अबयज़ ख़ान
चुनावी महाभारत अपने आखिरी पड़ाव में है, लेकिन इस बार जिस चीज़ की कमी सबसे ज्यादा महसूस की गई, वो था चुनाव प्रचार का ज़ोर-शोर। लोकसभा के लिए महासंग्राम का बिगुल तो बजा, लेकिन न तो बिगुल दिखा, न शोरशराबा करते चुनाव प्रचारक। आम-आदमी का चुनाव आम आदमी से कोसों दूर रहा। एक तरफ़ एक्ज़िट पोल गायब था, तो दूसरी तरफ़ चुनाव प्राचर के पुराने तरीके कहीं भी नज़र नहीं आये। बचपन में जब चुनाव की रणभेरी बजती थी, माहौल में एक अलग तरह का ही जोश होता था। काफ़ी पहले से चुनाव की तैयारियां शुरु हो जाती थीं। घर-घर में चुनाव के लिए पर्चियां बनाने का काम काफ़ी पहले ही शुरु हो जाता था। किस के घर में कितने वोट हैं, ये कार्यकर्ताओं को उंगलियों पर ही याद होता था। सुबह प्रचार का जो सिलसिला शुरु होता था, वो देर रात तक चलता था।
रिक्शेवाले लाऊडस्पीकर पर अपने खास उम्मीदवार का प्रचार करते थे, और जैसे ही रिक्शा गली के नुक्कड़ से गुज़रता, उसके पीछे बच्चों की भीड़ लग जाती थी। बिल्ले लेने के लिए बच्चों में होड़ मच जाती थी, रिक्शे वाला भी बच्चों को बिल्ले और झंडे बांटकर बदले में उनसे नारे लगवाता था। तो बच्चे भी कम नहीं थे, जिस नेता का रिक्शा देखा उसी की ज़िंदाबाद शुरु कर दी।



और तो और बच्चों का समूह हर नेता के दफ्तर पर जाता वहां नारे लगाता और खूब सारे बिल्ले और झंडे बटोरकर अगले नेता के घर रवाना हो जाता। बच्चे बी इतने समझदार थे कि जिस नेता के घर जाते थे उसी की जय-जयकार करते थे। पहले न तो इतनी गाड़ियां थीं, न नेता ही गाड़ियों पर प्रचार करने में दिलचस्पी दिखाते थे। नेताजी जब अपने लाव-लश्कर के साथ गुज़रते थे, तो उनके पीछे पैदल ही लंबा काफिला होता और गली-मुहल्ले के विकास के नाम पर वोट मांगे जाते थे।
इसके अलावा पेन्टर भी दिल लगाकर दीवारों को पैंट करते थे, उन पर खूबसूरत कलाकारी कर अपना हुनर दिखाते थे। नेताजी के साथ में उनकी पार्टी का चुनाव निशान होता, तो साथ में उनकी पार्टी के बड़े नेता जी का फोटो भी दीवार की शोभा बढ़ाता था। गली-मुहल्ले में नुक्कड़ सभाएं कर नेता वोट मांगते थे। इस दौरान न तो कोई गिला-शिकवा होता था न किसी की किसी से अदावत होती थी। दिनभर वोट और प्रचार के झंझट से निपटकर कार्यकर्ता जुट जाते थे अपने नेता जी के घर और फिर लगती थी खाने की पंगत।




देर रात तक चाय का सिलसिला तो आम बात होती थी। लोग भी चुनाव में खूब दिलचस्पी दिखाते थे। चाय की दुकान तो समझो सियासत का अड्डा बन जाती थी, वहां लंबी-चौड़ी बहसों में तय हो जाता था कि फलां सीट पर कौन जीत रहा है, और देश में किसकी सरकार बन रही है। या फलां नेता ने कौन सा बयान दिया है, या उसमें ऐसी कौन सी कमियां हैं, जिसकी वजह से इस बार उसकी हार तय है। एक से डेढ़ रूपये की चाय में हिंदुस्तान की तस्वीर तय हो जाती थी। पहले के लोग पप्पू भी नहीं होते थे, वोट डालने के दिन सुबह से ही घर में किसी मेले जैसा आलम होता था। सज-धजकर सुबह से लोग वोट डालने की तैयारियों में जुट जाते थे। लेकिन अब ये सब चीजें कहीं नदारद सी हो गईं है। शायद लोगों की दिलचस्पी भी कुछ कम हो गई है। खाना-पीना और मौज-मस्ती तो अभी भी बाकी है, लेकिन पहले वाली रौनक कहीं गायब सी हो गई हैं। रही-सही कसर चुनाव आयोग की पाबंदियों ने पूरी कर दी है। शायद ये ज़रूरी भी था, क्योकिं नेता भी खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ाने में अपनी शान समझते थे। लेकिन कुछ भी हो, पुराने चुनावों का अपना एक मज़ा था, जो कहीं खो सा गया है।
अबयज़ ख़ान
2009 का आम चुनाव कई मायनों में ख़ास रहेगा। मुद्दों से दूर इस बार का लोकसभा चुनाव बेमतलब की फूहड़ बयानबाज़ी के लिये याद रखा जाएगा। वरुण गांधी के ज़हर बुझे तीरों से शुरु हुआ चुनावी सफ़र अब तक के सबसे घटिया दौर से गुज़र रहा है। जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिए नेता मुद्दों के बजाए एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। वरुण ने हाथ काटने की बात की, तो बिहार में राबड़ी देवी नीतीश कुमार के बारे में ऐसे-ऐसे बोल बोल गईं जो न सिर्फ़ तहज़ीब के खिलाफ़ थे, बल्कि देश की इमेज पर भी बट्टा लगा रहे थे। राबड़ी ने शुरुआत की तो लालू कहां पीछे रहने वाले थे। वरुण ने ज़हर उगला तो लालू वरुण पर रोड-रोलर चलवाने की धमकी दे गये।

