अबयज़ ख़ान
इस प्यार को कोई नाम न दो.. इस एहसास को कोई नाम न दो.. इस जज़्बात को कोई नाम न दो... मगर ये कैसे मुमकिन है... जब एक ज़िंदगी दूसरी ज़िंदगी से मुकम्मल तरीके से जुड़ी हो... आंखो में लाखों सपने हों... दिल में हज़ारों अरमान हों... हज़ार ख्वाहिशें हों... फिर कैसे कोई नाम न दें... एक ही सफ़र के दो मुसाफिर थे... कुछ दूर चलकर बेशक रास्ते बदल गये हों... लेकिन मंज़िल तो एक ही थी... मकसद भी एक ही था... सुबह के सूरज की पहली किरन की तरह उसका एहसास था... शाम की लाली की तरह उसके उसके रंग थे... बदलते मौसम की तरह उसकी छुअन थी... हर एहसास अपने आप में अनूठा था.. हर जज़्बात के पीछे एक पूरी ज़िंदगी थी...

उसकी महक से सारा जहान महक उठता था.. उसके आने से ही हवाएं भी मदमस्त होकर चलती थीं... उसके आने की जब ख़बर महकी, उसकी खुशबू से मेरा घर महका... उसकी खुशबू से मेरा मन महका... ज़िंदगी फूल की पत्तियों की तरह और नाज़ुक हो गई... दिन पहले से और बड़े लगने लगे... इंतज़ार और भी बेहतरीन लगने लगा... वक्त की शायद इफ़रात हो चुकी थी... तमाम उम्र भी कम लगने लगी... सात जन्म भी कम लगने लगे... उसके आने की ख़बर से ही दिल बेकरार होने लगता... उसके जाने की ख़बर से बेचैनियां बढ़ जातीं... मुझे सरे-राह कोई मिला था... और मेरी ज़िंदगी में दाखिल हो चुका था... अगले जन्म में भी उसके साथ के लिए दुआएं होने लगीं...

ज़िंदगी फिर से बदल चुकी थी... सांसो की रफ्तार वक्त के साथ बदलने लगी... अब पहले से ज्यादा रवानगी आ चुकी थी... आंखो से उदासी गायब हो चुकी थी... ज़िदगी और भी हसीन हो चुकी थी... मौहब्बत ने अदावत को शिकस्त दे दी थी... हसरतें हिलोरें मारने लगीं... मन करता था, कि दुनिया की निगाहों से बचने के लिए समंदर को पार कर जाएं... और ये समंदर इतना बड़ा हो जाए, कि हमारी ज़िदगी के साथ-साथ चलता रहे... कभी ख़त्म न हो और अपने आगोश में समा ले... दुनिया के रंग अब और भी खूबसूरत लगने लगे थे.... तमाम कायनात से मौहब्बत होने लगी... उजड़े दयार में उसके कदम ऐसे पड़े, कि सबकुछ जन्नत नज़र आने लगा...

फूल इतने खूबसूरत लगने लगे, कि उसमें से ग़ज़ल निकलने लगी... उर्दू से बेपनाह मौहब्बत हो गई... उसकी छोटी-छोटी खुशियां जान से भी ज्यादा प्यारी लगने लगीं... मन करता कि काश अपनी एक अलग दुनिया हो, जहां कोई रोक-टोक न हो... जहां सबकुछ अपनी मर्ज़ी से हो... जहां किसी की दख़लअंदाज़ी न हो... जहां उसके साथ सिर्फ़ मैं हूं... और इसके सिवा कुछ भी नहीं... कुछ भी नहीं... सिर्फ़ हो तो बस इश्क की कैफियत... मौहब्बत का एक खुशनुमा एहसास.... हमारे दरम्यान न उदासी हो... न तन्हाई हो... अगर हो तो सिर्फ़ एक खुशनुमा एहसास... रंग भरा एहसास...एक हल्की सी छुअन...

लेकिन शायद ये सबकुछ इतना आसान नहीं था... मकतबे इश्क में हमने एक ढंग ही निराला देखा... उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ.... अब हर तरफ़ सन्नाटा है... ऐसा लगता है, जैसे वक्त से पहले पतझड़ आ चुका हो... पेड़ों से पत्ते सब झड़ चुके हैं.. मौसम करवट बदल चुका है... लेकिन अफ़सोस ये कि बसंत भी तो नहीं आया... अब न फूलों से ग़ज़ल निकलती है... न उर्दू से मौहब्बत है... न सांसों में पहले की तरह रवानगी है... अब समंदर से भी डर लगता है... अब उनींदी आंखो में सपने भी नहीं आते... अब न रुमानियत है.... न जाने क्यों एसा लगता है जैसे कोई सफ़र में साथ था मेरे... फिर भी संभल-संभल के चलना पड़ा मुझे... अब इंतज़ार है बस फिर से मौसम बदलने का.... और मुझे यकीन है... पतझड़ के बाद फिर से बहार आएगी... और मौसम फिर से पहले से भी ज्यादा हसीन हो जाएगा...
अबयज़ ख़ान
मैं क्या लिखूं... मेरे हाथ आज जवाब दे रहे हैं... दिल बैठा जा रहा है... समझ नहीं आता.. आखिर ऐसा क्यों होता है... जो आपको सबसे प्यारा होता है, ऊपर वाला भी उसी को सबसे ज्यादा प्यार क्यों करता है... आज सुबह जब अमिताभ का फोन आया... तो मेरा जिस्म बेजान हो गया... देर रात सोने के बाद सुबह मैं बेफिक्री की नींद में था.. अचानक फोन बज उठा.. सुबह के पौने आठ बजे थे.. देखा तो अमिताभ का फोन था.. उसकी आवाज़ में भर्राहट थी.. अरे आपने कुछ सुना... क्यों क्या हुआ... अरे सुना है अशोक सर को हार्ट अटैक पड़ा है.. ही इज़ नो मोर.. क्या बात कर रहे हो दिमाग ख़राब है तुम्हारा... नहीं मैं सही कह रहा हूं... अभी शोभना का फोन आया है.. उसने बताया कल्याण सर उन्हें मेट्रो अस्पताल ले गये हैं...

आनन-फानन में मैंने बाइक उठाई और दौड़कर नोएडा में मेट्रो अस्पताल पहुंच गया.. गाड़ी बेताहाशा भाग रही थी... लेकिन अमिताभ की बात पर यकीन नहीं हो रहा था... अस्पताल पहुंचकर अपनी आंखो से उन्हें देख लिया... लेकिन यकीन नहीं हुआ... अरे खुदा ये कैसे हो सकता है... अस्पताल के बेड पर पड़े अशोक जी लग रहा था.. जैसे अबयज़ को देखकर मुस्कुरा पड़ेंगे.. और सीधे बोलेंगे चल यार चाय पीने चलते हैं... लेकिन अशोक सर तो शायद कभी न उठने के लिए ही सोये थे.. मैं इंतज़ार कर रहा था... कि अशोक सर एकदम मुस्कुराते हुए उठेंगे और पूछेंगे तुमने नई नौकरी की पार्टी अभी तक नहीं दी... लेकिन अशोक सर ने तो शायद कसम खाई थी.. कुछ न पूछने के लिए... मैंने तो सोच लिया था.. कि अब उन्हें सिगरेट पीने के लिए भी नहीं रोकूंगा.. लेकिन उन्होंने तो आज सिगरेट पीने के लिए भी नहीं कहा... अचानक उनका बेटा कहता है... पापा उठ जाओ न प्लीज़... चाहे गिफ्ट मत दिलाना... सुनकर मेरी आंखे भर आईं... लेकिन अशोक सर तो अपने बेटे के लिए भी नहीं उठे...
क्रिसमस का दिन बेटा घर पर पापा के आने का इंतज़ार कर रहा था.. और पापा अपने बेटे को बाज़ार लेकर जाने का वादा करके आए थे... लेकिन कौन जानता था... कि ये सुबह तो कभी लौटकर नहीं आएगी... उस 11 साल के मासूम को क्या पता था.. कि उसके पापा इस बार उसका वादा तोड़ देंगे... लेकिन अशोक सर ने मेरा भी एक वादा तोड़ा है... मुझसे उन्होने कहा था.. कि अबयज़ तुम नई जगह जा रहे हो.. हमें भूल मत जाना... मैंने कहा था.. कि सर आपको भला मैं कैसे भूल सकता हूं... मैं अपनी बात पर आज भी कायम हूं... लेकिन अशोक सर तो मुझे अकेला छोड़कर चले गये... मुझे याद है जब वीओआई के शुरुआती दिन थे.. अशोक सर ने ईटीवी हैदराबाद से यहां ज्वाइन किया था... सबसे पहली मुलाकात उनकी मुझसे ही हुई थी... और वो पहली बार में ही मुझे बड़े भाई का प्यार देने लगे थे... ईटीवी के स्टार एंकर रहे उस शख्स की डिक्शनरी में गुरुर नाम के अल्फाज़ की कोई जगह नहीं थी... चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट... किसी रोते हुए को भी हंसा देती थी...

चंद दिनों में भी वो मेरे साथ इतना घुल गये थे.. कि उनके बगैर मुझे भी अकेलापन महसूस होने लगता था... हम लोग आपस में तमाम बातें शेयर करने लगे... रुतबे और उम्र में वो मुझसे बड़े ज़रूर थे.. लेकिन उनका रवैया मेरे साथ एक दोस्त की तरह ही था... शुरुआत में वो हैदराबाद से अकेले ही दिल्ली आए थे... उनकी पर्सनालिटी क्या कमाल की थी... मैंने एक दिन ऐसे ही उनकी बीवी के बारे में पूछ लिया.. फिर तो उन्हेने अपनी पूरी किताब खोलकर रख दी... उनकी लव मैरिज हुई थी.. एक पंजाबी लड़की से शादी करने के लिए उन्होंने क्या-क्या पापड़ बेले... ये भी उन्होने मुझे बताया... लेकिन एक सालह भी दे डाली... बेटे कभी लव मैरिज मत करना... तुम अपने प्यार के लिए अपनी खुशी के लिए अपनी मर्ज़ी से शादी तो कर लेते हो.. लेकिन इससे तुम्हारे मां-बाप की क्या हालत होती है.. तुम अंदाज़ा नहीं कर सकते...

दफ्तर में हम लोग जब भी चाय पीने जाते.. साथ में ही जाते थे.. अशोक सर को सिगरेट पीना होती थी और मुझे चाय... लेकिन अशोक सर सिगरेट बहुत पीते थे... मैंने एक बार उन्हें टोका, कि सर आप इतनी सिगरेट मत पिया करो... तो उनका अपना ही मस्त जवाब था.. वो हर फिक्र को धुएं में उड़ाने में भरोसा करते थे... अरे रहने दे न यार.. कुछ नहीं होता... जिंदगी में ऐश से जीना चाहिए... वैसे भी ये सिगरेट अब मुझसे नहीं छूट सकती... सीमा ने भी कई बार कोशिश की... लेकिन वो भी मेरी सिगरेट छुड़ा नहीं पाई... मैंने जब उन्हें बार-बार टोकना शुरु किया.. तो फिर वो चुपके से अकेले ही सिगरेट पीने चले जाते थे.. अशोक सर की मेरे साथ इतनी यादें जुड़ी हैं.. कि मैं उन्हें एक किताब में भी नहीं समेट सकता... जितने दिन वो मेरे साथ रहे... मैने अपना हर फैसला उनसे पूछकर लिया... वो मेरे हर राज़ के साझीदार थे.. लेकिन मजाल है, कि आजतक उनके मुंह से कोई बात किसी के सामने निकली हो... वो मेरे सारे राज़ अपने साथ ही लेकर चले गये...

लेकिन आज अस्पताल के बाहर सैकड़ों लोगों की भीड़ इस बात का एहसास करा रही थी... कि एक इंसान हमारे बीच नहीं है... आज हमने एक शख्सियत नहीं कोई है.. बल्कि एक इंसान खोया है... वो इंसान जिसने अभी इस दुनिया में चालीस बसंत भी पार नहीं किये थे.. लेकिन इतने कम वक्त में उस शख्स के चाहने वाले इतने थे.. कि अस्पताल के बाहर खड़े होने की जगह भी नहीं थी... लोगों की आंखो से आंसू बह रहे थे... लेकिन मुझे तो अब भी यकीन नहीं था... शाम को शमशान घाट पर आखिरी विदाई का वक्त था... उनका मासूम बेटा अपने पिता की चिता को आग दे रहा था... वो मासूम शायद अभी भी यही समझ रहा था... कि पापा क्रिसमस पर बाज़ार नहीं ले गये तो क्या.. नए साल पर तो ज़रूर ले जाएंगे... लेकिन सच्चाई तो यही थी.. कि उसके पापा नए साल पर क्या अब कभी नहीं आएंगे.. अब वो उससे कोई भी ऐसा वादा नहीं करेंगे... जिसे वो निभा न सकें... लेकिन अबयज़ से कौन कहेगा... कि चल यार चाय पीने चलते हैं...
अबयज़ ख़ान
तुमने तमाम उम्र साथ रहने का वादा तो नहीं किया था.. लेकिन तुम मेरी ज़िंदगी में बहुत आहिस्ता से दाखिल हो गये थे.. मुझे एहसास भी नहीं हुआ. और तुमने मेरे दिल पर हुकुमत कर ली.. मैं तुम्हारी हर अदा और हर इशारे का गुलाम हो गया... हर आहट पर जान देने को तैयार.. हर आह पर मर-मिटने को तैयार... तुममें कुछ तो ऐसा था.. जिसने मुझे मदहोश किया था... कोई तो ऐसी बात थी.. जिसने मुझे दीवाना बना दिया था... सुबह से लेकर शाम तक... हर आहट पर लगता था, कि तुम हो... फिज़ा चलती थी.. तो लगता था, कि तुम हो... पानी में अठखेलियां करते बच्चे हों, या शरारत भरी तुम्हारी कोई मुस्कुराहट... मेरे चारों तरफ़ शायद तुम्हारा एक घेरा बन चुका था... मेरी ज़िंदगी का शायद तुम एक हिस्सा बन चुके थे..

हम एक जान दो जिस्म तो नहीं थे, लेकिन हम हर जज्बात के साथी थे.. हम हर दर्द के साथी थे.. हम हर दुख के साथी थे... हमने हर कदम साथ चलने का वादा तो नहीं किया था.. लेकिन हमने राह में कदम ज़रूर साथ बढ़ाए थे... उसी रास्ते पर जहां हमसे पहले तमाम लोग चलकर निकल गये... ये रास्ता मुश्किलों भरा ज़रूर था.. लेकिन इतना कठिन भी नहीं... हर सुबह की शुरुआत में क्यों लगता था.. जैसे कोई मेरी आंखों पर हाथ रखकर कहता हो... उठो सुबह हो चुकी है.. जागो.. सवेरा हो गया है.. देखो सूरज कितना चढ़ आया है...ऐसा लगता था, जैसे कोई कहता हो, कि देखो तुम अपना ख्याल नहीं रखते हो.. तुम सर्दी में ऐसे ही चले आते हो... तुम कभी अपने बारे में भी सोचा करो...

जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे तुमने मुझे शरारतन हल्की सी चपत लगाई हो और कहते हो, कि जाओ मुझे तुमसे बात नहीं करना.. तुमने कबसे मुझे फोन ही नहीं किया... तुम्हारे पास मुझसे साझा करने के लिए दो अल्फ़ाज़ भी नहीं हैं... आखिर ऐसा क्या हुआ था.. कि अचानक तुम मेरी ज़िंदगी में चुपचाप से दाखिल हो गये.. बिना कोई आहट किये... दिल के दरवाज़े पर कोई दस्तक भी न हुई... और तुम पहरेदार बन गये... मेरे एक-एक पल का हिसाब रखने लगे... मेरी हर घड़ी पर नज़र रखने लगे...दिल की धड़कनों ने भी अब तुम्हारे हिसाब से अपनी रफ्तार तय कर ली... मेरी रफ्तार भी अब तुम्हारी रफ्तार की साझा हो गई... हर कदम उसी रास्ते पर पड़ता, जहां तुम्हारी कदमबोसी हुई थी...
ऐसा क्यों लगता था, जैसे मेरा सबकुछ तुम्हारा हो चुका है... तुम्हारा सबकुछ मेरा हो चुका है... तुम्हारे लिए मेरा ईमान भी मुझसे बेईमानी करने लगा... क्यों मेरा मन कहता था, कि मेरी उम्र भी तुम्हे लग जाए... क्यों दुआओं में सिर्फ़ तुम्हारा ही नाम आता था... क्यों तुम्हारी पसंद मेरी पसंद बन चुकी थी... तुम्हारी किताबों में मुझे अपनी ही इबारत नज़र आती थी.. तुम्हारा होले से मेरे पास आकर मुझे चिढ़ा जाना या मुझसे चुटकी लेकर निकल जाना...क्या ये सब अनजाने में था.. क्यों मुझे लगता है कि तुम मेरा मुस्तकबिल थे.. तुम मेरा मुकद्दर थे... तुम मेरे लिए ज़िंदगी जीने की वजह थे.. तुम मेरे लिए जज्बा थे... तुम मेरा हौसला थे...

मेरी नस-नस ये कहती है, कि तुम्हारे आने के बाद जीने की एक वजह मिल गई थी... तुम्हारी आंख से निकले मोती, क्यों मेरी बेचेनी की वजह बन जाते थे... क्यों मेरा एक दिन गायब हो जाना, तुम्हें बेकरार कर देता था... क्यों एक-दूसरे को देखे बिना हमारा दिन गुज़रता नहीं था... लेकिन न जाने क्यों मुझे आज भी समझ नहीं आता... कि कैसे कोई अजनबी किसी का हो जाता है... फिर कैसे उसी से रूठ जाता है... लेकिन ये भी सच है कि तुम्हारी हया तुम्हारा गहना है... और शायद यही वो वजह थी... जिसने मुझे तुम्हारी सादगी पर फिदा कर दिया... न जाने क्यों मुझे आज भी लगता है, कि तुम आओगे.. फिर से.. ज़रूर आओगे... और होले से एक चपत लगाकर कहोगे, कि तुम्हारा दिमाग ख़राब है.. जो बात-बात पर रूठ जाते हो...चलो मुझे भी तुमसे बात नहीं करना...
अबयज़ ख़ान
उत्तर प्रदेश से तो सभी वाकिफ़ हैं.. उसी का एक हिस्सा है पश्चिमी उत्तर प्रदेश... धन-दौलत से मालामाल... गन्ना किसानों से भरपूर इस इलाके में पैसे की कोई कमी नहीं... रईसी इस इलाके की रग-रग में बसी है... उसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक ज़िला है बिजनौर... इस ज़िले का शुमार सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे ज़िलों में किया जाता है। सबसे ज्यादा सरकारी नौकरीपेशा इसी ज़िले से हैं... बिजनौर ज़िले में ही मौजूद है तहसील चांदपुर... बेहतरीन कस्बा.. शानदार कस्बा... नफ़ासत पसंदों का छोटा सा शहर.. तहज़ीब की चादर ओढ़े.. इस कस्बे में यूं तो हर शख्स खुशहाल है... लेकिन इसी कस्बे में एक मासूम भी है... अज़ीजुर्रहमान का बेटा शकूर... 14-15 साल का एक बच्चा... मासूम इसलिए.. क्योंकि उसपर जमाने ने सितम ढाए... लेकिन उसने उफ़ तक न की... घरवालों ने उसे बेड़ियों में जकड़ दिया... लेकिन उसकी ज़ुबान से कोई अल्फाज़ तक न निकला.. हां अपनी खामोश निगाहों से वो लोगों से इल्तिज़ा ज़रूर करता है.. लोगों को हसरत भरी निगाहों से भी देखता है..

लेकिन दुनिया बड़ी बेदर्द है.. और उस पर तरस खाने वाला कोई नहीं है... बचपन से बेड़ियों में जकड़े इस मासूम के घर की दीवारें भी उसके घरवालों की मुफ़लिसी को बयां करती हैं... सर्दी में भी उसके जिस्म पर एक निकर और एक फटी टी-शर्ट है.. खुले आंगन में ठंड से ठिठुरते उस बच्चे की परवाह शायद किसी को नहीं है... कच्चे घर की कच्ची दीवारों के बीच बेड़ियों में जकड़े शकूर के लिए तो ज़िंदगी किसी नरक से कम नहीं होगी... होश संभालने के बाद उस बदनसीब ने तो सुबह का सूरज बेड़ियों में ही देखा है... उसका दाना-पानी से लेकर सोने, गाने तक सबकुछ बेड़ियों में कट जाता है... लेकिन न तो बेरहम मां-बाप को तरस आता है... न उसके नाते-रिश्तेदारों को... लोग आते हैं.. उसका तमाशा देखते हैं.. और ऊल-जलूल से मशविरे देकर चले जाते हैं... बच्चे आते हैं उसे पत्थर मारकर चले जाते हैं... वो मौहल्ले भर के लिए तमाशा है.. और सब तमाशाई बन जाते हैं... तो कुछ लोग उससे डरे-सहमे उसके पास से भी गुज़रने पर खौफ़ खाते हैं...

इक्कीसवीं सदी में जीने वाले उस मासूम पर भी तरस नहीं खाते.. जिसे न तो अपना होशो-हवास है और न दुनिया का... लेकिन तरस तो उसके मां-बाप पर भी आता है. जो दकियानूसी बातों में पढ़कर अपने बेटे की ज़िंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं... उन नासमझों को किसी ने बता दिया, कि उनका बेटा बीमार है.. उस पर हवा का असर है... उसे भूत-प्रेतों से बचाना होगा... उस पर जिन्नातों का असर है...और उसे पंद्रह साल तक बेड़ियों से बांधकर रखो, तो वो ठीक हो जाएगा... बस उस दिन से उस बच्चे की ज़िंदगी जहन्नुम की मानिंद हो गई... अपने जिगर के टुकड़े को सीने से लगाने वाले मां-बाप ने ही उसके गले में फंदा डाल दिया... इतना होता, तो भी सब्र था... उस नन्हीं जान के गले में फंदा डाला गया.. फिर उसे एक लकड़ी के खंभे से बांध दिया गया.. उसके बाद उस खंभे को ज़मीन में खूंटे की तरह गाड़ दिया... बेज़ुबान बच्चा बेज़ुबान जानवर की तरह खूंटे से बंध गया... जितनी बार वो अपने सिर को हिलाता.. रस्सी उसके गले में निशान बना देती.. फिर उसका सिर ज़ोर से उस लकड़ी के खंभे में लगता... लेकिन वो बच्चा अपना दर्द किससे कहे... और कैसे कहे...

सब देख रहे हैं.. लेकिन उसके दर्द को समझने के बजाए उस पर हंस रहे हैं.. तालियां पीट रहे हैं... भूख लगने पर उसे खाना भी किसी जानवर से बदतर तरीके से परोसा जाता है... सचमुच ख़ुदा भी आसमां से जब ज़मी पर देखता होगा... मेरे बंदे कितने गधे हैं, ये तो सोचता होगा... औलाद के जन्म से पहले जो मां-बाप नीम-हकीमों से लेकर पीर फकीरों तक फरियाद लगा रहे थे.. अब बच्चे की परवरिश के लिए वही मां-बाप फिर उन्हीं नीम-हकीमों और पीर फकीरों के बताए रास्ते पर चल रहे हैं... 13 साल से वो मासूम जानवरों की तरह अपनी ज़िंदगी जी रहा है... लेकिन मुल्ला और पंडित अपनी रोज़ी-रोटी चमकाने के लिए उसकी जान से खेल रहे हैं.... बेज़ुबान शकूर मजबूर है...अक्ल से भी और बंदिशों से भी... लोग उसे पागल कहते हैं... लेकिन हकीकत में पागल तो वो लोग हैं.. जो उसकी नादानी पर हंसते हैं.. जो उस पर पत्थर मारकर चले जाते हैं... जो उसके साथ जानवरों जैसा सलूक करते हैं... उसके मां-बाप को कौन समझाए, कि उसका इलाज बेड़ियां नहीं है.. बल्कि उसे एक अच्छे डॉक्टर की ज़रूरत है, उसे एक प्यारे मां-बाप की ज़रूरत है और उसे ढेर सारे प्यार की ज़रूरत है, ...
अबयज़ ख़ान
कड़कड़ाती सर्दी हो और एक गर्म चाय की प्याली हो तो कहने ही क्या... लेकिन चाय की चुस्कियां रोमांच भरी हों, तो गर्म चाय का मज़ा भी दोगुना हो जाता है... अक्सर आपने भी रज़ाई में दुबककर मूंगफली खाते हुए चाय की चुस्कियां ज़रूर ली होंगी... गुलाबी सर्दी में चाय की ये चुस्कियां सर्दियों की रातों को रूमानी बना देती हैं... ख़ासकर तब जब आप पुरानी यादों में खोये हुए हों.. और कानो में पुराने गाने गूंज रहे हों तो कहने ही क्या... सूरज की पहली किरन के साथ चाय की प्याली से उठती हुई भांप हो और साथ में गर्मागर्म बटर टोस्ट हो, तो उसका लुत्फ़ ही अलग है... लेकिन जिस चाय का जिक्र यहां होने वाला है, वो चाय औरों से ज़रा हटकर है...

वादियों के बीच इस चाय का ज़ायका आपके मुंह को ऐसा लगेगा, कि बस पूछिए मत... दिल से बस यही निकलेगा... वाह चाय..! घर के बाहर आपने होटल या किसी खोमचे पर चाय की चुस्कियां ज़रूर ली होंगी.. लेकिन आप मेरे साथ चलिए समंदर से 3018 मीटर की ऊंचाई पर... हिमालय से सटे बद्रीनाथ... भारत के आखिरी गांव माणा में... जहां चार से पांच डिग्री के टेम्परेचर में चाय पीने का अपना अलग ही मज़ा है... बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर आगे एक चाय की दुकान... जहां से बिना इजाज़त आगे जाना गैरकानूनी है... जहां पहुंचने के लिए आपको कठिन चढ़ाई का सामना करना पड़ेगा.. बर्फ़ की हसीन वादियों से घिरे इस इलाके में कई मंदिर भी हैं...

भारत-चीन सीमा पर बर्फीली सड़क के बीचों-बीच बसे इस गांव में है चाय की एक ख़ास दुकान... जहां अगर आपने एक बार चाय पी ली, तो वो ताउम्र याद रखेगी... न सिर्फ ज़ायके के लिए बल्कि अपनी एक और ख़ासियत के लिए... भारत के आखिरी छोर पर मौजूद इस दुकान का नाम ही पड़ गया, "भारत में चाय की आखिरी दुकान" कड़ाके की ठंड और सफ़र की थकान इस दुकान की एक गर्मागर्म चाय की प्याली से पलभर में छूमंतर हो जाएगी...

दरअसल माणा गांव में ही रहने वाले दिलबर सिंह और उसके भाई की माली हालत जब ख़स्ता होने लगी, तो उन्होंने 1981 में इस इलाके में एक चाय की दुकान खोलने का फैसला किया... और दुकान खोलने के लिए उन्होंने चुनाव किया माणा गांव के सबसे ऊपर व्यास गुफा के पास... जिसके आगे है चीन जाने के लिए बर्फीली सड़क... शुरुआत में कामकाज हल्का ही रहा, लेकिन फिर इस दुकान ने ऐसी रफ्तार पकड़ी, कि जिसने भी माणा पहुंचकर इस चाय की चुस्कियां लीं, उसने इसकी तारीफ़ों के कसीदे पड़ना शुरु कर दिये...और फिर दिलबर सिंह का धंधा चोखा हो गया...

खास बात ये है कि यहां दार्जिलिंग और असम की कड़क चाय मिलती है, तो साथ ही खास हर्बल, तुलसी और घी वाली चाय भी मौजूद है... एडवेंचर के शौकीन लोग जब इस इलाके से गुज़रते हैं, तो भारत में चाय की इस आखिरी दुकान पर आना नहीं भूलते...लेकिन इस दुकान के साथ एक और खास बात जुड़ी है, वो ये कि जब बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं, तभी इस दुकान की रौनक होती है, और जब बद्रीनाथ के कपाट बंद होते हैं, तभी इस दुकान के दरवाज़े भी छह महीने के लिए बंद हो जाते हैं... मतलब साफ़ है कि अगर आप इतनी रोमांचक चाय पीना चाहते हैं, तो आपको बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान के दौरान ही यहां का रुख करना होगा... ज़िंदगी में जब कभी मौका मिले... और अगर अगली बार आप बद्रीनाथ के दर्शनों का प्रोग्राम बना रहे हैं, तो एक बार इस दुकान के दर्शन भी ज़रूर कीजिए... वरना आपको ताउम्र इसका मलाल रहेगा, कि आपने "भारत में चाय की आखिरी दुकान" पर चाय की चुस्कियां नहीं लीं...
अबयज़ ख़ान
रंगीन टीवी पर फिल्म चल रही है राजा हिंदुस्तानी... हर कोई मग्न होकर फिल्म देखने में लगा है... एक शॉट् में हीरो आमिर खान करिश्मा कपूर का चुंबन लेता है... और सीटियां बजने लगती हैं... नाइनटीज़ के आखिर में किसी हिंदी फिल्म का ये सबसे लंबा चुंबन सीन था... आशिकों के दिलों की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं... लड़कियां लरज़ती हुई अपना चेहरा छिपा लेती हैं.... घड़ी रात का एक बजा रही है... आंखे नींद के आगोश में जा रही हैं... तभी कोई आवाज़ लगाता है... अरे कोई लड़की उठकर चाय बना ला... चाय का नाम सुनकर लड़कियां इधर-उधर दुबकने लगती हैं... क्योंकि एक तो रज़ाई में से निकलकर चूल्हा जलाने का अलकस, उसपर फिल्म के छूट जाने का डर... लेकिन बड़े बुज़ुर्गों के आगे उनकी एक न चलती... मरती क्या न करतीं चाय तो बनाना ही पड़ेगी और वो भी एक-दो नहीं, कम से कम तीस-चालीस लोगों के लिए... वो भी बड़ा सा भगोना भरकर...जिसमें चाय, दूध और पानी का संगम होगा... जिसे चाय कम जोशांदा कहा जाए तो शायद ठीक होगा...

