हो गई... अपने जिगर के टुकड़े को सीने से लगाने वाले मां-बाप ने ही उसके गले में फंदा डाल दिया... इतना होता, तो भी सब्र था... उस नन्हीं जान के गले में फंदा डाला गया.. फिर उसे एक लकड़ी के खंभे से बांध दिया गया.. उसके बाद उस खंभे को ज़मीन में खूंटे की तरह गाड़ दिया... बेज़ुबान बच्चा बेज़ुबान जानवर की तरह खूंटे से बंध गया... जितनी बार वो अपने सिर को हिलाता.. रस्सी उसके गले में निशान बना देती.. फिर उसका सिर ज़ोर से उस लकड़ी के खंभे में लगता... लेकिन वो बच्चा अपना दर्द किससे कहे... और कैसे कहे...

सब देख रहे हैं.. लेकिन उसके दर्द को समझने के बजाए उस पर हंस रहे हैं.. तालियां पीट रहे हैं... भूख लगने पर उसे खाना भी किसी जानवर से बदतर तरीके से परोसा जाता है... सचमुच ख़ुदा भी आसमां से जब ज़मी पर देखता होगा... मेरे बंदे कितने गधे हैं, ये तो सोचता होगा... औलाद के जन्म से पहले जो मां-बाप नीम-हकीमों से लेकर पीर फकीरों तक फरियाद लगा रहे थे.. अब बच्चे की परवरिश के लिए वही मां-बाप फिर उन्हीं नीम-हकीमों और पीर फकीरों के बताए रास्ते पर चल रहे हैं... 13 साल से वो मासूम जानवरों की तरह अपनी ज़िंदगी जी रहा है... लेकिन मुल्ला और पंडित अपनी रोज़ी-रोटी चमकाने के लिए उसकी जान से खेल रहे हैं.... बेज़ुबान शकूर मजबूर है...अक्ल से भी और बंदिशों से भी... लोग उसे पागल कहते हैं... लेकिन हकीकत में पागल तो वो लोग हैं.. जो उसकी नादानी पर हंसते हैं.. जो उस पर पत्थर मारकर चले जाते हैं... जो उसके साथ जानवरों जैसा सलूक करते हैं... उसके मां-बाप को कौन समझाए, कि उसका इलाज बेड़ियां नहीं है.. बल्कि उसे एक अच्छे डॉक्टर की ज़रूरत है, उसे एक प्यारे मां-बाप की ज़रूरत है और उसे ढेर सारे प्यार की ज़रूरत है, ...