मतलब हर नेता तू सेर तो मैं सवा सेर साबित होने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मज़े की बात ये है कि इस बार के चुनाव को नेताओं ने गंभीरता की बजाए प्रैक्टिकल ग्राउंड बना दिया। समाजवादी पार्टी ने ये जानते हुए भी कि संजय दत्त मुंबई मामले में दोषी हैं, उन्हें लखनऊ से लड़ाने का ऐलान कर दिया, लेकिन जब बाद में परमिशन नहीं मिली, तो संजय की जगह नफ़ीसा अली को मैदान में उतार दिया। इसका मतलब ये है कि यूपी की इस बड़ी पार्टी को लगता है कि लखनऊ के सिर्फ़ वही ठेकेदार हैं, और लखनऊ की आवाम को इसका फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है। संजय दत्त को नेता बनाने पर तुली पार्टी ने उन्हें महासचिव बना दिया, तो मुन्ना बहनजी के खिलाफ़ ऐसी घटिया ज़ुबान का इस्तेमाल कर गये कि उन्हें लेने के देने पड़ गये।

वैसे भी ले-देकर उन्हें एक ही डायलॉग आता है, 'मैं मुन्ना और आप मेरे सर्किट' वैसे उनके सर्वहारा भाई (जो अमूमन सभी फिल्मी सितारों के भाई बन जाते हैं) अमर सिंह ने तो रामपुर से जया प्रदा के चुनाव को अहम की लड़ाई बना लिया और अपनी ही पार्टी के आज़म खान को खरी खोटी सुना डाली। बयान बहादुर बनते-बनते अमर इतने भारी हो गये कि मंच भी उनका वज़न नहीं संभाल पाए। चलिए अब यूपी से आगे बढ़ते हैं। नेशनल लेवल पर नज़र डालें तो मौजूदा पीएम और पीएम इन वेटिंग ने एक दूसरे के खिलाफ़ तलवारें निकाल रखी हैं। अभी तक दोनों एक-दूसरे को कमज़ोर साबित करने पर तुले हैं, लेकिन शायद दोनों को ही सियासत का कॉम्पलेन पीने की ज़रूरत है। तो उधर बिहार में लालू और पासवान अपनी ही सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोले खड़े हैं। तलवारें तन गईं हैं और सभी की नज़र देश को एक मज़बूत सरकार देने के बजाए पीएम की कुर्सी पर लगी हैं।

तो बिहार में प्रणव मुखर्जी, लालू को उन्हीं के अंदाज़ में जवाब दे गये। ये अलग बात है कि बाद में वो कमज़ोर हिंदी का हवाला देकर बयान से किनारा कर गये। तो यूपी में दिग्विजय सिंह मायावती को सीबीआई की धमकी दे गये। और तो और बीजेपी में जेटली और राजनाथ सिंह में ही तलवारें खिंच गई, वो भी सिर्फ़ इसलिये कि जेटली को लगने लगा कि राजनाथ, सुधांशु मित्तल को आगे कर उनके पर कतर रहे हैं। हालात ये हो गई कि बयान बहादुर नेताओं के आगे चुनाव आयोग भी बेबस नज़र आ रहा है। चुनाव कराने से ज्यादा बड़ा काम तो उसके सामने नेताओं को नोटिस जारी करने का है। हालात ये हो गई है कि चुनाव आयोग को भी शायद याद नहीं होगा कि इस बार उसने कितने नोटिस बांटे हैं। लेकिन इस बार के चुनाव को बिना जूते के कैसे भूल सकते हैं। चिदंबरम पर जूता पड़ा तो टाइटलर और सज्जन कुमार चुनावी आंधी में उड़ गये।

जिंदल पर जूता पड़ा को कांग्रेस की और भी फ़ज़ीहत हो गई। जूते पर कांग्रेस को घेरने वाली बीजेपी भी इस वार से नहीं बची, भले ही पीएम इन वेटिंग चप्पल का निशाना बने हों, लेकिन ये तो साफ़ हो गया कि भगवा पार्टी में भी सब कुछ ठीक नहीं है। यानि अब तक जनता से जुड़े मुद्दे कहीं भी नहीं। मंदिर पर फेल हुई बीजेपी इस बार काले धन का रोना रो रही है, जिसका न तो आम आदमी से कोई मतलब और न ही पैसा आने से रहा। लेकिन सबसे दिलचस्प रहा समाजवादी पार्टी का मेनीफेस्टो। मुद्दों की बात तो दूर, जनाब तो अंग्रेजी और कंप्यूटर के सफ़ाये की बात ही कर गये। इस बार के चुनाव में क्या-क्या नहीं हुआ जो बताया जाए, जब नेताजी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होने नोट बांटना ही शुरु कर दिये। मतलब लिखने को इतना कुछ कि किताब छप जाए, और शायद अगर इस पर किताब आ जाए तो बेस्ट सेलर भी बन जाए। ये उस देश के महासंग्राम का हाल है जहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कायम है। जहां सत्ता की कुंजी आम आदमी के हाथ में मानी जाती है, लेकिन चुनाव के बाद नेताजी की झोली भरती है और आम आदमी रह जाता है खाली हाथ। वैसे भी इस बार का ड्रामा देखकर तो यही लग रहा है कि ये नेता मंडली के कलाकार हैं और हम सब तमाशाई हैं, जिसका नाटक ज्यादा पसंद आयेगा उस पर वोट लुटा देंगे, और फिर उनके हाथ में सौंप देंगे अपनी किस्मत पांच साल के लिए। शायद इसीलिए ये चुनाव 'अमर' रहेगा। धन्य हो...मेरा भारत महान
अबयज़ ख़ान
दिल्ली के एक स्कूल में एक लड़की की इसलिए मौत हो गई कि क्योंकि टीचर ने उसे मुर्गा बना दिया था.. बच्ची के घरवालों का आरोप है कि टीचर ने बेरहमी से उसकी पिटाई भी की थी। ये थी एक छोटे से सरकारी स्कूल की कहानी। जहां मामूली सी फीस पर बच्चों का भविष्य बनाया जाता है। महज़ पचास रुपये की फीस देकर शन्नो के घरवाले अपनी बेटी के लिए सपने बुन रहे थे। अब चलते हैं राजधानी के एक हाईप्रोफ़ाइल स्कूल.. यहां भी एक लड़की की मौत हो जाती है, 12 वीं क्लास की इस लड़की के घरवालों का इल्ज़ाम है कि उनकी बच्ची स्कूल में बीमार हुई तो स्कूल वालों ने उसे वक्त पर इलाज मुहैया नहीं करवाया। जिस वजह से उनकी बच्ची को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। ये है एक बड़े स्कूल की कहानी। जहां पढ़ने वाली आकृति दस हज़ार रुपये से ज्यादा महीने की फीस अदा करती थी। दोनों ही स्कूलों में इल्ज़ाम के घेरे में आये स्कूल और टीचर।