नवंबर 1997 की बात है... जब टीवी का चलन बहुत कम घरों में था... और रंगीन टीवी तो खासकर कम देखने को मिलता था। ज्यादातर घरों में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी ही था। टीवी पर फिल्में तो वैसे भी हफ्ते में दो दिन शनिवार और रविवार को ही आती थी... लेकिन क्या करें बिजली आती नहीं थी, तो फिल्म भला कहां देखने को मिलती। लेकिन फिल्म देखने के शौकीनों ने एक ज़रिया निकाल लिया था.. वीसीआर पर फिल्में देखने का। लेकिन इस वीसीआर पर फिल्म देखने का असली मज़ा तो शादियों के दौरान आता था... घर में शादी के बाद जब काम-धाम निपट जाता था और घर में कुछ रिश्तेदार मेहमान ही बच जाते थे, तो शादी की अगली रात को वीसीआर चलाया जाता था। वीसीआर चलता कम था उसका हल्ला ज्यादा होता था। पूरे मौहल्ले भर को पता चल जाता था कि आज फलां घर में वीसीआर चलेगा... बाकायदा किराए पर वीसीआर मंगाया जाता था.. शादी के घर में जनरेटर तो होता ही था, सो लाइट की कोई फिक्र नहीं होती थी।

एक रात में वीसीआर पर तीन फिल्में चलती थीं। इस दौरान इश्किया मिज़ाज लड़कों की चांदी हो जाती थी, ज़रा किसी लड़की ने वीसीआर का जिक्र छेड़ा, जनाब जुट गये वीसीआर का इंतज़ाम करने में। और तो लड़कियों से उनकी फ़रमाइश भी पूछी जाती थी। शोले हर किसी की फरमाइश में सबसे ऊपर होती थी। वीसीआर चलने से पहले ही घर के सारे काम निपटा लिये जाते। इधर घर के बढ़े-बूढे़ सोने गये, उधर शुरु हो गया वीसीआर पर सनीमा... नवंबर की कड़कड़ाती रात थी और वीसीआर पर शुरु हुआ फिल्मों का दौर। पहली फिल्म चली राजा हिंदुस्तानी... तब ये फिल्म रिलीज़ ही हुई थी। घर के सभी लोग आंगन में दरी-गद्दा बिछाकर बैठे थे... ऊपर से लोगों ने टैंट हाउस से आये लिहाफ़ भी लपेट लिये थे। गाना बजा आये हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बनके.. एक ड्राइवर से एक अमीर बाप की बेटी का प्यार... एक मिडिल क्लास के लिए इससे बढ़िया स्टोरी भला और क्या हो सकती थी।

बस फिर क्या था, लड़के खुद को सपने में आमिर खान और लड़कियां खुद को करिश्मा कपूर समझने लगीं। और उनके मां-बाप एक दूसरे के लिए खलनायक...। फिल्म देखते-देखते सपनों में अपनी दुनिया बसाने लगे। फिल्म की पूरी स्टोरी ख्यालों-ख्वाबों में उतर जाती। तीन फिल्मों के बीच में हर फिल्म के बाद इंटरवल होता था। इस दौरान चाय का दौर चलता था। लड़कियां चाय बनाने बावर्चीखाने में पहुंची, पीछे से मटरगश्ती करते हुए मजनू मियां भी कतार में लग जाते थे। अगर गलती से ऑपरेटर ने फिल्म लगा दी, फिर देखिए चाय बनाने वाली का गुस्सा... हमारे बिना आये तुमने फिल्म कैसे चला दी, पता नहीं है, हम चाय बना रहे हैं। बेचारे को फिल्म फिर से लगाना पड़ती थी। इस दौरान ऑपरेटर साहब का भी बड़ा रुतबा होता था, टीवी पर फिल्म लगाकर जनाब खुद तो एक कोने में दुबक जाते थे, लेकिन कोई उनको सोने दे तब न...

शोर मचता था.. अरे तस्वीर तो आ नहीं रही है... अरे इसकी आवाज़ कहां चली गई...? सबसे ज्यादा मज़ा तब आता था, जब कैसेट बीच में फंस जाती थी... बेचारे ऑपरेटर को नींद से उठकर आके फिर से वीसीआर को सैट करना पड़ता था। पहली फिल्म के बाद आधे लोग तो सो जाते थे और तीसरी फिल्म तक तो इक्के-दुक्के लोग ही टीवी सैट पर नज़रे चिपकाए होते थे। लेकिन इस दौरान आशिक मिजा़ज अपनी टांकेबाज़ी को बखूबी अंजाम देने में कामयाब रहते थे। अरे भाई फिर फिल्म देखने का फायदा ही क्या हुआ... फिल्म कौन कमबख्त देखने आया था... असली मकसद तो बारात में आई लड़की से टांका भिड़ाना था। लड़की ने अगर मुस्कुरा कर उनसे बात कर ली, तो समझो भाईजान का रतजगा कामयाब हो गया। सुबह मौहल्ले में सबसे ज्यादा सीना उन्हीं का चौड़ा होता था। लेकिन इस दौरान कुछ कमबख्त ऐसे भी होते थे, जो फिल्म तो कम देखते थे, लेकिन दूसरों की जासूसी करने में लगे रहते थे और सुबह की पौ फटने से पहले भांडा फोड़ दिया करते थे। खैर अब न तो वीसीआर रहा, न पहले जैसे सुनहरे दिन.. अब तो फिल्म से लेकर प्यार-मौहब्बत तक सबकुछ हाईटेक हो गया है।
अबयज़ ख़ान

छड़े हो जी... इस सवाल को सुनकर जैसे कुछ समझ ही नहीं आया... छड़े का मतलब... हमने तो अबतक छड़ी के बारे में ही सुना था... लेकिन ये छड़े क्या है? अरे मेरा मतलब है शादी हुई है या नहीं..? मेरा मतलब कुंवारे हो क्या..? जी मैंने कहा... माफ़ करना जी फिर हम आपको कमरा नहीं दे सकते... हमें फैमिली वालों को ही अपना घर देना है... छड़ों को नहीं देते... ठीक है जैसी आपकी मर्ज़ी... मैंने मकान मालिक को शुक्रिया कहा... और वापस लौट आया... मकान भले ही न मिला हो.. लेकिन एक अल्फ़ाज़ के बारे में जानने का मौका और मिल गया... छड़े... यानि कुंवारे...दिल्ली, हरियाणा, नोएडा, गाज़ियाबाद और मगरिबी सूबे उत्तर प्रदेश में इस तरह की बोलचाल आम है.. अगर आप किराए पर मकान लेने जाएंगे तो ये सवाल आपसे सबसे पहले पूछा जाएगा.... मकान की तलाश के दौरान अक्सर ऐसे ही सवालों से दो-चार होना पड़ता है... कई बार तो सवालों की बौछार इस तरह होती है, जिससे कुछ देर के लिए आपको ऐसा लगेगा कि शायद आपने कोई जुर्म किया है और आपसे पूछताछ हो रही है...

तमाम तरह के सवालात और आपको शक की निगाहों से देखना... कहां के रहने वाले हो..? काम क्या करते हो? नाम क्या है? कितने लोग रहोगे? इससे पहले कहां रहते थे.? पुराना मकान क्यों छोड़ रहे हो..? इस शहर में तुम्हे कोई जानता है या नहीं.? तुम्हारे घर में कौन-कौन रहता है...? वगैरह-वगैरह। अगर आप इन टेढ़े-मेढ़े सवालों का जवाब देकर इस इम्तिहान को पास कर गये, तो समझो आपको मकान मिल गया। लेकिन आपकी टेंशन अभी यहीं ख़त्म नहीं हुई। अभी तो ढेर सारी शर्तें हैं जिनसे आपको दो-चार होना पड़ेगा। देखिये अगर घर में रहना है तो नॉनवेज नहीं चलेगा.. यार-दोस्त नहीं आयेंगे... बिजली का बिल अलग से आयेगा, बावजूद इसके लाइट कम जलाओगे.. प्रेस नहीं करोगे.. वॉशिंग मशीन नहीं चलेगी... रात को जल्दी आना होगा... ज्यादा शोर-शराबा नहीं होना चाहिए... ऐसा लगता है जैसे आपको मकान किराए पर नहीं मिल रहा है, बल्कि मान मालिक आपको मुफ्त में मकान दे रहा है।

बाप-रे-बाप इतनी शर्तें और इतने सवाल.. अगर इतनी तैयारी यूपीएससी के एक्ज़ाम में कर लेते.. तो सेकेंड क्लास अफ़सर तो ज़रूर बन जाते। और अगर आपने गलती से बता दिया कि भईया मैं पत्रकार हूं... आपको किसी तरह की तकलीफ़ नहीं होगी, तो समझो आपको मिलता हुआ कमरा भी हाथ से गया। लेकिन अभी आपकी परेशानियां यहीं ख़त्म नहीं हुई हैं। मकान दिलाने के लिए आपने जिन भाईसाहब की मदद ली थी, अभी तो उनका रोल बाकी था। दरअसल चार साल पहले मेरे साथ ऐसा हुआ कि मैंने एक दुकानदार भाई से पूछ लिया कि भईया यहां कोई मकान किराए पर मिल सकता है। इतना सुनना था कि जनाब की बांछे खिल गईं... अरे क्यों नहीं भाई साहब... ज़रूर मिल जाएगा... मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं... जिनका मकान किराए के लिए खाली है... जनाब ने सबसे पहले मुझे पानी पिलाया... और फिर अपनी मीठी-मीठी बातों से आईने में उतार लिया। मुझे लगा कि इस अंजान शहर में इतने शरीफ़ लोग भी रहते हैं... अल्लाह इनका भला करे।

बस भाई साहब ने अपनी दुकान बंद की और मुझे मकान दिखाने ले गये.. कई मकान दिखाए, जिसमें से एक मुझे पसंद आ गया। इसके बाद, बात हुई किराए की, मकान मालिक ने बड़ा सा मुंह खोला। भला हो दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स का... मकान का किराया भी आसमान पर पहुंच गया। चार हज़ार रुपये का किराया सुनकर झटका सा लगा। हमारे रामपुर शहर में तो चार हज़ार रुपये में नवाब साहब का किला भी किराए पर मिल जाएगा.. फिर ये पचास गज़ में बना दो कमरों का कबूतरखाना और किराया चार हज़ार रुपये। बात इतने तक होती, तब भी ठीक था... इसके बाद जो भाईसाहब हमें मकान दिलाने ले गये थे उन्होने भी मुंह खोल दिया... नकली हंसी निकालकर बोले... हें..हें..हें.. एक महीने का किराया मुझे भी देना होगा... ये मेरा कमीशन है। एक महीने का आप से लेंगे और एक महीने का मकान मालिक से।

इतना सुनकर मेरी तो आंखे फटी रह गईं... अबतक जिन्हे हम अजनबी शहर में अपना अज़ीज़ समझ रहे थे एक झटके में ही वो हमारे लिए दलाल बन गये। समझ नहीं आ रहा था, कि थोड़ी देर पहले हमने इन्हें जो झोली भरकर दुआएं दी थीं, उनका क्या करें.. वापस भी नहीं ले सकते। अब इन्हें गालियां दें... या अपने लुटने पर शर्मिंदा हों... मुफ्त में जेब पर एक महीने का डाका पड़ रहा था। लेकिन वो सेर थे तो हम भी सवा सेर थे... बोल दिया हमें मकान नहीं चाहिए और भाई साहब से पिंड छुड़ाकर निकल गये। फिर चार-पांच दिन बाद हम उसी मकान में पहुंचे... मकान मालिक से बात की कि जनाब मकान चाहिए और अगर उनको बीच में डाला, तो दोनों को ही एक-एक महीने का चूना लगेगा... आप चाहें तो मकान दे सकते हैं... मकान मालिक को भी फायदे का सौदा लगा... और मकान की चाभी हमारे हाथ में सौंप दी.. मकान तो किराए पर मिल गया.. लेकिन इस दौरान जिन दिक्कतों से गुज़रना पड़ा उसकी टीस आज भी बाकी है।
अबयज़ ख़ान

आखिरी विदाई का वक्त था, तो माहौल थोड़ा ग़मगीन होना लाज़िमी था... जिसे अपने खून पसीने से सींचकर आशियां बनाया था, वो डेढ़ साल में ही ज़मीदोज हो गया... जिन सपनो में पंख लगाकर उड़ने की कोशिश की थी, उन्हे एक झटके में ही किसी ने कतर डाला था... तमाम किले बनाए थे... तूफ़ानों से लड़कर अपनी ज़िंदगी का क़तरा-क़तरा कुर्बान किया था.. उसकी एक-एक चीज़ को सहेजकर ऐसे सजाया था, जैसे कोई मां अपनी बेटी के लिए दहेज़ का सामान जुटाती है... एक चैनल से दूसरे चैनल तक ज़िंदगी में कुछ करने का जज़्बा था... दफ्तर में कलीग एक-दूसरे को देखकर जी रहे थे... हर किसी के मन में कुछ नया करने का जज्बा, खासकर उन लोगों के दिल में जिन्होने अभी जर्नलिज्म के पेशे में कदम ही रखा था... जो मीडिया की चमक-दमक देखकर मैनेजमेंट, आईटी, मेडिकल और इंजीनियरिंग जैसे कई ट्रेडिश्नल करियर को बायबाय करके आये थे, लेकिन उनको जो तजुर्बा हुआ उसके बाद तो वो शायद अपने बच्चों को भी कभी इस प्रोफेशन में न आने दें...

उनके सपनो का बुलबुला तो पल भर में बिखर गया था... मुझे अच्छी तरह याद है जब उन लोगों को ऑफ़र लेटर मिले थे, तो उनके चेहरे पर खुशी साफ़ पड़ी जा सकती थी, उनमें काम सीखने की कैसी ललक थी, एक-एक बात को वो बार-बार पूछने आते थे... वो चाहते थे, कि जल्दी-जल्दी सबकुछ सीख जाएं... लेकिन चार महीने में ही उनके सारे ख्वाब चकनाचूर हो गये.. मीडिया की कड़वी हकीकत से वो लोग इतनी जल्दी रूबरू हो जाएंगे, ऐसा तो उन्होने सपने में भी नहीं सोचा होगा... क्या-क्या प्लान बनाए होंगे अपनी ज़िंदगी को लेकर... लेकिन इसमें उन बेचारों का क्या कसूर है... कसूर तो कुकुरमुतों की तरह उगे उन इंस्टीट्यट का है, जिन्होने मीडिया की झूठी चमक-दमक दिखाकर लोगों से पैसे ऐंठ लिए...