सवाल ये है कि टीचर बेरहम हो गये हैं, या स्कूल लापरवाही की हद पर उतर आये हैं। आखिर क्या फर्क बचा एक सरकारी स्कूल और हाई प्रोफाइल स्कूल में। सरकारी स्कूल में शन्नो को वक्त पर इलाज नहीं मिला, तो पब्लिक स्कूल में आकृति को भी वक्त पर इलाज नहीं मिला। हालत दोनों स्कूलों की एक जैसी है। दोनों ही स्कूलों का कहना है कि इलाज वक्त पर मिला है, दोनों ही स्कूलों का कहना है कि लड़कियां बीमार थीं। फर्क सिर्फ़ इतना ही कि शन्नो की टीचर पर उसकी पिटाई करने का इल्ज़ाम है और आकृति के स्कूल पर उसको वक्त पर इलाज न देने का इल्ज़ाम है। दोनों ही मामले बहुत गंभीर हैं। सवाल ये है कि क्या बच्चों की कीमत कम हो गई है, या भारी दबाव में स्कूल टीचर उन पर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। हालांकि इसके लिए मीडिया का शुक्रगुज़ार होना पड़ेगा, जो अब क्लासरूम में भी पहुंच गया है। मेरे स्कूल में एक टीचर थे, नाम लिखना शायद ठीक नहीं होगा, लेकिन उनकी मार बहुत मशहूर थी, हर कोई उनकी पिटाई से थर्राता था। स्कूल में पिटाई का उनका अंदाज़ ही अलग था, अगर उनके सब्जेक्ट गणित में कोई गलती हो गई, तो समझिये उस लड़के की कयामत आ गई। बच्चों को सज़ा देने के लिए वो एक के पीछे एक चार पांच लड़कों को एक साथ मुर्गा बनाते थे, उसके बाद सबसे पीछे वाले लड़के के अपना घुटना मारते थे, जिसकी वजह से एक के पीछे एक बच्चों के सिर दीवार में लगते थे। और वो अपनी इस सज़ा पर बड़ा फक्र महसूस करते थे। लेकिन एक बार जब वो अपने घर में स्टूल पर चढ़कर पंखा लगा रहे थे, तभी अचानक स्टूल लुढ़क गया और मास्टर साहब ज़मीन पर गिर गये, जिससे उनका एक हाथ टूट गया। उस दिन के बाद से मास्टर जी ने बच्चों को सज़ा देने से तौबा कर ली। ये तो क्रूर सज़ा का एक नमूना भर है।

दिल्ली में स्कूली लड़कियों की मौत तो मीडिया की बदौलत सबके सामने है, लेकिन देशभर में ऐसे कितने ही स्कूल हैं, जहां बेरहम टीचर अपनी गुरुगर्दी साबित करने के लिए बच्चों को सज़ा देते हैं। लेकिन वो ख़बरें मीडिया के कैमरों से कोसो दूर रहती हैं, लिहाज़ा किसी की नज़र में नहीं आतीं। ये बच्चों को सज़ा देने का आज का मामला है, लेकिन पक्षपात करने का गुरुओं का इतिहास तो पुराना रहा है। गुरु द्रोण ने दक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा सिर्फ इसीलिए मांग लिया ताकि वो उनके प्यारे शिष्य अर्जुन की बराबरी न कर सके। इसे अजीब इत्तफ़ाक ही कहा जा सकता है कि जो बच्चे घर के बाद अपने लिए स्कूल को सबसे ज्यादा महफ़ूज़ समझते थे, आज स्कूलों से ही उन्हें मौत मिल रही है। गुरु जल्लाद बन गये हैं और स्कूल नरक में तब्दील होते जा रहे हैं। आखिर कब ख़त्म होगा स्कूलों का डर?
अबयज़ ख़ान


रूबीना फॉर सेल, रूबीना बिक रही है.. रूबीना का बाप उसको बेचने के लिए तैयार है... 2 करोड़ रूपये में बेचने की तैयारी, बाप ने किया बेटी का सौदा। रूबीना की लग गई कीमत। ये कड़वी हकीकत है उस हिंदुस्तान की जिसकी स्लमडॉग दुनियाभर में तहलका मचा रही है, वो स्लमडॉग जो स्लम वालों को छोड़कर बाकी सबको मिलेनियर बना रही है। गोल्डन अवार्ड से लेकर ऑस्कर तक में धूम मचाने वाली इस फिल्म की नन्हीं कलाकार रूबीना के सामने आ गई वो कड़वी हकीकत जिसे उसने परदे पर जिया, उसका खुद का बाप उसका सौदा कर रहा था, अपनी उस बेटी का सौदा, जो उसके जिगर का टुकड़ा थी। बाप ने कैश कराया उस बेटी के नाम को जो इस मासूम उम्र में दुनिया में हिंदुस्तान का नाम रौशन कर रही है। दिलचस्प बात ये है कि रूबीना के बिकने का खुलासा भी किया तो एक ब्रिटिश वेबसाइट ने। और रूबीना को झुग्गी से चमक-दमक भरे रैंप पर पहुंचाया तो वो भी ब्रिटेन के डैनी बॉयल ने। रूबीना के बारे में हमने न तब सोचा और न अब। अलबत्ता इतना ज़रूर है कि तब उसकी कामयाबी पर हमने तालियां बजाई थीं, और अब उसकी बदहाली पर अफ़सोस जता रहे हैं। वैसे भी इसके अलावा हम और कर भी क्या सकते हैं।

लेकिन यहां अहम सवाल ये है कि अगर रूबीना की जगह कोई और लड़की होती, और उसके बिकने की बात आती, तो क्या हम इसी तरह जाग जाते? क्या कोई मीडिया हाउस उस लड़की के पिता का स्टिंग ऑपरेशन कर उसके बिकने की साजिश का खुलासा करता? मीडिया की मेहरबानी से रूबीना तो बच गई, लेकिन देश में कितनी लड़कियां ऐसी हैं, जो भूख और गरीबी के इस दौर में अपने मां-बाप और रिश्तेदारों द्वारा बेच दी जाती हैं। और उसके बाद वो किस हाल में जीतीं हैं, कोई नहीं जानता। दूसरों के जूठे बरतन मांजने से लेकर चकलाघर तक उन्हें नर्क जैसी ज़िंदगी से गुज़रना पड़ता है। कुछ मासूम तो हवस के भेड़ियों का शिकार बन जाती हैं। लेकिन न तो कोई उनका पुरसाहाल होता है और न ही उनके दर्द किसी को अपने लगते हैं।

समाज के भूखे भेड़िये उनके जिस्म को नोंच कर अपनी हवस मिटाने में लगे रहते हैं। लेकिन अफ़सोस ये कि उनकी किस्मत रूबीना जैसी नहीं होती। न तो कोई रूबीना की तरह उनकी झुग्गियों में जाकर उनका हाल पूछना चाहता है, और न ही कोई उन पर फिल्म बनाता है। जो लोग उनके लिए धड़ी भर का एहसान भी करते हैं, उसके लिए वो सरकार और विदेशों से अच्छी-खासी रकम ऐंठ लेते हैं। सरकार की स्कीमों का फायदा कोई और उठाता है। और जो इसके हकदार हैं, उनकी निगाहें किसी रहनुमा को खोजती रहती हैं। और मदद करने आते हैं लंबी-चौड़ी गाड़ियों से उतरने वाले लोग, जो उनका भाव लगाते हैं, उन पर एक फिल्म बनाते हैं, उस पर अवार्ड बटोरते हैं, उसकी कामयाबी पर बड़ी-बड़ी पार्टियां करते हैं और फिर मूंछों पर ताव देकर विदेशों की सैर पर निकल जाते हैं। और फिर बाज़ार में कोई और लगाता है उनकी बोली। क्योंकि ये बदनसीब तो बिकने के लिए ही बने हैं।
अबयज़ ख़ान
रामपुर का नाम वैसे तो नवाबों के लिए मशहूर है, लेकिन इस शहर में कुछ ऐसी नायाब चीज़ें भी हैं, जिसने इसका नाम दुनियाभर में रौशन कर दिया है। चाहें रामपुर के लज़ीज़ खानों की बात हो, या इस शहर की तहज़ीब की बात हो। लेकिन जिसने रामपुर को दुनियाभर में आला मुकाम दिलाया उस का नाम था रज़ा लाइब्रेरी। और इसके लिए शुक्रिया करना होगा उन नवाबों का जिन्हें हम हमेशा तानाशाह की निगाह से देखते आये हैं। शहर के बीचों-बीच आलीशान किले में बनी इस लाइब्रेरी ने न सिर्फ़ रामपुर के इतिहास की हिफ़ाज़त की है, बल्कि इसने दुनियाभर की तारीख को अपने आप में समेट लिया है। सोने की प्लेटों से सजी हुई छतें और एक ही पत्थर को तराश कर बनाई गई चौदह खूबसूरत मूर्तियां किसी का भी दिल जीत लेती हैं। उसमें 75 हज़ार से ज्यादा किताबें और 16 हज़ार बेशकीमती पांडुलिपियां, हाथी दांत पर अकबर और उसके नौ रत्नों की तस्वीरें इस नायाब धरोहर की कहानी खुद-ब-खुद बयां कर देती हैं।




रामपुर के नवाब और किताबों के बेहद शौकीन नवाब फैज़ुल्ला खां ने 1774 में उत्तर प्रदेश के रामपुर ज़िले में इस लाइब्रेरी की बुनियाद रखी। उनके इस शौक को और भी आगे बढ़ाया नवाब कल्बे अली खां। इस लाईब्रेरी में आज जो भी बेशकीमती ख़ज़ाना है वो रामपुर के नवाबों की ही देन है। नवाब कल्बे अली खां जब 1872 में हज पर गये तो वहां से ढेर सारी पांडुलिपियां अपने साथ ले आये जो आज भी लाईब्रेरी में मौजूद हैं। लाइब्रेरी में हिंदू, उर्दू, अंग्रेज़ी, मराठी और हिंदुस्तानी ज़बानों के अलावा फ्रेंच, जर्मन, रशियन और अंग्रेज़ी ज़ुबानों में भी ढेर सारी किताबें मौजूद हैं। 1957 में लाइब्रेरी को नई इमारत मिल गई, जिसमें ये आज भी चल रही है। ये इमारत इंडो-यूरोपियन कला का बेहतरीन नमूना है। हामिद मंज़िल के नाम से मशहूर इस इमारत को नवाब हामिद अली खां ने अपना दरबार लगाने के लिए बनवाया था और रियासत ख़त्म होने के बाद ये इमारत रज़ा लाइब्रेरी को दे दी गई।

इस इमारत के अंदर पत्थर की चौदह खूबसूरत मूर्तियां लगी हैं, जिसके लिए इटली से पत्थर मंगवाया गया था। खास बात ये है कि ये मूर्तियां एक ही पत्थर को तराशकर बनाई गईं हैं। इमारत में तो इतनी खूबियां हैं कि इस पर अलग से कुछ लिखा जा सकता है, फिलहाल बात लाइब्रेरी की ही करते हैं। लाइब्रेरी के खज़ाने में 500 से भी ज्यादा बेल-बूटों से सजी सोने के काम वाली बेहतरीन किताबें मौजूद हैं। इसके अलावा यहां पर अरबी की एक बेशकीमती किताब 'अजाइबुल मख़लूकात' भी है, जिसे ज़करिया बिन महमूद अल कज़बीनी ने 1283 में लिखा था। इसके अलावा मलिक मुहम्मद जायसी का फारसी में अनुवादित 'पदमावत', औरंगज़ेब के ज़माने में अनुवादित रामायण, तुर्की ज़ुबान में बाबर का 'दीवाने बाबर', उर्दू में इंशा अल्ला खां की रानी केतकी की कहानी, दुनिया भर की बेहतरीन पेंटिग्स, ईरान का इनसाइक्लोपीडिया, सिराज दमिश्की का 'उस्तूर-लाब', जैसा महत्वपूर्ण उपकरण है। इसका इस्तेमाल सूर्य-नक्षत्रों की गति मापने के साथ ही समंदर में यात्रा करते वक्त इस्तेमाल किया जाता था।