वॉयस ऑफ़ इंडिया... यही नाम था उस न्यूज़ चैनल का...था इसलिए क्योंकि अब वो तारीख बन चुका है.. अब उसे लोग सिर्फ़ याद करेंगे... उसके सिवा शायद किसी के पास कोई ऑप्शन भी नहीं होगा.. हम ख़बर हैं बाकी सब भ्रम है.... यही उसकी पंचिंग लाईन थी.. बड़े शहरों में, चौराहों से लेकर मेट्रो स्टेशन तक.. हर कहीं उसके अजीब से विज्ञापन वाले बोर्ड नज़र आते थे... लेकिन एक साल में ही हम ख़बर बन गये.. जब चैनल शुरु हुआ था... तो दूसरे चैनलों की धड़कनें तेज़ हो गईं थी.. हर कोई चाहता था, कि उसे एक बार इस चैनल में काम करने का मौका मिल जाए.. लोगों ने बड़ी तिकड़मे भिड़ाईं कि किसी तरह उनका सपना सच हो जाए.. बस एक बार उन्हें भी वॉयस ऑफ़ इंडिया में काम करने का मौका मिल जाए.. जिनका सपना पूरा हुआ वो खुद को खुशनसीब समझते थे... लेकिन जो बदनसीब यहां तक नहीं पहुंच पाए वो आज खुद को खुशनसीब समझते हैं...

अफ़सोस ये कि आज वो लोग भी हमें फूटी आंख देखना पसंद नहीं करते जो कल तक फोन पर नौकरी लगवाने की गुहार लगाते थे... मैं खुद ऐसे बहुत सारे लोगों को जानता हूं, जो मुझे फोनकर कहते थे, कि बस यार एक बार बात करवा दो.. किसी बॉस से मिलवा दो.. आज वही लोग खुद को हमसे बड़ा और समझदार साबित करने की कोशिश करते हैं... ऐसा नहीं है कि हमारी किस्मत कोयले से लिखी है, और दूसरी जगह काम करने वाले सोने से अपनी किस्मत लिखवाकर आये हैं... या वीओआई में काम करने वाले सभी लोगों की किस्मत एक साथ खराब हो गई.... वीओआई में काम करने के लिए लोगों ने कई बड़े चैनल्स छोड़ दिये। वीओआई में काम करने वालों में भी कोई कमी नहीं हैं। उनके ट्रैक रिकॉर्ड शानदार रहे हैं। ऐसे में वीओआई में काम करने वालों को हिकारत की नज़र से देखना भला कहां की समझदारी है।

कौन नहीं जानता कि इस दौर में कई बड़े चैनल होने का दावा करने वालों को पसीने आ गये... और उन्होने चुपचाप अपने एम्पलॉयज़ को बाहर का रास्ता दिखा दिया... और तो और उन्होने अपने एम्पलॉयज़ को प्रमोशन और इँक्रीमेंट तक नहीं दिया... लेकिन जिनके घर शीशे के हैं वो भी हमारे ऊपर पत्थर उछाल रहे हैं...ये जानते हुए भी कि इससे उनके घर में भी दरारें आयेंगीं... कौन जानता था, कि हिंदुस्तान की तीसरे नंबर की सॉफ्टवेयर कंपनी सत्यम का इतना बुरा हाल होगा... चाहे एफ़एमसीजी हो, एयरलाईन हो या शेयर मार्केट में काम करने वाली दूसरी बड़ी कंपनियां हों.. हर कोई मंदी की मार से जूझ रहा था... अगर चैनल डूबा तो इसकी एक बड़ी वजह तो यही थी, कि ये ऐसे वक्त में लॉंच हुआ जब बाज़ार में मंदी का आलम था.. मार्केट से रेवेन्यु आया नहीं और चैनल लॉस में जाता रहा.. वरना चालीस ओबी वैन के साथ शुरु हुए इस चैनल की इतनी जल्दी ऐसी हालत हो जाएगी, इसका तो किसी को भी गुमान नहीं था...

अपने करियर को हर कोई चार चांद लगाना चाहता है... जो लोग भी वॉयस ऑफ़ इंडिया में आए, वो बड़े लोगों को देखकर ही आए... लेकिन आज लोग हमें बिन मांगे सलाह दे रहे हैं, जो मदद तो नहीं कर सकते, लेकिन चुटकियां ज़रूर ले रहे हैं... आज वीओआई में जो कुछ हुआ, या उसके लोगों के साथ जो कुछ हुआ वो तो ज़िंदगी का एक हिस्सा है, और ऐसा नहीं है कि जो लोग आज हंस रहे हैं, कल उनकी ज़िंदगी में ऐसे दिन न आएं... लेकिन मुझे अफ़सोस उन लोगों के लिए है जिन्होने वीओआई के साथ सपने बुन लिए... अफ़सोस उन लोगों के लिए है, जिन्होने यहां पर अपना घर-परिवार तक बसा लिया... अफ़सोस उन लोगों के लिए है, जिन्होने वीओआई के भरोसे लोन लेकर मकान खरीद लिये.. उनके सामने तो एक तरफ़ कुआं और दूसरी तरफ़ खाई है.. वैसे भी महानगरों में रहने वालों की आधी ज़िंदगी तो किस्तों में कट जाती है... लेकिन ऐसा नहीं है कि सब दिन एक समान होते हैं, कभी के दिन बड़े होते हैं, तो कभी की रातें बड़ी होती हैं.. और वैसे भी अंधेरे के बाद ही सूरज निकलता है... खुदा या भगवान तो सबका होता है.. अगर उसने दुनिया में भेजा है, तो रोज़ी-रोटी का इतज़ाम करना उसकी ज़िम्मेदारी है... चलते-चलते बिन मांगी सलाह उन लोगों के लिए है, जो मीडिया को अपना प्रोफेशन बनाने जा रहे हैं... कोई भी कदम बढ़ाने से पहले एक बार वॉयस ऑफ़ इंडिया का इतिहास ज़रूर पढ़ लेना...
अबयज़ ख़ान

ईद ख़त्म हो चुकी थी और अब घर से दिल्ली रवानगी का वक्त करीब आ रहा था। अम्मी ने बैग में करीब-करीब सारा सामान बांध दिया था। कपड़ों और किताबों के अलावा खाने का भी कुछ सामान बैग में था। फिर वो सुबह भी आई जब दिल्ली जाने का वक्त आया। घर से निकलते वक्त तमाम हिदायतें भी मिलीं। किसी से फालतू दोस्ती मत करना, रास्ते में कुछ खाना मत... वगैरह..वगैरह। अलसुबह हम बस में सवार हुए, घर से कोई सीधी बस दिल्ली नहीं जाती थी, इसलिए हमेशा की तरह पहले मुरादाबाद की बस ली, वहां से आगे दिल्ली की बस में सवार होना था। मुरादाबाद पहुंचे तो दिल्ली की बस भी तैयार मिल गई। अभी तक सफ़र बड़े आराम से कट रहा था। सफ़र लम्बा था, इसलिए मैंने सोचा क्यों न झपकी ही ले ली जाए।

लेकिन एक घंटे के बाद ही अचानक बस रुक गई, मालूम हुआ, कि बस एक रोडसाइड ढाबे पर रुकी है। दिल्ली के रास्ते में पड़ने वाले एक ढाबे पर.... कुछ नाम भी लिखा था, उस पर शायद वैष्णव ढाबा। किसी भी हाईवे या सड़क से आप गुज़र जाईये... थोड़ी-थोड़ी दूर पर आपको कुकुरमुत्तों की तरह उगे ऐसे हज़ारों ढाबे मिल जाएंगे। जिन पर लिखा होता है... काके दा ढाबा, पम्मी दा ढाबा, शेरे पंजाब ढाबा, माता वैष्णो ढाबा, गुलशन ढाबा, मुस्लिम ढाबा वगैरह वगैरह... कुछ ढाबे तो बाकायदा इस बात का दावा करते हैं, कि वो फलाने परिवहन निगम से अनुबंधित हैं। नेशनल हाईवे-24 की सुनसान सड़क के ऐसे ही एक ढाबे पर ड्राइवर ने यूपी रोडवेज़ की बस रोक दी। बस रोकने के बाद ढाबे वाले के साथ ही ड्राईवर और कंडक्टर भी आवाज़ लगा रहे थे, जिस किसी को कुछ खाना-पीना है, वो खाले... अभी आधे घंटे बस ढाबे पर रुकेगी... किसी को टॉयलेट बाथरूम जाना है, वो जा सकता है। एक-एक कर सारी सवारियां बस से नीचे उतर गईं।

ढाबे वाला आवाज लगा रहा था... बीस रुपये में भरपेट खाना खाइये। बीस रुपये की थाली है, जिसमें दाल-चावल रोटी, सब्ज़ी, रायता और अचार मिलेगा। हर कोई अपने-अपने अंदाज़ में आवाज़ लगा रहा था, ग्राहकों को लुभाने की या यूं कहें बेवकूफ बनाने की भरपूर कोशिश की जा रही थी। खाना तो मेरे बैग में ही था, जो अम्मी ने घर से चलते वक्त बनाकर दिया था, तो मैंने सोचा कि चलो एक कप चाय ही पी ली जाए, कुछ सुस्ती ही उतर जाएगी। आगे बढ़कर चाय वाले से एक चाय ली, जो पांच रुपये की थी। लेकिन उस चाय को मुंह में रखते ही ऐसा लगा जैसे कोई बदबूदार और कड़वी चीज़ मुंह में डाल ली हो, चाय के स्वाद से लगा, जैसे ये कई दिन पुरानी हो, उसका ज़ायका बयान करने लायक नहीं है। मैंने फौरन ही चाय पास ही कूड़ेदान में फेंक दी... चाय वाले से उसकी शिकायत की, तो ऐसा लगा जैसे वो मेरे ऊपर चढ़ बैठेगा। लेकिन इस अजनबी जगह में मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा, और अपने पांच रुपये पर अफ़सोस कर बस में वापस आकर बैठ गया।


लेकिन थोड़ी देर बाद अचानक फिर कुछ शोर सा सुनाई दिया। मारो-मारो साले को... आवाज़ सुनकर मैं भी नीचे उतर गया। भीड़ में कुछ लोग एक आदमी को पीट रहे थे और वो बेचारा बचाने की गुहार लगा रहा था... जब वो लोग मारकर चलते बने तो मैंने उससे हमदर्दी के बतौर पूछा... भाई साहब क्या हुआ, ये लोग आपको क्यों मार रहे थे?? इतना कहते ही उस बेचारे की रुलाई फूट पड़ी। कहने लगा भईया हमें क्या पता था... ये लोग चिल्ला रहे थे बीस रुपये में भरपेट खाना खाओ। मैं भी खाने बैठ गया, लेकिन खाने खाने के बाद ये लोग खाने का डेढ़ सौ रुपया मांग रहे थे। हमने कहा भईया आप तो बीस रुपये में आवाज़ लगा रहे थे, तो कहने लगे ज्यादा जबान मत लड़ा... चल पैसे निकाल... मैंने कहा, मैं बीस से ज्यादा नहीं दूंगा... तुम लोगों को बेवकूफ़ बनाकर लूट रहे हो... बस इतना कहना था.. कि सारे लोग मुझे चिपट गये और मुझे मारने लगे। इतना सुनते ही मेरे बदन में कंपकपी छूट गई... मैंने सोचा मैं बड़ा खुशनसीब था, नहीं तो शायद वो चाय वाला मेरी भी ऐसी ही हालत करता। ये तो तस्वीर सिर्फ़ एक ढाबे की है, लेकिन सड़कों के किनारे पर बने ऐसे सैकड़ों-हज़ारों ढाबों का यही हाल है।

इन ढाबों पर बसों के ड्राईवर और कंडक्टर तो मुफ्त में खाना खाते हैं, लेकिन उसके बदले में उनकी सवारियों को बुरी तरह लूटा जाता है। अवैध तरीके से खुले इन ढाबों पर न तो पुलिस छापा मारती है और न ही प्रशासन कोई कार्रवाई करता है। जनता लुटती रहे तो उनकी बला से। उनका हफ्ता बंधा होता है जो तय वक्त पर उनके पास पहुंच जाता है। ढाबे वाले सवारियों से न सिर्फ़ मनमाने दाम वसूलते हैं, बल्कि उनके साथ बाउसरों और गुंडो की एक टीम भी होती है, जो आनाकानी करने वालों को मार-मार कर सबक सिखा देते हैं। उस आधे घंटे के दौरान ढाबे वालों का बस चले तो सवारियों के कपड़े उतार ले। हर चीज़ के दाम बाज़ार से तिगुने और चौगुने वसूले जाते हैं, और जो कोई रेट को लेकर एतराज़ करता है, उसे उनके मुस्टंडे अच्छी तरह से आटे-दाल का भाव समझा देते हैं। जनता आखिर करे भी तो क्या... सरकारें तो गूंगी-बहरी हैं।
अबयज़ ख़ान
पिता और पति.. दुनिया के किसी भी समाज के लिए इनकी वेल्यू एक जैसी ही है... एक मर्द की तमाम ज़िंदगी इन दो अल्फ़ाज़ों का बोझ ढोते-ढोते गुज़र जाती है... समाज में जब रिश्तों को नाम देने का चलन आया होगा, तो किसी को इस बात का गुमान नहीं होगा, कि जितने छोटे ये अल्फ़ाज हैं, उससे दस गुना ज्यादा बड़ी इनकी ज़िम्मेदारी होगी। आप सोच रहे होंगे कि मैं आपको अल्फाज़ों की बाजीगरी सिखाने की कोशिश कर रहा हूं... लेकिन मेरा ऐसा मकसद कतई नहीं है... मेरी कोशिश होती है, कि हर बार कुछ अलग सा लिखूं, बहुत दिन से कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखूं... लेकिन मंदी की मार ने इन दो अल्फ़ाज़ों पर ही लिखने को मजबूर कर दिया..

हुआ यूं कि जब मंदी की मार ने एक पूरे दफ्तर को ही तबाह कर दिया, तो बुरे वक्त में साथी ही एक-दूसरे को दिलासा देने की कोशिश कर रहे थे। हमेशा की तरह मैं टेंशन से दूर रहकर माहौल को हल्का करने की कोशिश कर रहा था... लोग एक दूसरे के साथ हमदर्दी के दो बोल बोलकर साथियों का गम बांट रहे थे। जो लोग अपना घर-बार छोड़कर दिल्ली जैसे अजनबी शहर में थे उनके साथ हमदर्दी कुछ ज्यादा थी। बातचीत के दौरान ऑफिस में ही मेरी एक साथी के मुंह से निकला, यार हम लड़कियों का तो कुछ नहीं, किसी तरह एडजस्ट कर लेंगे, लेकिन तुम लड़कों का क्या होगा... जो घर से दूर एक अजनबी शहर में अपने सपनो का घर बसाने आये थे। उसकी इस बात पर मुझे हंसी आ गई.. मैंने माहौल को हल्का करते हुए कहा, कि हां तुम सही कहती हो, लड़कियों को तो गॉड गिफ्ट मिला है, उनको तो कोई पालनहार मिल ही जाता है...