इसके अलावा इस लाइब्रेरी में जो सबसे खास चीज़ है वो है, हज़रत अली द्वारा चमड़े पर लिखा हुआ कुरान। वक्त के साथ लाईब्रेरी खूबसूरत होने के साथ ही हाईटेक भी होती जा रही है। दुनियाभर के पाठकों के लिए इसे ऑनलाइन कर दिया गया है। आज ये लाइब्रेरी न सिर्फ़ दुनियाभर में रामपुर के नाम को बरकरार रखे हुए है, बल्कि इसने नवाब फैज़ुल्ला खां के सपनों को भी साकार किया है। रज़ा लाईब्रेरी उन लोगों के लिए एक नायाब तोहफ़ा है, जो मुगलकालीन कला और किताबों के कद्रदान हैं।
रज़ा लाइब्रेरी पर और जानकारी के लिए आप इसकी साइट http://razalibrary.gov.in/ पर जा सकते हैं।
अबयज़ ख़ान
रामपुरी की धार के आगे वैसे तो अच्छे-अच्छे कांप जाते हैं, लेकिन अब बारी खुद रामपुरी की है। अपने ही शहर में अब रामपुरी चाकू का कोई पुरसा हाल नहीं है। ख्वाजा अहमद उर्फ पच्चा उस्ताद का ये चाकू शायद अपने आखिरी दिन गिन रहा है। रामपुर शहर के बाज़ार नसरुल्ला खां का वो चाकू बाज़ार अब कहीं खो सा गया है। न तो बाज़ार में पहले जैसी रौनक है और न ही बाज़ार में चाकू के कद्रदान। और जो दुकानदार चाकू, छुरियों के बल पर अपनी रोज़ी-रोटी चलाते थे आज उनके बच्चे अपने अब्बा के इस बिजनेस को जी भर कर कोसते हैं।



1908 में पैदा हुए पच्चा उस्ताद के वालिद की रामपुर के पास ही रुद्रपुर में असलहे की दुकान थी। लिहाज़ा उन्होने भी यही काम शुरु कर दिया। पच्चा उस्ताद ने इस काम की शुरुआत घर से ही की। उनका ये चाकू का हुनर नवाब रज़ा अली खां को इतना पसंद आया कि उन्होंने शहर से कुछ दूर पनवड़िया की नुमाइश में पच्चा उस्ताद की कारीगरी से खुश होकर उन्हें 25 रुपये का ईनाम भी दिया। इस चाकू की खास बात ये थी कि इसे खोलने के लिए इसमें खुफिया बटन था, जिसकी वजह से इसे 'ट्रिक नाइफ़' नाम दिया गया। इसके बाद तो जैसे रामपुर शहर में चाकू का कारोबार चल निकला। लेकिन पिछले 48 साल से इस धंधे में लगे कर्नल खुशनूद मियां अब इस धंधे से तौबा करने लगे हैं। आज इस कारोबार की हालत ये है कि कभी 200 दुकानों वाला चाकू बाज़ार चार-पांच फुटपाथों की दुकानों तक सिमटकर रह गया है। कभी पांच हज़ार से ज्यादा लोगों का ये कारोबार अब तीन-चार सौ लोगों तक ही सिमट कर रह गया है। लेकिन चाकू की धार कुंद पड़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह है 1980 का मुरादाबाद दंगा। जिसकी वजह से प्रशासन ने इसके बेचने और खरीदने पर सख्ती शुरु कर दी। इसके अलावा 1979 में चाकू के बेचने और खरीदने पर लाइसेंस की शुरुआत भी कर दी, जिस वजह से ये कारोबार और भी सिकुड़ने लगा। लेकिन जानकारों की मानें तो इस कारेबार के बर्बाद होने के लिए पुलिस की सख्ती भी ज़िम्मेदार है। दरअसल पहले ये चाकू रामपुर से बाहर अलीगढ़, लखनऊ, मेरठ और मुंबई तक जाते थे, लेकिन लाइसेंस लगने की वजह से चाकू का बाहर जाना बंद हो गया। महाराष्ट्र में पहली बार बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनी तो चाकू पर बैन लग गया। कभी 12 इंच का मशहूर रामपुरी पाबंदिया लगने के बाद घटकर पांच इंच पर ठहर गया। आज हालत ये है कि ये लंबाई घटते-घटते सिर्फ़ 10 सेंमी तक सिमट गई है, वो भी सिर्फ़ रामपुर की हद तक। फ़ाइलें दफ़्तर में धूल खा रही हैं, और कारोबार अपनी आखिरी सांसे गिन रहा है। वैसे आज भी बाज़ार में आपको रामपुरी चाकू 20 रुपये से लेकर डेढ़ सौ रुपये तक में मिल जाएंगे, लेकिन इसके कद्रदान नहीं हैं। अगर आप चाहेंगे तो आज भी आपको रामपुर के खास बटनदार, आवाज़ वाले, कमानीदार, दांते वाले, गुप्ती और तलवारें तक मिल जाएंगीं। लेकिन एक तो ये हर किसी को मिल नहीं सकते, दूसरे इनकी मांग इतनी कम है कि हर वक्त तैयार भी नहीं मिलते। अलबत्ता आपको छोटे चाकू, सरौते या कैंचियां ज़रूर आसानी से मिल जाएंगीं। लेकिन अफ़सोस तो ये है कि कभी अपनी धार से रामपुर को दुनियाभर में शोहरत देने वाला चाकू आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है, और इसके दम पर अपनी शान बघारने वाले रहनुमा ख़ामोश हैं।
अबयज़ ख़ान
अब कहिए जनाब, इस चप्पल के वार पर क्या कहेंगे आप? जब चिदंबरम पर जूता पड़ा तो बीजेपी ने इसकी निंदा तो की, लेकिन इसे इंसाफ़ की आवाज़ भा बता डाला था। लेकिन अब तो अपने ही कार्यकर्ता ने चप्पल से हमला किया। यानि अब आडवाणी जी को भी साफ़ हो गया होगा, कि उनके घर में ही कितनी जूतम-पैजार होती है। बीजेपी के एक कार्यकर्ता ने उन पर महज इसलिए चप्पल फेंक दी, क्योंकि उसको पार्टी ने स्थानीय स्तर पर उसके पद से हटा दिया था। ये हालत उन कार्यकर्ताओं की है, जो एसी में बैठने वाले नेताओं के लिए ज़मीन तैयार करते हैं। लेकिन पार्टी में किसी को इसकी फिक्र नहीं। आज बीजेपी की हालत ये है कि उसको यूपी और बिहार जैसे बड़े राज्यों में अपनी ज़मीन वापस पाने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ रहा है। अपने बचाव के लिए बीजेपी अब इसे ज्यादा तूल न देने की बात कर रही है। बीजेपी को लगता है कि चप्पल की जगह जूता भी हो सकता था। और ये घटिया राजनीति और पब्लिसिटी पाने का तरीका है। लेकिन जब यही जूता चिदंबरम पर पड़ा था, तो बीजेपी इसे इंसाफ़ की लड़ाई बता रही थी। यहां तक कि बीजेपी ने कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार के साथ ही पूरी कांग्रेस को कटघरे में खड़ा कर दिया था। अब आडवाणी पर चप्पल पड़ी है, तो बीजेपी इसे शर्मनाक घटना बता रही है। लेकिन बीजेपी इस हमले के पीछे की वजह जानने की कोशिश ही नहीं कर रही है। दरअसल बीजेपी में गुस्सा तो चुनाव से पहले ही उबाल पर था। पार्टी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली ने चुनाव से पहले ही तलवार म्यान से बाहर निकाल ली थी। जैसे-तैसे उन्हें मनाया गया, तो वरुण ने पार्टी की इमेज पर पलीता लगा दिया। उसके बाद जसवंत सिंह ने नोट बांटकर पार्टी की किरकिरी करने में कोई कसर हीं छोड़ी।