बचपन से जवानी तक पिता के कंधों पर ज़िम्मेदारी... और जवानी के बाद ये ज़िम्मेदारी बेचारे पति नाम के प्राणी पर आ जाती है। सिर्फ़ हिंदी की एक मात्रा का फर्क है...गौर से देखिए तो पिता में प पर लगने वाली छोटी इ की मात्रा... लड़की के जवान होते-होते पति के त पर लग जाती है... और ये छोटा सा लफ्ज बोझा ढोते-ढोते कमान बन जाता है... लेकिन तीर निशाने पर ही लगता है... अपनी पत्नी की ज़िम्मेदारी निभाते-निभाते ये छोटा सा अल्फ़ाज़ आगे जाकर फिर पति से पिता बन जाता है... और ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है... पति बनकर पहले अपनी हमशीरा के नाज़-नखरे उठाना... फिर जब एक वक्त बाद आपके घर में किलकारियां गूंजने लगती हैं.. तो फिर दूसरी ज़िम्मेदारी आपके सामने हाथ फैलाकर खड़ी होती है... मंदी के इस दौर में अगर एक लड़की की नौकरी चली भी जाती है, तो क्या फर्क पड़ता है..

मां-बाप कुछ दिन बाद अपनी लाडली बिटिया के एक लिए सुंदर सुशील गृहकार्य दक्ष लड़का ढूंढ ही लाते हैं... और मान लीजिए लड़की का रिश्ता जिस लड़के से तय हुआ है, अगर उसकी नौकरी चली जाती है, तो बेचारे गरीब को तो नौकरी के साथ-साथ छोकरी से भी हाथ धोना पड़ता है... फिर चाहे लड़का लाख मिन्नतें करे, लेकिन कोई उस बदनसीब को एक मौका देने को तैयार नहीं होता... हारकर बेचारे को फिर उतरना पड़ता है एक और अग्नि-परीक्षा के लिए। हालांकि कुछ लड़कियां बहुत खुद्दार भी होती हैं, जो चाहती हैं कि वो भी कमाकर अपने हाथ-पैरों पर खड़ी हों और उनके सपनों की भी एक दुनिया हो, लेकिन पति उनको भी ऐसा ही चाहिए जो खूब कमाता हो, जिसका अपना बंग्ला हो, गाड़ी हो, बैंक-बेलेंस हो, जो शादी के बाद हनीमून पर उन्हें विदेश की सैर कराए, और जो उनके सपनों को पंख लगा सके।

क्या है कोई ऐसी लड़की जो किसी निकम्मे लड़के को अपना दूल्हा बनाएगी? या है कोई ऐसा परिवार जो किसी निकट्ठू को अपना दामाद बनाएगा? चाहे लड़की नौकरीपेशा ही क्यों न हो, चाहे उसका परिवार करोड़ो में ही क्यों न खेलता हो। जवाब होगा नहीं.. क्योंकि समाज ने ऐसी परंपरा बना दी है। और इसका पालन वो लोग भी सीना ठोंककर करते हैं, जो समाज में बदलाव की बात करते हैं। पिता और पति के ये दोनो कैरेक्टर लड़कियों के लिए इकॉनॉमिक सपोर्टर का रोल ही नहीं निभाते, बल्कि उन्हे तो उनके सिक्योरिटी गार्ड का रोल भी निभाना पड़ता है... पहले पिता अपनी बेटी के साथ साया बनकर चलता है, फिर मियां अपनी बेगम को ज़माने भर की निगाहों से बचाने में लगे रहते हैं। हालांकि मैं खुद इससे इत्तेफाक नहीं रखता, क्योंकि आज की लड़कियां इतनी कमज़ोर नहीं हैं, कि उन्हे किसी सिक्योरिटी गार्ड की ज़रूरत पड़े... इसके लिए आदिम युग का वो समाज ज़िम्मेदार है, जिसने हमेशा उनकी आज़ादी पर लगाम लगाने की कोशिश की है। और मर्द ज़ात का खौफ दिखाकर उनके अरमानों का गला घोंटा है। हालांकि इसमें बेचारी लड़कियों का कोई दोष नहीं है, ये तो समाज ही इतना गब्दू है.. कि आज भी सब चलता है से आगे ही नहीं बढ़ना चाहता....।
अबयज़ ख़ान

रोज़ की तरह दफ्तर में ख़बर को लेकर अफ़रा-तफ़री मची थी... सुबह, सुबह वैसे भी ख़बरों का टोटा होता है, लिहाज़ा हर ख़बर को स्क्रीन पर उतारने की जल्दबाज़ी रहती है। अचानक एक ख़बर पर नज़र पड़ी, पहले तो कुछ खास नहीं लगा। लेकिन फिर ध्यान आया कि कम से कम इसके विज़ुअल्स तो देख ही लिए जाएं... ख़बर थी, कि राजस्थान के प्रतापगढ़ में भेरूलाल नाम के एक शख्स को सपना आया, जिसमें उसने एक घोड़ा और उसके पैरों के निशान देखे। सपने में उसके देवता रामदेव ने उसे गांव में मंदिर बनाने का आदेश भी दिया। भेरूलाल ने सुबह उठते ही गांववालों को इस सपने के बारे में ख़बर दी, सपने के मुताबिक उसे गांव में ही एक छोटा सा घोड़ा और उसके पैरों के निशान भी मिल गये।

बस फिर क्या था, भेरूलाल और गांव वाले फटाफट मंदिर बनाने में जुट गये। लेकिन जैसे ही ये ख़बर जंगल में आग की तरह फैली, सरकारी अमला भी गांव में पहुंच गया। लेकिन गांव वाले जिद पर अड़े थे, कि मंदिर तो ज़रूर बनाएंगे, आखिर भगवान खुद उनके द्वार पर जो आये हैं। लेकिन उस भेरुलाल को ये कौन समझाए, कि जिस सपने की बात वो कर रहा है, वो है तो ठेठ देसी, लेकिन उसके तार चाईना से जुड़े हैं। अब इन नासमझो को कौन समझाए, कि भईया ये एक छोटा सा प्लास्टिक का घो़ड़ा है, जो बच्चों के खेलने के काम आता है। और तो और उस घोड़े के पेट पर लिखा भी है मेड इन चाईना..

लेकिन आस्था के अंधविश्वास में डूबे इन गांव वालों को कौन बताए, कि भईया, ये किसी ड्रामेबाज़ का ड्रामा है... भ्रमजाल से बाहर निकलो.. हो सकता है किसी ने शरारतन गांव में प्लास्टिक का ये खिलौना डाल दिया हो। भगवान के बंदों कुछ तो दिमाग लगाओ... लेकिन शायद उन लोगों की अक्ल तो कहीं चरने चली गई थी। पुलिस-प्रशासन ने लोगों से लाख मिन्नतें की भगवान के नाम पर भगवान का मज़ाक मत बनाओ... कम से कम भगवान से तो डरो... लेकिन कोई सुनने के तैयार कहां... घोड़ा भी सोच रहा होगा, कि मेरे चक्कर में तो ये गांव वाले गधे बन चुके हैं।

गांव में चीन से आये घोड़ेनुमा भगवान की यात्रा निकाली गई, उसके पदचिन्हों की पूजा कर आरती की गई... लेकिन भगवान के ये बंदे कैसे समझें... कोई इसे बाबा रामदेव का चमत्कार बता रहा था.. तो कोई इसे भगवान का करिश्मा... आस्था में बहके लोगों के कदम ऐसे बहके, कि वो सरकारी अमले से भी दो-दो हाथ करने को तैयार हो गये। बाबा के कथित आदेश के बाद भेरूलाल तो जुट गया, सपने को पूरा करने में... गांव में ढोल-मंजीरों पर लोग नाचने लगे, भेरूलाल का सपना सच हो रहा था, ऐसा लगा जैसे धीरूभाई अंबानी किसी से कह रहे हों, दुनिया कर लो मुट्ठी में।

गांव में भेरूलाल.. अंबानी के नक्शेकदम पर चल रहा था... उसका सपना सच हो रहा था... गांव वाले अड़ गये कि अगर सरकारी ज़मीन पर मंदिर नहीं बना, तो हम अलग से ज़मीन लेकर मंदिर बनाएंगे। 33 करोड़ देवी-देवताओं के इस संसार में अब इन देवता को क्या नाम दिया जाए, समझना ज़रा मुश्किल है... करीब पांच साल पहले मध्य प्रदेश के बैतूल से भी एक ख़बर आई थी। जिसमें कुंजीलाल नाम के शख्स ने खुद की मौत का वक्त मुकर्र किया था, लेकिन तय वक्त पर जब उसकी मौत नहीं आई, तो उसनेये ख़बर फैला दी थी, कि मेरी बीवी ने मेरे लिए व्रत रखा था, जिससे खुश होकर भगवान ने मुझे जीनवनदान दे दिया। और इस चक्कर में मीडिया की काफ़ी फ़ज़ीहत हुई थी। खुदा से दुआ है, कि लोगों से चाहें धन-दौलत छीन ले, शक्ल-सूरत ले ले, लेकिन उन्हें अक्ल ज़रूर दे दे। कम से कम इसी से देश का कुछ तो भला होगा।
अबयज़ ख़ान

हर अहद में हर चीज़ बदलती रही लेकिन

एक दर्द-ए-मोहब्बत है जो पहले की तरह है।


प्यार का कोई इतिहास तो नहीं है, लेकिन इसका दर्द हमेशा एक जैसा ही है। अगर माना जाए, तो प्यार की शुरुआत दुनिया में आदम और हव्वा के ज़माने से हुई थी। लेकिन प्यार की मिसाल में किसी का नाम आता है, तो विदेश में रोमियो और जूलियट, तो हिंदुस्तान में लैला-मजनू और शीरी-फ़रहाद को प्यार की बेमिसाल मूरत माना जाता है। अपने प्यार के लिए इन्होंने दुनिया की तमाम बंदिशों को हंसते-हंसते पार कर लिया। अपने महबूब के लिए ज़माने के तानों से लेकर गोलियां तक खाईं, लेकिन प्यार का एहसास और दर्द कभी कम नहीं हुआ। तमाम मौसम बदले, रुत बदलीं, वक्त बदला, लोग बदले, लेकिन वो मीठा सा प्यार कभी नहीं बदला।

जब कोई आपसे प्यार का एहसास करता है, तो दिल में एक अजीब से हलचल होती है। कभी-कभी सपनों में किसी की छुअन महसूस सी होती है। कभी-कभी लगता है कि दुनिया में इसके सिवा कुछ भी नहीं है, दुनिया में सबसे हसीन अगर कुछ है, तो सिर्फ़ आपका महबूब और आपका प्यार है। फिर ज़माने की परवाह किसे होती है। आपका प्यार आपसे जितना दूर जाता है, उससे अपनेपन का एहसास और भी बढ़ जाता है। बदलते मौसम के साथ पल-पल प्यार के रंग भी बदलते हैं.. दुनिया और सपनीली हो जाती है... मन में कुछ-कुछ होता है, कई बार लगता है कि ये ज़मीन और आसमान एक क्यों नहीं हो जाते, कई बार दिल चाहता है कि सारा जहान झुककर आपके कदमों में आ गिरे।


बसंत के हसीन मौसम में प्यार को पंख लग जाते हैं। अपने महबूब के साथ सपनों की दुनिया बसाई जाती है... लेकिन वक्त बदला तो प्यार का अंदाज भी बदल गया। बाग-बगीचों और प्रेम पत्रों से निकलकर प्यार रेसत्रां और पार्क में पहुंच गया। लव-लेटर की जगह ई-मेल और एसएमएस ने ले ली... मोबाइल पर बतियाने का जो दौर शुरु होता है, वो घंटो तक चलता है....लंबी बातचीत के बाद भी लगता है, कि अभी तो बात ही क्या हुई है। ऐसे में मोबाइल कंपनियां भी धड़ल्ले से फायदा उठा रही हैं। प्यार के इस एहसास को हर कोई कैश कराने में लगा है। जेब हल्की हो रही है... गर्लफ्रेंड को रिझाने के लिए बाज़ार भी नये-नये नुस्खे ला रहा है।

प्यार का एहसास कराने के लिए वेलेंटाइन डे नाम का एक त्योहार ही चल निकला है। प्यार मॉर्डन हो गया है, लेकिन प्यार करने वाले अब भी ज़माने से नहीं डरते, प्यार पर पहरा लगाने वाले हर दौर में थे और आज भी हैं। आदिम युग में प्यार करने वालों को पत्थर मार-मार कर कुचल दिया जाता था, सलीम और अनारकली को भला कौन भूल सकता है। एक कनीज को अपना प्यार अमर करने के लिए दीवार में चुन जाना कबूल था।... वक्त बदला, सदियां बदली, लेकिन न तो प्यार के दुश्मन बदले, न प्यार का अंदाज़ बदला और न ही प्यार के एहसास में कोई कमी आई। लेकिन अब प्यार पर पहरा लगाने वाले ज़ालिम ही नहीं जल्लाद भी हो गये।

चाहें पश्चिमी उत्तर प्रदेश हो, या हरियाणा, प्यार की ख़ता सिर्फ़ मौत होती है। वहशियाना मौत, ऐसी मौत जिसमें मां-बाप और भाई-बहन ही अपने जिगर के टुकड़ों का क़त्ले-आम कर देते हैं। बात-बात में पश्चिम की नकल कर मॉडर्न होने का दम भरने वाले हम लोग इस मामले में मॉर्डन बनने की कोशिश कतई नहीं करते। मां-बाप अपने बच्चों को तमाम तरह की छूट खुलेआम देते हैं, समाज के ठेकेदार फ्लेक्सीबिलिटी की बात करते हैं, लेकिन जब कोई ज़माने के सामने अपने प्यार का इज़हार करता है, तो यही ज़माना दीवार बनकर खड़ा हो जाता है।

फिर मज़हब और जात-बिरादरी का रोना रोया जाता है। हिंदू और मुसलमान पर बहस होती है, मांगलिक और गैर मांगलिक पर बहस होती है। हरियाणा की खाप पंचायत के फैसलों को कौन भूला होगा, प्यार कर अपनी नई दुनिया बसाने वाले एक युवक को सिर्फ़ इसलिये मार डाला गया, कि उसने एक ही गोत्र में शादी की थी, लेकिन हुआ क्या? खूब हो-हल्ला मचा, लेकिन वोट के ठेकेदारों के मुंह से उफ़्फ़ तक नहीं निकली... लेकिन सलाम है...प्यार के परिंदों को जिन्होंने हर अहद में अपने प्यार को अमर रखा, और ज़माने की हर दीवार को गिरा दिया।
अबयज़ ख़ान
पागलखाने के डॉक्टर ने नये आने वाले मरीज़ का चेकअप किया, मरीज़ डॉक्टर को काफ़ी सेहतमंद लगा तो डॉक्टर ने पूछा तुम तो काफ़ी तंदरुस्त लग रहे हो। पागलखाने कैसे आ गये? मरीज़ ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, डॉक्टर साहब मैं पागल नहीं हूं...मैं बिल्कुल ठीक हूं। दरअसल कुछ अरसा पहले मैंने एक बेवा से शादी की थी। उस औरत की एक जवान बेटी थी, वो अपनी मां यानि मेरी बीवी के साथ मेरे ही घर में रहती थी। इत्तेफ़ाक से मेरे बाप को वो लड़की पसंद आ गई। उस लड़की से मेरे बाप ने शादी कर ली। इस तरह मेरी बीवी मेरे बाप की सास बन गई। कुछ महीने बाद मेरे बाप के घर एक लड़की पैदा हुई, वो रिश्ते में मेरी बहन हुई क्योंकि मैं उसके बाप का बेटा था। दूसरी तरफ़ वो मेरी नवासी भी थी, क्योंकि मैं उसकी नानी का शौहर था।

इस तरह मैं अपनी बहन का नाना बन गया। कुछ महीनों बाद मेरे घर मेरी बीवी को लड़का पैदा हुआ। एक तरफ़ मेरी सौतेली मां मेरे बेटे की बहन लगती थी, दूसरी तरफ़ मेरी सौतेली मां मेरे बेटे की दादी भी लगती थी। इसलिए मेरा बेटा अपनी दादी का भाई बन गया। डॉक्टर साहब ज़रा सोचो मेरा बाप मेरा दामाद है और मैं अपने बाप का ससुर। मेरी सौतेली मां मेरे बेटे की बहन है। इस तरह मेरा बेटा मेरा मामू बन गया और मैं अपने बेटे का भांजा। डॉक्टर ने दोनों हाथों से अपना सर पकड़ा और चिल्लाकर कहा मेहरबानी करके मुझे बख्श दे, वरना मैं पागल हो जाऊंगा...