ऐसा पहली बार नहीं है कि बीजेपी में किसी कार्यकर्ता का गुस्सा सामने आया हो। कभी 2 पार्टियों वाली बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं के दम पर ही दिल्ली की कुर्सी तक पहुंची थी। उसने सरकार मिलते ही अपने कार्यकर्ताओं को किनारे लगा दिया। दिल्ली में पार्टी ने उन्हीं मदन लाल खुराना को किनारे कर दिया, जिनके दम पर पार्टी ने दिल्ली में कमल खिलाया था। मध्य प्रदेश में पार्टी की फ़ायर ब्रांड नेता उमा भारती से पार्टी ने ऐसी बेरुखी दिखाई कि उमा तो गईं साथ में पार्टी के सैकड़ों ज़मीनी कार्यकर्ता भी पार्टी से रूठ गये। इसके अलावा बीजेपी के अर्श से फ़र्श पर पहुंचाने वाले कल्याण सिंह आज मुलायम सिंह के रहमो करम पर अपने राजनैतिक करियर को बचाने में लगे हैं। और तो और जब चुनाव लड़ने का नंबर आता है, तो बाहर से आकर वो नेता टिकट हड़प जाते हैं, जो दिल्ली के ऐसी कमरों में बैठकर देश की दिशा और दशा तय करते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी आज जब इस बीजेपी का हाल देखते होंगे, तो शायद उनको अपनी मेहनत पर पानी फिरता नज़र आता होगा। और तो और प्रधानमंत्री बनने के लिए पार्टी में ऐसी आपा-धापी है कि आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने से पहले ही पीएम-इन वेटिंग का खिताब दे दिया गया। ऐसा खिताब शायद दुनिया में पहली बार भारत में ही किसी को दिया गया होगा। यानि अगर आडवाणी पीएम नहीं बन पाए, तो भविष्य में उन्हें पूर्व पीएम इन वेटिंग के नाम से पुकार सकते हैं। आडवाणी के अलावा नरेन्द्र मोदी भी अपने प्रधानमंत्री बनने का शिगूफ़ा छोड़ देते हैं। कभी खुद तो कभी बड़े बिजनेस टाईकून मोदी को बेहतर प्रधानमंत्री साबित करने पर तुले रहते हैं। आडवाणी समेत पार्टी के बड़े नेता आम कार्यकर्ता से जुड़ने के बजाए विपक्षी पार्टियों पर ही निशाना साधने में लगे हैं। मुद्दों पर चुनाव लड़ने के बजाए बीजेपी और उसके नेता मनमोहन सिंह को कमज़ोर प्रधानमंत्री साबित करने में लगे हैं। पार्टी ने नारा दिया है, निडर नेता निर्णायक सरकार। वाकई ये नारा बीजेपी पर एकदम सटीक बैठता है। बीजेपी नेताओं की निडरता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उसके नेता खूंखार आतंकवादियों को कंधार छोड़कर आये। निर्णय लेने की क्षमता का अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि संसद से लेकर लालकिले तक पर आतंकवादी हमला कर गये और बीजेपी नेता निर्णय ही लेते रहे। बीजेपी और उसके दूसरे संगठन देश की समस्याओं पर सोचने के बजाए ये देखते हैं कि देश में कौन संस्कृति का पालन कर रहा है। कौन क्या पहन रहा है और कौन क्या खा रहा है। अरे आप देश तो संभाल नहीं सकते, तो लोगों की निजी जिंदगी में ही तांक-झांक शुरु कर दी। और शायद इसी का नतीजा है जो कटनी में हुआ। ज़मीन के कार्यकर्ता को नज़रअंदाज़ करके ड्राइंगरूम में सियासत नहीं हो सकती। बीजेपी और उसके नेता आडवाणी को इस मामले में गंभीर होना ही होगा, वरना कहीं ऐसा न हो कि आडवाणी पीएम इन वेटिंग ही रह जाएं।
अबयज़ ख़ान
आम चुनाव में मुलायम ने लालू और पासवान से हाथ क्या मिलाया, लगता है मुलायम और उनकी पार्टी 19 वीं सदी में लौट गए। साईकिल पर चलते-चलते मुलायम ने हाथ में लालटेन थाम ली, और झोंपड़ी में आराम फ़रमाने लगे। शायद इसीलिए मुलायम ने ऐलान किया है कि देश से कंप्यूटर और अंग्रेज़ी स्कूल बंद कर देंगे। अरे मुलायम भईया अंग्रेज़ी से इतनी भी क्या नाराज़गी, अपना मुन्ना तो विदेश में पड़ कर आया है, तो अंग्रेज़ी में ही पड़ा होगा। हां इसके पीछे मुलायम की सोच काफ़ी दूरदर्शी लगती है, जब अंग्रेज़ी स्कूल होंगे ही नहीं, तो महंगी फीस भी नहीं होगी। और फीस महंगी नहीं होगी, तो पैरेंट्स भी बेचारे परेशान नहीं होंगे, और उन्हें स्कूलों के बाहर नारेबाज़ी भी नहीं करना पड़ेगी। लेकिन कंप्यूटर बेचारे का क्या कसूर, अरे मुलायम भईया आपने भी तो उम्मीदवारों की लिस्ट लैपटॉप में ही बनाई होगी और तो और जो आपने 19 वीं सदी का मेनीफेस्टो बनाया है, वो भी कंप्यूटर में ही टाइप किया होगा। लेकिन आपका तर्क भी बड़ा लाजवाब है। कंप्यूटर ने रोज़गार के मौके कम कर दिये हैं। कंप्यूटर की वजह से हाथ को काम मिलना बंद हो गया है। लेकिन जनाब गलती मुलायम सिंह की नहीं है। न उनके कारपोरेट सखा अमर सिंह की। अमर सिंह ने पार्टी को सितारों से सजाने की बहुत कोशिश की, फिल्मी सितारों से मन नहीं भरा, तो यूपी में कल्याण सिंह से भी दोस्ती गांठ ली। लेकिन इस मुए मेनीफेस्टो ने सब गुड़-गोबर कर दिया। पता नहीं टाइपिंग में गलती हो गई, या टाइप ही गलत कराया है। या फिर लगता है जिसने मेनीफेस्टो लिखा है, वो फिल्मों की तरह फ्लैश बैक में चला गया। बेचारे ने टाइपराइटर पर टाइप तो 19 वीं सदी में किया, लेकिन जब वो फ्लैशबैक से बाहर आया, तब तक 21 वीं सदी हो चुकी थी, और जल्दबाज़ी में मेनीफेस्टो मीडिया के सामने आ गया। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि इस बार मुलायम ने प्रधानमंत्री बनने के लिए जो चौथा मोर्चा बनाया है, ये सब उसकी वजह से हुआ हो। अरे भई उनके दोस्त लालू यादव का निशान तो लालटेन है, और दूसरे सहयोगी रामविलास पासवान का निशान झोपड़ी है। और खुद तो मुलायम सिंह साईकिल पर सवार हैं अब मेनीफेस्टो तो ऐसा बनाना ही था, जो चुनाव निशानों से सूट कर जाए। फिर दोस्तों का ख्याल भी तो रखना था। शायद मेनीफेस्टो को बनाया ही इस हिसाब से गया है कि लालटेन, झोंपड़ी और साईकिल को बढ़िया तरीके से एडजस्ट किया जा सके। अब देखिए घोषणापत्र पर मुलायम के तर्क।