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अबयज़ ख़ान

दरवाज़े पर टकटकी लगाए आंखे एक अदद चिट्ठी का इंतज़ार करती हैं... मन करता है कि साइकिल की घंटी सुनाई पड़े और दौड़कर दरवाज़े पर चले आयें, शायद कोई चिट्ठी आई हो, शायद कोई संदेशा आया हो, शायद कोई अपना हो, जिसने हाले-दिल लिखकर भेजा हो... लेकिन न तो साईकिल की घंटी सुनाई पड़ती है, और न ही डाकिया बाबू नज़र आते हैं... अब कोई आता है, तो मोबाइल पर फोन की घंटी, एसएमएस और ई-मेल... टेक्नोलॉजी की दुनिया ने उन सुनहरे दिनों को कहीं पीछे छोड़ दिया है, जब हफ्तों इंतज़ार के बाद एक ख़त आता था... दूर देश से आई इस चिट्टी में इतना कुछ होता था, कि पढ़ते-पढ़ते कभी आंख नम हो जाती थी, तो कभी सारे जहान की खुशियां एक चिट्ठी में सिमट आती थीं...

चिट्ठी अपने साथ खुशियां लाती थी, किसी को मुन्ने का हाल सुनाती थी, तो किसी को नौकरी का संदेशा देती थी, बूढ़े मां-बाप को बेटे के मनीऑर्डर का इंतेज़ार होता था, जिसमें पापा के आशीष के साथ चंद रुपये भी होते थे... चिट्ठी में दादा-दादी का हाल मिलता था, बॉर्डर पर बैठे लाडले की चिट्टी मिलने के बाद मां की आंखो से ज़ार-ज़ार आंसू बहते थे... किसी की शादी का दावतनामा होता था, तो कोई अपने प्यार को हाले-दिल लिखता था... नये साल पर ढेर सारे ग्रीटिंग कार्ड पहले से ही भेज दिये जाते थे... गर्मियों की छुट्टियों से पहले ही फटाफट नानी को संदेशा भेजते थे, इस बार गर्मियों की छुट्टियों में आ रहे हैं... उस छोटी सी चिट्ठी में नानी के लिए ढेर सारी फरमाइशें होती थीं...

गली में गुज़रते डाकिया बाबू के हाथ में अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड का बंडल देखकर मन हिलोरें मारने लगता था... पंद्रह पैसे का एक पोस्टकार्ड पंद्रह दिन का हाल सुना जाता था... कई बार तो बैरंग ही लेटर आते थे, जब डाकिया बाबू को उसके लिए दो से पांच रुपये तक भी देना पड़ते थे, लेकिन चिट्ठी के उतावलेपन में पैसे खर्च करने का भी कोई गम नहीं। कई बार तो लोग शरारत में भी बैरंग चिट्ठी भेज दिया करते थे... लेकिन एक अदद कागज़ के पुरज़े के लिए ये शरारत भी बड़ी मस्त लगती थी... चिट्ठी का इंतज़ार इतना होता था, कि कई बार तो लिफ़ाफे को देखकर ही उसका मज़मून समझ में आ जाता था... उस वक्त दूरियां बहुत थीं, लेकिन पंद्रह-बीस दिन में आने वाली उस चिट्ठी को पढ़कर ऐसा लगता था, जैसे सबकुछ इस छोटे से कागज के पुरजे में सिमट आया हो...

घर में या आस-पास कहीं कोई लेटर आता था, तो सबसे पहले हम उस पर से डाक टिकट छुटाने में जुट जाते थे, अजब शौक था डाक टिकट इकट्ठे करने का... कई बार तो शरारतन हम उन्हीं टिकट को लिफ़ाफे पर लगाकर फिर से पोस्ट कर देते थे.... मौहल्ले में हमारे कई लोग ऐसे भी थे, जिन्हें ख़त लिखना या पढ़ना नहीं आता था, ऐसे लोगों के लिए समाजसेवा करने में हम हमेशा आगे रहते थे, किसी की चिट्ठी लिखने और पढ़ने में जो लुत्फ़ आता था, उसका अपना अलग ही मज़ा होता था... रात को घंटो बैठकर चिट्ठियां लिखने की कोशिश करते थे, कई बार पसंद नहीं आती थी, तो फाड़कर फिर से लिखते थे... रोज़ सुबह उठते ही एक अदद ख़त का इंतज़ार होता था...

उसी दौर में पंकज उदास की एक ग़ज़ल चिट्ठी आई है...आई है... वतन से चिट्ठी आई है.. ने खूब धूम मचा रखी थी, जितनी बार उसे सुनते थे, आंख नम हो जाती थीं, लगता था हमारी भी कोई चिट्ठी आयेगी, जिसमें ऐसा ही दर्द भरा हाल होगा.. मुनिया की शरारत होगी, पापा का ढेर सारा प्यार होगा... दादा-दादी और नाना-नानी की दुआएं होंगी... लेकिन जब चिट्ठी नहीं आती थी, तो बैचेनी बढ़ जाती थी, साईकिल की घंटी की आवाज़ सुनाई दी, तो सब काम छोड़कर गली में दौड़ लगाते थे, शायद कोई चिट्ठी आई है... डाकिया बाबू की पैंट पकड़कर बार-बार पूछते थे, अंकल हमारी चिट्टी कब आयेगी? लेकिन तब बड़ी मायूसी हाथ लगती थी, जब न कोई चिट्ठी और न कोई संदेश आता था...

लेकिन अब हर तरफ़ सूनापन है... सरकारी कामकाज न हो, तो शायद डाकखाने तो अब तक बंद हो गये होते... मोबाइल क्रांति और नेट ने रिश्तों के तार बेशक जोड़े हों, लेकिन अब संवेदनाएं कहीं मर सी गई हैं... रिश्तों के खालीपन को बातों से भरने की कोशिश ज़रूर करते हैं... लेकिन हाले-दिल बयां करने का जो काम एक चिट्ठी कर सकती है, वो नेट और फोन के बस की बात नहीं... जाने कहां गये वो पिन कोड, अंतर्देशीय पत्र और पोस्टकार्ड... जाने कब लौटेगा डाकिया बाबू का वो सुनहरा दौर.. जब घर पर कोई चिट्ठी आयेगी...
अबयज़ ख़ान
महीने की पहली तारीख़ गुज़र गई, लेकिन एकाउंट में पैसा अभी तक नहीं पहुंचा था। एक-एक दिन पहाड़ जैसा लग रहा था। जेब पूरी तरह खाली थी, पेट भरने से ज्यादा किस्तें अदा करने की फिक्र थी। खाना खाये बगैर भूखे रह लेंगे, लेकिन चैक बाउंस होने के बाद जो हालत होगी, उसके बारे में सोचकर ही रूह कांप जाती है। अब पहले जैसा तो ज़माना रहा नहीं, जो सारे प्लान रिटायरमेंट के बाद करना पड़े, जिंदगी बहुत फास्ट हो चुकी है। ज़माना बदल चुका है। आज के नौजवान रिटायर होने का इंतेज़ार नहीं करते। ज़िदगी में सब कुछ जी लेने की चाहत में दिन-रात हाड़ तोड़ मेहनत हो रही है। सुबह से शाम तक धूप में पसीना बहाने के बाद भी लगता है बहुत कुछ बाकी रह गया है।

जब छोटे थे, तो हमारे अंकल ने रिटायरमेंट के बाद मिले फंड से पहले बेटी की शादी की, उसके बाद बचे पैसे से अपने लिए एक छोटा सा मकान खरीदा। बाकी की सारी ज़िंदगी पेंशन पर गुज़ार दी। पहले के लोग मकान का सपना रिटायरमेंट के बाद ही देखते थे। लेकिन आज ज़माना रफ्तार का है। रिटायरमेंट का इंतेज़ार नहीं होता। आजकल के लड़के नौकरी के साथ ही छोकरी की तलाश भी शुरु कर देते हैं। इंतेज़ार तो बिल्कुल भी नहीं, अब शादी की ज़िम्मेदारी मां-बाप के कंधों से लेकर खुद ही निभाने लगे हैं। इधर नौकरी मिली, उधर सात फेरे लेने की तैयारी, शादी के बाद मकान का सपना, और इस सपने को देखने में बिल्कुल भी लेट-लतीफ़ी नहीं। क्योंकि अब सपने देखे नहीं जाते, बल्कि बनाये जाते हैं। अब मकान के लिए पैसा जमा करने की दिक्कत नहीं, पैसा बांटने वाले तो शहर के हर कोने पर खड़े हैं। रात-दिन कभी भी, किसी भी वक्त आपको फोन करके पैसा बांटने की फिराक में रहते हैं

कर्ज़ के पैसे से सपनों का मकान खड़ा होता है, तो अगला क़दम होता है गाड़ी खरीदने का। इधर बात मुंह से निकली उधर घर के गैराज में चमकती हुई गाड़ी, आपके बुज़ुर्गों को मुंह चिढ़ाती है, ये देखो, तुम जो काम ज़िंदगी भर नहीं कर पाये, वो तुम्हारे लड़के ने कितनी तेज़ी से कर डाला। गाड़ी के बाद घर की दूसरी चीज़ों को खरीदना तो और भी आसान है। ज़ीरो परसेंट के चक्कर में लोग ऐसे फंसते हैं, कि फिर तो ज़िंदगी किस्तों में गुज़रती है। बचपन में हमारे अब्बू महीने की पहली तारीख को दूध वाले, मकान मालिक और पड़ोस के लाला का हिसाब-किताब करते थे। लेकिन अब तो महीने की पहली तारीख को आधी से ज्यादा कमाई मकान की किस्त, गाड़ी की किस्त, लैपटॉप, फ्रिज, वॉशिंग मशीन और दूसरी चीज़ों में ही चली जाती है।

ऊपर से अगर वक्त पर किस्त जमा नहीं हुई तो सूद के पैसे अलग। और अगर लोन की एक भी किस्त टूटी तो बाउंसरों के मुक्कों से निपटने को तैयार रहो। सोने पर सुहागा ये कि अगर आपके घर में छोटे से साहबज़ादे हैं तो उनके स्कूल की नर्सरी की फीस इतनी होती है, जितने में आप स्कूल से कॉलेज तक ऐशो-आराम करके निपट गये थे। ऊपर से अख़बार, केबल, टेलीफ़ोन, गैस, बिजली-पानी के बिल सो अलग। किस्तें जमा करते-करते ज़िंदगी कमान बन जाती है। जिस ऐश के लिए ये सब कुछ किया था, वो तो कोसों तक नज़र नहीं आता। किस्तों में जमा हुए इस ऐशो-आराम पर कई बार आपको रश्क तो बहुत होता होगा, लेकिन आपके बाद बच्चे आपको सिर्फ़ इसलिए याद करेंगे, कि हमारे पापा ने विरासत में किस्तों का महल छोड़ा है।
अबयज़ ख़ान
मंदी, महंगाई और मेहमान... तंगी के इस दौर में जेब खाली है, आम तो आम गुठलियों के दाम भी नहीं मिल रहे हैं। बाज़ार में फलों का राजा पूरी धौंस के साथ बिक रहा है। 10 से 15 रुपये किलो वाला आम 50 से 60 रुपये किलो बिक रहा है। सब्जियों का राजा आलू तो और भी कमाल कर रहा है। दाम आसमान पर हैं, आलू दम ने लोगों का दम निकाल रखा है। तो प्याज ने आंसू निकाल रखे हैं। दाल ने कमर तोड़ दी, सो अलग। बैंगन के भाव ज़रा मार्केट में कम होते हैं, वर्ना शायद बैंगन भी आसमान पर होता। अब सब्जी महंगी, दाल महंगी और खाने के बाद मुंह मीठा करने वाले आम का जायका भी कड़वा हो गया है। घर में थाली का साइज सिकुड़ रहा था, तो किचन में भी सन्नाटा पसरा था।

फ्रिज भी खाली हो चुका था। अब तो उसमें पानी भी नहीं भर सकते, क्योंकि अनमोल पानी का भी मोल हो चुका था। क्या खाएं और क्या न खाएं, यही सोचकर दिमाग भन्ना गया था। हम तो मियां भाई हैं, सो मुर्गे की लात भी खा सकते हैं, लेकिन सावन में अपने दूसरे भाई लोग क्या करें। मर्गे की खाल उधेड़ना है, तो सावन निकलने का इंतज़ार तो करना ही होगा। बाज़ार में मंदी ने जान निकाल ली है। नौकरियों पर तलवार लटक रही है, सैलरी का पता नहीं है। ऊपर से कंगाली में उस वक्त आंटा गीला हो गया, जब घर पर बिन बुलाए मेहमान धमक पड़े। पहले दिन तो मेहमान का बड़ी गर्मजोशी से इस्तकबाल किया, एक-दो दिन उनकी खूब खातिरदारी भी की, लेकिन मेहमान ने तो घर में डेरा डाल लिया था।

उंगली पकड़कर जनाब पहुंचे तक पहुंच गये। मेहमान भगवान की जगह आफ़त बन गये। दस दिन तक भी जब उन्होंने जाने का नाम नहीं लिया, तो हम ही उनको भगाने की तरकीबें ढूंढने लगे। घर से बाहर दिल्ली शहर में हम दोनों भाई परेशान कि आखिर इस मेहमान से कैसे पिंड छुड़ाया जाए। बातों-बातों में मेहमान को कई बार समझाया, कि भईया तुम कब दफ़ा होगे, कब छोड़ेगे हमारी जान? लेकिन मेहमान भी पूरे ढीढ थे। जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। एक दिन हम दोनों भाईयों ने प्लान बनाकर उनसे झूठ बोला कि भईया हमें घर जाना है, तो अब आप भी अपना रास्ता नापो। लेकिन जनाब आसानी से पीछा छोड़ने के मूड में नहीं थे। बोले कोई बात नहीं, आप चले जाइये, मैं यहां अकेला ही रुक जाऊंगा।

आप आराम से अपने घर जाइये, अब हमारा दांव हम ही पर उल्टा पड़ गया। हम लोगों को समझ ही नहीं आया कि अब क्या करें। ये जनाब तो चिकने घड़े बन चुके हैं। पूरे दिन घर में उन्हें सोने और खाने के अलावा कोई काम भी नहीं था। फिर हमने एक और प्लान बनाया, हम दोनों भाईयों ने उन्हें अपने दफ्तर से फोन कर झूठ बोला कि भईया हम लोग शूट पर जा रहे हैं, तो जब आप जाएं, तो घर में ताला लगाकर चाभी पड़ोसी को दे जाएं। उन्होंने कहा ठीक है। इसके बाद हमने राहत की सांस ली, कि चलो पिंड छूटा। दोपहर को जब दफ्तर से काम निपटाकर लौटने लगे, तो सोचा कि चलो एक बार फोन कर पता करें, कि भाई साहब दफ़ा हुए या नहीं, लेकिन ये क्या, जनाब ने फोन उठाया, तो बोले अभी तो नहीं गया हूं, शायद शाम तक जाऊंगा। हमारी तो समझ नहीं आ रहा था, कि अब करें, तो क्या करें। अब घर भी कैसे जाएं, उनसे झूठ तो पहले ही बोल चुके थे, कि हम शूट पर निकल गये हैं। घर जाते हैं तो फंस जाएंगे।

मजबूरन घर जाने के बजाए हमने दिल्ली की सड़कें नापने का फैसला किया, ताकि वो छह बजे तक हमारा घर छोड़ें, और हम अपने घर पहुंचे। छह बजे तक बड़ी मुश्किल से इंतज़ार किया, लेकिन वो तो अब भी पत्थर की तरह जमे थे। हमने उनसे लाख गुजारिश की, कि भईया रात हो जाएगी, आपको तो फिर जाने में दिक्कत होगी, इसलिए दिन छिपे से पहले ही निकल जाओ, लेकिन जनाब टस से मस होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर दिल्ली नाप-नापकर हमारी टांगे टूट रहीं थीं, उधर वो हमारे घर में रखे हुए खाने के सामान पर हाथ साफ़ कर रहे थे। खैर जैसे-तैसे करके रात के ग्यारह बजे उनका फोन आया कि शायद मैं अगले आधे घंटे में निकल जाऊं। हमने थोड़ी राहत की सांस ली, आधा घंटा पहाड़ की तरह लग रहा था। खैर क़तरा-क़तरा करके घड़ी ने साढ़े ग्यारह बजाए। एक और फोन आया, जनाब मैं निकल चुका हूं, मेहमाननवाज़ी के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। हम-दोनों भाईयों को समझ नहीं आ रहा था कि हंसे या रोयें, क्योंकि दिल्ली नापते-नापते पैर दर्द कर चुके थे। भूख से बुरा हाल हो चुका था, ऑटो कर घर पहुंचे, तो फिर दरवाजा खोलकर सीधे बिस्तर पर गिर गये। और फिर बेफिक्री की जो नींद आई, वो अगले दिन सुबह ही टूटी। लेकिन तौबा कर ली बिन-बुलाए मेहमानों से।
अबयज़ ख़ान
नुक़्ता नहीं लगाना है...किसी भी लफ़्ज़ के नीचे नुक़्ता नहीं लगाना है...इसके लिए सभी को मेल भेज दिया गया है।
आप सभी लोगों को बता भी दीजिए। स्क्रीन पर नुक़्ता नहीं दिखना चाहिए।
क्यों... मैंने एतराज़ किया। नुक़्ता क्यों नहीं लगाना है। अरे अगर ज़मीन को जमीन और जहाज़ को जहाज लिखेंगे तो कैसा लगेगा?

लेकिन बॉस के सामने सारे तर्क बेकार थे। नुक़्ता सिर्फ़ इसीलिये नहीं लगाना था, क्योंकि कुछ लोगों को नुक़्ते का तमीज़ नहीं था। नुक़्ते में उनके गड़बड़ी थी, और नुक़्तानज़र सभी लोगों पर थी। मतलब जिन्हें नुक़्ते की तमीज़ है, वो भी नुक़्ता न लगाएं। मेरे साथ-साथ नुक़्ता भी अपने हाल पर बेहाल था। पहले तो मुझे भी नुक़्ता न लगाने का तर्क खराब लगा, लेकिन जब नुक़्ते की बदहाली देखी, तो फिर सब्र कर लिया। खुद भी और नुक़्ते को भी समझा दिया। फिक्र न कर गालिब, ज़माने में हमारे तलबगार और भी हैं। नुक़्ते के साथ जो नुक़्ताचीनी की जा रही थी, ज़रा उस पर आप भी नुक़्तानज़र कीजिए। ख़ुदा.. खुदा हो गया, ज़मीन...जमीन हो गई, ज़रा...जरा हो गया।
कुछ लोग इतने समझदार होते हैं, कि ज़रूरत से ज़्यादा नुक़्ता लगा देते हैं। अब जाल को नुक़्ता लगाकर ज़ाल, खाल को नुक़्ता लगाकर ख़ाल और जुदा को नुक़्ता लगाकर ज़ुदा कर देते हैं। और तो और नुक़्ते की गड़बड़ी के चक्कर में जंग को ज़ग लग जाती है। दिलचस्प तो ये है जलील बेचारा नुक़्ते के चक्कर में ज़लील हो जाता है। नुक़्ते के चक्कर में ज़ीना, जीना हो जाता है। हालांकि नुक़्तों वाले अल्फ़ाज़ की फेहरिस्त तो बहुत लंबी है। उर्दू में भी नु्क़्ते की गड़बड़ियां कम मशहूर नहीं हैं। वहां तो ख़ुदा का नुक़्ता ऊपर लगाकर उसे जुदा बना दिया जाता है।

ये तो वो चंद नज़ीर हैं.. जो नुक़्ते के चक्कर में आंसू बहा रही हैं। कसूर न मेरा है और न नुक़्ते का, लेकिन सज़ा भुगतना पड़ रही है अल्फ़ाज़ों को। जो बिना नुक़्ते के ऐसे नज़र आते हैं, जैसे कोई उजाड़ वन, जैसे पतझड़ के बाद सूखा हुआ पेड़, जैसे कोई बंजर खेत। लेकिन न्यूज़ चैनल में काम करते वक्त मुझे नुक़्ता न लगाने पर बड़ी कोफ़्त होती है। पाबंदियों के बावजूद मेरी उंगलियां नुक़्ते पर पहुंच ही जाती हैं। दिल मानता ही नहीं, जिसने बचपन से उर्दू पड़ी हो, जिसके घर में उर्दू का माहौल रहा हो, जिसके घर में खाने-पीने और पहनने तक में उर्दू का इस्तेमाल होता हो, वो खुद को बेबस महसूस न करे, तो क्या करे। लेकिन मजबूर ये हालात इधर भी हैं और उधर भी हैं। अफ़सोस ये है कि उर्दू पहले भी बेबस थी, लेकिन नुक़्ते के चक्कर में दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत ज़ुबान ख़ुद को अपाहिज महसूस करने लगी है। शायद कोई तो ऐसा आयेगा जो उर्दू का दर्द समझेगा।
अबयज़ ख़ान

क्या आपने कभी अपनी बेटी की उम्र की किसी लड़की के साथ सेक्स किया है?
जवाब मिलता हैं.. हां।
क्या आप कभी अपने पति के अलावा किसी और के साथ गैर मर्द के साथ नाजायज़ रिश्ता बनाने की कोशिश करेंगीं?
जवाब मिलता है.. नहीं।

लेकिन ये जवाब गलत था। ये एक बानगी भर है उस प्रोग्राम की, जो आजकल स्टार प्लस पर आता है। अमेरिकी शो 'मोमेंट ऑफ़ ट्रुथ' की नकल पर शुरु हुए इस प्रोग्राम के ज़रिए हिंदुस्तान में सच की गंगा बहाने की कोशिश की जा रही है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र के इस मुल्क में जहां हज़ारों गुरु पंडितों और मुल्ला मौललवियों ने इस मुल्क की बुनियाद रखी, वहां आज लोगों को सच सिखाने की ज़रूरत पड़ रही है। जहां लाखों पीर-फकीर गंगा-जमुनी तहजीब की सीख देकर चले गये। वहां टीवी पर सच सिखाया जा रहा है। सच भी कैसा। बेडरूम का सच। नाजायज़ रिश्तों का सच। साजिशों का सच। मर्डर और दोस्ती में दरारों का सच। सेक्स और बेवफ़ाई के अजीबो-गरीब रिश्तों का सच। प्यार-मौहब्बत में नाकाम रहने का सच। फलर्ट करने का सच। सच भी ऐसा जिसमें सिर्फ़ मसाला हो, तड़का हो। वो भी किसलिए सिर्फ़ एक करोड़ रुपयों के लिए। और एक करोड़ भी तब मिलेंगे जब आप सभी 21 सवालों का सही जवाब देंगे। मुझे आचार्य धर्मेद्र की एक बात बहुत अच्छी लगी, कि आप पैसा देना बंद कर दो, लोग टीवी पर सच बोलना बंद कर देंगे। लोग टीवी पर पैसे के लिए सच बोल रहे हैं। प्रोग्राम के पीछे तर्क दिया जा रहा है, कि इसके आने के बाद लोग सच बोलने लगे हैं। मेरा उनसे यही सवाल है कि क्या इससे पहले समाज में लोग सच नहीं बोलते थे? क्या अब तक मुल्क और समाज की बुनियाद झूठ के ढर्रे पर चल रही थी? एक सच ये है कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता। आप भले ही यकीन न करें, लेकिन मुझे झूठ बोलना बिल्कुल पसंद नहीं है। आप सोच रहे होंगे कि मैं शायद स्टार प्लस पर आने वाले प्रोग्राम सच का सामना के बाद कुछ बदल गया हूं। आप सोच रहे होंगे कि इस प्रोग्राम के आने के बाद हिंदुस्तान में राजा हरिशचन्द्र कहां से पैदा हो गये। लेकिन जनाब ऐसा नहीं हैं। यहां सदियों से लोग सच का सामना करते हैं। अब अगर कोई राखी सावंत से सच बोलता है कि वो पहले से शादी-शुदा है, तो क्या ये सच का सामना का असर है। दरअसल ये भी एक ड्रामा था। जिसके पीछे भी था पैसे का बड़ा खेल। मतलब फुल ड्रामा। और फिर यहां जो भी शख्स सच बोलता है, उसकी पूरी फैमिली उसके सामने बैठती है। झूठ और सच के साथ ही उनके एक्सप्रेशन भी बदलते जाते हैं। ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि कोई पति या पत्नी अपनी बीस साल की शादी-शुदा ज़िंदगी में डर की वजह से अपने राज़ एक-दूसरे से शेयर ही न करे। और जब बात एक करोड़ मिलने की आती है, तो उसके राज़ परत दर परत सारी दुनिया के सामने खुल जाते हैं। मुझे याद है कि कई साल पहले राजेन्द्र यादव जी ने अपनी पत्रिका हंस में ऐसी ही एक सीरीज़ चलाई थी। जिसमें अपनी ज़िंदगी का कच्चा चिट्ठा लिखना था। मैगज़ीन बाज़ार में आई, लेकिन लेख छपते ही हल्ला मच गया। कुछ लोगों ने बड़े उतावले पन के साथ अपनी ज़िंदगी को तार-तार करने की कोशिश की थी। लेकिन नतीजा क्या निकला। हंगामा मचा, तो हंस को सीरीज़ ही बंद करना पड़ी। अफ़सोस ये है कि इस प्रोग्राम का भी वहीं हश्र न हो। सच का सामना करने के चक्कर में कहीं रिश्ते दरक न जाएं, और भरोसे पर टिका जिंदगी का घंरौंदा एक हल्के से झोके में ही ज़र्रा-ज़र्रा करके बिखर न जाए। सच के ठेकेदारों समाज पर कुछ तो रहम करो। क्योंकि कुछ झूठ ख़ूबसूरती के लिबास में ही अच्छे लगते हैं।
अबयज़ ख़ान


परदेस में रहके न अपने देश को भूलो तुम.
दूरियां बेशक रहें, पर दिल के तारों को जोड़ो तुम..
एक चिट्ठी तो कम से कम अपनी हम को लिख दो तुम
घर की मिट्टी बुला रही है, अब तो वापस आ जाओ
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तुम्हारा मनपसंद खाना, खलिहानों में गाना, गाना.
मुनिया के संग शरारत, फिर उसको बहलाना..
सूना-सूना है सारा आंगन, टूटा सबका मन.
रो-रो के कटती हैं रातें, रो-रोके कटते हैं दिन,
गांव के बच्चे बुला रहे हैं, अब तो वापस आ जाओ
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दादी की शकरकंद की खीर, दादा की आंखों में नीर.
पापा की थकी-थकी सी चाल, मम्मी की आंखों में आंसू
आमों का मौसम हो, या गन्ने के रस की मिठास.
सबकुछ फीका-फीका है, कोयल भी है अबकी उदास,
आम की बगिया बुला रही है, अब तो वापस आ जाओ..
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क्या शहर में तुमको याद नहीं आता गांव.
खेतों की पगडंडियां और मौहल्ले की सब लड़कियां..
छत की कच्ची मुंढेरों पर कबूतर उड़ाना
कंचों में बेमानी, लूडो में शैतानी
गणित में सिफ़र और स्कूल का डर
गांव के पोखर में डुबकियां लगाना
सब तुमको बुला रहे हैं अब तो वापस आ जाओ..
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क्यों भूल गये तुम इतनी जल्दी सब कुछ
गांव की टोली संग होली, ईद की सिंवइयां..
दीवाली के पटाखे और रंगोली..
रेशम की डोरी में लिपटा छोटी का प्यार
अपने बुला रहे हैं तुमको, अब तो वापस आ जाओ....
अबयज़ ख़ान