अगर मेनीफेसोटो के हिसाब से चला जाए, तो देश से सबसे पहले बिजली को ही ख़त्म किया जाएगा, क्योंकि जैसे कम्प्यूटर ने रोजगार छीना है, वैसे ही बिजली ने लाखों लोगों को बेरोज़गार कर दिया है। बिजली की वजह से चल रही हैं देश में बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां जिसमें लगी हैं. बड़ी-बड़ी मशीने। और इसमें काम करते हैं लाखों लोग। यानि अगर मुलायम सिंह और अमर सिंह की मानें तो मशीनों की वजह से बहुत से लोग बेरोज़गार हैं। इसलिए अगर उनकी सरकार आई तो वो बिजली भी बंद कर सकते हैं। इससे एक फायदा ये होगा, कि मशीनें अपने-आप हट जाएंगी और फैक्ट्री में काम करेंगे बहुत सारे लोग। लेकिन वो काम कैसे करेंगे, ये कहना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। इतना फायदा ज़रूर होगा, कि देश में एक बार फिर से लालटेन युग शुरु हो जाएगा। पक्के मकानों की जगह लोगों को झोंपड़ी बनाकर दी जाएगी, ताकि उन्हे भूकंप के कुदरती क़हर से निजात दिलाई जा सके। इससे कई फ़ायदे होंगे, एक तो महंगाई के इस ज़माने में लोगों को आराम से मकान सुलभ होंगे, दूसरे सीमेंट और सरिए की बेलगाम होती कीमतों से भी राहत मिलेगी। इसके अलावा साईकिल चलाने से बीमारियां कुछ कम होंगी। पेट्रोल-डीज़ल के प्रदूषण से निजात मिलेगी, तो गरीब लोगों को एक बार फिर से रोज़गार मिल सकेगा। साईकिल मरम्मत की दुकान खोलने के लिए उन्हें सस्ती दर पर लोन भी मिलेगा। इसके अलावा लालटेन का भी बड़ा फायदा होगा, बिजली के भारी-भरकम बिलों से निजात मिलेगी। तेज़ भागते मीटरों पर ब्रेक लगेगा। बिजली के महंगे उपकरणों से छुटकारा मिलेगा। फ्रिज और एसी पर रोक लगेगी, ताकि घड़ा एक बार फिर गर्मी में लोगों का गला तर कर सके। मिट्टी के बर्तनों के दिन फिर से लौटेंगे, एक और फायदा ये होगा, कि जब बिजली नहीं होगी, तो पानी भी नहीं आयेगा, और लोग पानी के लिए चिक-चिक भी नहीं करेंगे। और सबसे बड़ा फायदा ये कि बिजली-पानी के लिए लोग बार-बार सरकार को नहीं कोसेंगे। यानि मेनीफेस्टो में खास ख्याल रखा सरकार का, जिससे उसे आने वाली परेशानियों का सामना न करना पड़े। लेकिन हंगामा करने वाले हैं कि मानते ही नहीं। बात-बात में शोर मचाने लगते हैं। अरे भई मुलायम सिंह ने मेनीफेस्टो बनाया है, तो कुछ सोच-समझकर ही बनाया होगा। फिर इसमें हायतौबा मचाने की क्या ज़रूरत है। जय हो पूंजीपति समाजवादियों की।
अबयज़ ख़ान
अब तक जूता सिर्फ़ पैरों की शान समझा जाता था, लेकिन ये जूता वक्त के साथ तरक्की कर गया है। कंपनी चाहे कोई भी हो, लेकिन जूते का जलवा कम नहीं हो रहा है। नेताओं और रैलियों में टमाटर और अंडे पड़ना तो अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई है। जूते ने ऐसा कब्ज़ा जमाया है कि मार्केट में भी जूते महंगे हो गये, यहां तक कि डिमांड बढ़ने के डर से जूतों की ब्लैकमेलिंग भी होने लगी है। जूतों के वार से सरकारें हिल गईं, किसी की नाक कटी तो कोई बेटिकट हो गया। बुश से चला जूता इंग्लैंड होता हुआ हिंदुस्तान तक पहुंच गया। लेकिन इस जूते के साथ अच्छी बात ये है कि नेताओं की तरह ऊंच-नीच का फर्क नहीं करता। शुरुआत जॉर्ज बुश से हुई, तो सिलसिला कांग्रेस के युवा नेता नवीन जिंदल तक पहुंचा। और जनाब अभी तो ये शुरुआत है। अभी तो सिलसिला शुरु हुआ है। दाम भले ही जूते के कम रहे होंगे। अफ़सोस रहा तो बस ये कि जूतेबाज़ निशाने के पक्के नहीं थे। जॉर्ज बुश पर दोनों में से एक भी नहीं लगा। हां जूते के दाम बहुत बड़ गये, ये अलग बात है कि दोनों जूते बेचारे खाक हो गये। मुंतज़िर अल जैदी जेल की सलाखों के पीछे पहुंचने के बावजूद दुनियाभर में हीरो बन गये। बुश पर जूता पड़ा तो सारी दुनिया हिल गई, लेकिन जिस पर जूता पड़ा उसने अपनी झेंप मिटाने के लिए सबसे पहले तो उसे माफ़ किया जिसने जूता मारा था और उसके बाद जूते की तारीफ़ में पड़ दिये कसीदे। जॉर्ज बुश तो लोगों को जूते का नंबर तक बता गये। सबसे खास बात ये है कि ये जूता मीडिया को अच्छा मसाला दे गया। कई-कई दिन जूते और इसकी महिमा बताने में ही बीत गये। ख़बर पर आगे रहने की होड़ में पत्रकारों में भी जूतमपैजार होने लगी। कोई जूते का इतिहास बता रहा था, तो कोई नेताओं को जूते से बचने के नुस्खे सिखा रहा था। लेकिन किसी ने भी जूते के इतिहास पर नज़र नहीं डाली।



पहले ये जूता नेताओं के गले का हार बनता था, बदला लेने के लिए इसे सबसे बड़ा हथियार बनाया जाता था। किसी को सज़ा देने के लिए उसे जूतों की माला पहनाकर बाकायदा गधे पर बैठाकर उसका जुलूस निकाला जाता था। लेकिन जूता सबका इतना प्रिय कैसे बन गया, इसकी इतिहास में आज तक कोई भी मिसाल नहीं मिलती। जूता अब तक कई लोगों पर पड़ा होगा, लेकिन इसको भी चर्चा तब ही मिली, जब इसने दुनिया की महान हस्तियों पर निशाना साधा। पहले बुश पर जूते की नज़रे इनायत हुई, उसके बाद चीन के प्रधानमंत्री वेन जियापाओ जूते का निशाना बने, फिर सबसे सीधे नेता पी चिदंबरम को जूते ने टारगेट पर लिया उसके बाद ये जूता कुरुक्षेत्र पहुंचा और नवीन जिंदल को निशाना बना गया। बुश पर जूता पड़ने पर भले ही दुनिया में कहीं खुशी और कहीं गम का माहौल रहा हो, लेकिन चिदंबरम और जिंदल पर जूता पड़ने की हर किसी ने निंदा की। क्योंकि ये दोनो नेता न सिर्फ़ बेदाग हैं, बल्कि इनकी इमेज पर कोई भी उंगली नहीं उठा सकता। हां जूता अपने गलत इस्तेमाल पर ज़रूर आंसू बहा रहा है। दूल्हे की सालियों के हाथ में रहने वाला जूता किसी नेता पर पड़ने के बाद सुर्खियां तो बहुत बटोरता है, लेकिन उसके बाद उसके हाल पर आंसू बहाने वाला कोई नहीं। जूता किस हाल में है इसकी किसी को भी फिक्र नहीं रहती। हर कोई जूते का क्रेडिट लेने में लगा रहता है। लेकिन जूते का कहना यही है कि उसका अब तक का सबसे खराब इस्तेमाल यही रहा कि उसे नेताओं पर इस्तेमाल किया गया। इसमें जूते को भी अपनी शान में गुस्ताख़ी नज़र आई, अरे भई उसकी नज़र में भी नेताओं की उतनी ही इज़्ज़त है, जितनी आम आदमी की नज़र में। कोई शक नहीं अपनी इस बेईज्ज़ती के लिए अब जूता मानहानि का दावा न कर दे। जूते को सबसे ज्यादा खुशी उसी वक्त होती है, जब वो नये-नवेले दूल्हे के पैर में होता है। सालियां इस बहाने दुल्हे की जेब पर डाका डालने में लगी रहती है, जूता बड़े जतन से छुपाया जाता है, सालियां अपने जीजा जी से जूते के बदले नेग हड़पने में लगी रहती हैं। और जूते मियां भी इस चकल्लस में खूब मज़ा लेते हैं। लेकिन जूते का सबसे बड़ा दुख ये है कि लोग उसे चोरी करने का भी मौका नहीं छोड़ते। मंदिर-मस्जिद हो या गुरुद्वारे हर कोई वहां से जूते उड़ाने में लगा रहता है। दुनियाभर में सुर्खियां बनने के बाद जूता भले ही आंसू बहा रहा हो, लेकिन जैदी, जरनैल और राजपाल तो हीरो बन ही गये।