टीवी पर बीएसएनएल का एक एड आता था, जिसमें प्रीति जिंटा कहती थीं, कि अगर इनके पास बीएसएनएल का कनेक्शन नहीं है, तो वो इनके बेटे से शादी नहीं करेंगी। आजकल टीवी पर एक एड और आता है अमूल माचो का.. जिसमें एक लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते है और बेचारा लजाता, शर्माता हुआ उनके लिए चाय लाता है। उसके बाद दूसरी तस्वीर में दिखाया जाता है कि कैसे लड़की उसे बाइक पर बैठाकर घुमाने ले जाती है, लड़की स्पीड ब्रेक लगाती है। झटका खाकर बेचारा लड़की से टकराता है। तो एक और तस्वीर में बस में खड़े होकर सफ़र कर रहे एक लड़के को एक लड़की छेड़कर निकल जाती है और बेचारा शर्म से लाल हो जाता है। आखिर क्या ज़माना आ गया है। इतने तक तो ठीक था। लेकिन अब तो सबकुछ उल्टा हो रहा है। राखी सांवत के स्वंयवर के बारे में तो आप सभी जानते होंगे। इस स्वंयवर में नाटक है, रोमांस है, और एक्शन भी। लेकिन राखी के चाहने वालों को न तो इसमें धनुष तोड़ना है और न ही मछली की आंख पर निशाना लगाना है। पूरे फिल्मी ड्रामे से भरी इस कहानी में राखी को किसी हूर से कम नहीं पेश किया है। और लड़के, वो तो बेचारे ऐसे लगते हैं, जैसे किसी रानी के गुलाम। राखी की हर अदा पर झुककर सलाम करने वाले, राखी के झूठ को सच साबित करने वाले, राखी जी बल खाकर चलती हैं, तो बेचारे मुंडे उनके कदमों में बिछे चले जाते हैं। और अगर राखी साहिबा उनसे खुश हो गईं, तो खाने को मिलेंगे लड्डू। शादी के लड्डू के बारे में तो सभी जानते हैं, जो खाए वो पछताए और जो न खाए वो पछताए। लेकिन राखी के साथ सपने बुनकर सभी 16 राजकुमार लड्डू खाना चाहते हैं। और राखी उनके सामने ऐसे पेश आती हैं, जैसे मल्लिका-ए-हिंदुस्तान। हद तो तब हो गई, जब राखी को पाने के लिए वो आग के शोलों पर भी नंगे पांव गुज़र गये। और तो और स्वंयवंर में आई ईवेंट मैनेजर ने दूल्हों को चुनौती दी, कि एक-दूसरे की गर्दन में सरिया फंसाकर जो इसे मोड़ देगा, राखी जी उससे बेहद खुश होंगी। और बेचारे दूल्हों ने ऐसा भी किया। मरता क्या न करता आखिर राखी को जो पाना है।

राखी इतनी बोल्ड हैं कि शो में खुलेआम कह रही हैं कि मुझे इनके छूने से कोई फीलिंग नहीं हो रही है, इनके छूने से मुझे कुछ एहसास ही नहीं हुआ। ये सब जानते हुए भी कि इस शो को सारी दुनिया देख रही है। लेकिन ये तो राखी हैं, राखी को क्या, कुछ भी बोल सकती हैं। बेचारे कुंआरे अब खुद को भरी पब्लिक के सामने नामर्द समझें, या राखी को संतुष्ट करने के लिए किसी नीम-हकीम से मर्दानगी की दवा खरींदे। आखिर राखी को जो पटाना है। लेकिन राखी हैं, कि आराम से पटना ही नहीं चाहतीं। लड़के लाख मिन्नतें कर रहे हैं, इतना ही नहीं, राखी को पटाने के लिए बेचारे एक-दूसरे को भगाने के लिए उसी तरह की ख़तरनाक साज़िशें रच रहे हैं, जैसे किसी रियलिटी शो में लड़कियां एक-दूसरे के खिलाफ़ जाल बुनती हैं। लड़के राखी के सामने हाथ बांधे खड़े हैं, कब मैडम की मेहरबानी हो जाए और उनको मिठाई का डिब्बा मिल जाए। लेकिन मिठाई मिलना सबकी इच्छा नहीं है, हर कोई चाहता है कि राखी उसे वरमाला पहना दें। वाकई ज़माना बदल गया है, अब मां का लाडला अपने लिए बहू नहीं ढूंढ रहा है, बल्कि एक बहू अपने लिए पति ढूंढ रही है। अब पति परमेश्वर होगा, या पत्नी पतिव्रता, ये तो भगवान ही जाने। लेकिन ज़माना सचमुच बदल गया है।
अबयज़ ख़ान

मुर्गी ने आदमी के बच्चे को जन्म दिया है। सुनने में आपको थोड़ा अटपटा ज़रूर लगेगा, लेकिन ये ख़बर आई है मध्य-प्रदेश के रायसेन शहर से। एक टीवी चैनल पर ये ख़बर चलने के बाद दूसरे चैनलों के पत्रकार भी इसे कवर करने दौड़ पड़े। बिना ये जांच-पड़ताल किये, कि क्या एक मुर्गी भी इंसान के बच्चे को जन्म दे सकती है। मज़े की बात ये है कि इस पर किसी ने अपना दिमाग लगाने की ज़रूरत भी नहीं समझी। मामला मध्य प्रदेश में रायसेन के एक गांव बाड़ीकला का है। जहां से ख़बर आई कि यहां रहने वाले पतिराम नाम के शख्स के घर मुर्गी ने एक इंसान के बच्चे को जन्म दिया है। इस ख़बर के आने के बाद मीडिया वाले दौड़ पड़े। लेकिन डॉक्टरों के साथ ही आम लोगों का दिमाग भी चकरा गया। हर कोई ये सोच रहा था कि ऐसा भला कैसे हो सकता है।

मेरे चैनल में भी ये ख़बर आई, तो मैं भी इसे सुनकर चौंक गया। पहले तो ख़बर की आपा-धापी में यकीन ही नहीं हुआ। लेकिन जब इसकी तस्वीरें देखीं, तो माजरा समझते देर नहीं लगी। मुर्गी के साथ एक इंसान का चार इंच का भ्रूण दिख रहा था। जिसको लेकर ये दावा किया जा रहा था कि इंसान के इस बच्चे को मुर्गी ने ही जन्म दिया है। लेकिन मुर्गी को देखकर तरस आ रहा था, बेचारी अपने हाल पर बेबस थी, कैमरे की निगाहों के साथ ही उसे ज़माने की नज़रों का सामना भी करना पड़ रहा था।

बेज़ुबान परेशान थी, अपनी सफ़ाई में क्या कहे, किससे कहे और कैसे कहे। कैसे लोगों को बताए कि इसमें उसका कोई कसूर नहीं है, बल्कि इसका पापी तो कोई और है, जो अपने गुनाहों पर पर्दा ढकने के लिए मेरे दड़बे में इस भ्रूण को रखकर चला गया है। लेकिन जैसे लोग नासमझ थे, वैसे ही मुर्गी भी लाचार थी। उसका मासूम चेहरा देखकर उस बेचारी पर तरस आ रहा था। जो ख़ता उसने की ही नहीं उसका इल्ज़ाम उसके मत्थे मढ़ दिया गया था। और तो और उसका मालिक भी इस ख़बर को कैश कराने में लगा था। मुर्गी बेचारी के हर एंगल से शॉट्स बनाए जा रहे थे। वो तो बस नहीं चला, अगर मुर्गी बोल पाती, तो शायद उससे तमाम तरह के बेतुके सवाल भी पूछ लिए होते। हो सकता है कोई ये भी पूछ लेता, कि इस बच्चे का बाप कौन है? डॉक्टर भी बेचारे बोल-बोलकर परेशान थे, कि कुदरत के नियम में इस तरह का कोई खिलवाड़ नहीं हो सकता। भला मुर्गी भी कहीं इंसान के बच्चे को जन्म दे सकती है। लेकिन सुनने को कोई तैयार ही नहीं था। ये किस्सा बिल्कुल ऐसा ही था, जैसे हमने जर्नलिज्म में पढ़ा था कि अगर कुत्ता आदमी को काटे तो ख़बर नहीं है, लेकिन अगर आदमी कुत्ते को काटे तो ख़बर बन जाती है।
अबयज़ ख़ान


-जैसे सावन की घटा ज़रा सा बरसे और फिर धूप निकल आये।
-जैसे कोई मेहमान चंद रोज़ घर में क़हकहे बिखेर कर वापस चला जाए।
-जैसे छुट्टी का दिन आकर गुज़र जाए।
-जैसे त्योहार के रोज़ की शाम।
-जैसे दुल्हन की रुख़सती के बाद घर।
-जैसे किसी परदेसी की अलविदाई मुस्कुराहट।
-जैसे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म छोड़ती ट्रेन।
-जैसे घर के सामने से गुज़रता हुआ डाकिया।
-जैसे वतन से बिछुड़ने की याद।
-जैसे भूले-बिखरे चंद ख़त।
-जैसे किताबों की रैक में अचानक कोई पुरानी तस्वीर मिल जाए।
-जैसे एलबम में मम्मी-पापा के साथ बचपन की फोटो।
-जैसे तावीज़ में दी हुई मां की दुआएं।
-जैसे परदेस में मिली पापा की प्यार भरी चिट्ठी।
-जैसे किसी मरने वाले के तह-दर-तह कपड़े।
अबयज़ ख़ान
तारीख पहली जुलाई, सुबह छह बजे अख़बार वाले की आहट से आंख खुली, उनींदी आंखों से दरवाज़ा खोला, तो चौखट पर हिंदुस्तान अख़बार पड़ा था। ख़बर के चस्के में अख़बार उठाया, तो उसके मास्ट हेड पर बड़ा सा लिखा था आज पहली तारीख है। साथ में कैडबरी चॉकलेट का एड भी था। बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ''खुश है ज़माना आज पहली तारीख है''। मतलब अगर पहली तारीख आती है, तो तनख्वाह मिलती है और आप चॉकलेट की पार्टी देते हैं। लेकिन अख़बार के इस एड को देखकर मेरा मन ख़राब हो गया। आखिर मेरी ज़िदगी में पहली तारीख़ कब आयेगी। तीन महीने हो गये पहली तारीख़ का इंतज़ार करते हुए। लेकिन ये पहली तारीख आना ही नहीं चाहती।


एक-एक दिन का इंतज़ार पहाड़ जैसा हो गया था। अख़बार और टीवी चैनल पर कैडबरी का एड मुंह चिढ़ा रहा था। नाच-गाकर पहली तारीख का जश्न मनाया जा रहा था, लेकिन अपने सीने पर तो सांप लौट रहा था। पहली तारीख तो अपने कैलेंडर में भी आई, लेकिन मोबाइल में मैसेज ही नहीं आया। कई बार उलट-पलट कर देखा शायद अब घंटी बजे, लेकिन किस्मत की घंटी बजना शायद अपने नसीब में था ही नहीं। उल्टे कर्ज़दारों ने घर की कॉलबेल बजाना ज़रुर शुरु कर दिया। मकान मालिक का दो महीने का किराया चढ़ चुका था, तो क्रेडिट कार्ड, मोबाइल, इंटरनेट, राशन और दूधवाले तक का बिल बकाया था। लेकिन पहली तारीख का सपना टूट ही नहीं रहा था।

सैलरी को लेकर कोई सीधा जवाब नहीं मिल रहा था, तो कभी तीन महीने की सैलरी मिलने के सब्ज़बाग दिखाए जा रहे थे। लेकिन मुझे खुद से ज्यादा इंडियन एयरलाइंस और सत्यम के लोगों की चिंता हो रही थी। उन लोगों को सैलरी मिलना तो दूर, नौकरियां जाने की भी नौबत आ चुकी थी। पत्रकार हैं, इसलिए उनका दर्द समझ में आता है, लेकिन अपना दर्द पूछने वाला शायद कोई नहीं है। सरकारें भी शायद कान बंद किये बैठी थीं। कंपनियां झूठी तसल्ली दे रही थीं, और बेबस कर्मचारी मन मसोस कर पहली तारीख का इंतज़ार कर रहे थे। दफ्तर में अजीब तरह का माहौल था। काम में किसी का मन नहीं लग रहा था। लेकिन काम तो करना ही था। तो घर पर बच्चे पापा की सैलरी का इंतज़ार कर रहे थे।

जुलाई का महीना शुरु हो चुका था, लुकाछिपी के बाद मानसून भी दस्तक दे चुका था। लेकिन पैसों की बरसात होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। जब दुनियाभर के मां-बाप अपने बच्चों को गर्मियां की छुट्टियों में तफ़रीह करा रहे थे, तो हमारे दफ्तर में लोग घर चलाने के लिए कर्ज़ का जुगाड़ करने में लगे थे। मां-बाप बच्चों को झूठी तसल्ली दे रहे थे, उनको अगली छुट्टियों में घुमाने के वादे किये जा रहे थे। लेकिन स्कूल खुलते ही बच्चों की फीस और एडमिशन का खर्च मुंह बाएं खड़ा था। तो मकान से लेकर गाड़ी तक की किस्त दिमाग की घंटी बजा रही थी। घरवालों की फ़रमाइशें पूरी करना तो दूर, दफ्तर तक आने के लिए किराए के भी लाले पड़ने लगे। कुछ लोग तो मजबूरन ऑफिस से छुट्टियां लेने को मजबूर हो गये।

हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। लेकिन किसी को भी हमारी फिक्र नहीं। ऊपर से सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ाकर एक और झटका दे दिया। अब पैदल चलने के सिवा कोई चारा नहीं था। लोग पहली तारीख को सैलरी मिलने पर भले ही जश्न मनाते हों, लेकिन यहां तो जश्न के बारे में सोचने की हिम्मत भी नहीं होती। कभी किसी से पांच रुपये उधार मांगने की नौबत नहीं आई, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ, जब दोस्तों के सामने उधारी के लिए हाथ फैलाना पड़ा हो। मजबूर ये हालात इधर भी थे और उधर भी। मंदी ने ऐसा मारा कि कमर कमान हो चुकी थी। दोस्त भी मंदी के मारे थे। पहली तारीख के सपने सब हवा हो चुके थे। पार्टियों में जाने के बजाए अब उनसे बचने की तरकीबें सोची जा रही थीं, इसी इंतज़ार में कि जल्द ही आयेगी पहली तारीख, लेकिन कब आयेगी ये किसी को पता नहीं है।
अबयज़ ख़ान
पप्पू अब फेल नहीं होगा, जब से ये ख़बर आई है, पप्पू के साथ-साथ उसके मां-बाप के चेहरे भी खिल उठे हैं। पंजे को वोट देने वाले मां-बाप को लग रहा है कि उनका वोट कामयाब हो गया है। पिछली दस साल से एक ही क्लास में पप्पू रिकॉर्ड बना रहा था, लेकिन न तो गिनीज़ बुक वाले उसका नाम दर्ज़ कर रहे थे और न ही लिम्का बुक में उनके बेटे का नाम छप रहा था। और तो और बोर्ड वाले भी उससे पीछा छुड़ाने के मूड में नहीं थे। लेकिन सरकार को पप्पू का ख्याल आया। उसके मां-बाप के आंसुओं का ख्याल आया, जो पिछले दस साल से इस बात का इंतज़ार कर रही थीं, कि इस बार तो उनका लाडला दसवीं की सीड़ी पार कर ही लेगा।


लेकिन जब से वो गाना आया कि मां का लाडला बिगड़ गया, पप्पू और आवारा हो गया था। मां-बाप से लेकर पप्पू के यार-दोस्त तक इस इंतज़ार में थे, कि कब पप्पू पास होगा और उन्हें मिठाई खाने को मिलेगी। लेकिन पप्पू ने तो जैसे कसम खा ली थी। वो तो भला हो, बहन मायावती और कपिल सिब्बल जी का। सिब्बल जी ने दसवीं से बोर्ड ख़त्म कराने का सुझाव दिया, तो बहन जी ने फटाफट अपने स्टेट में ये फ़रमान लागू भी कर दिया कि अब दसवीं में कोई फेल नहीं होगा। अगर छह में से पांच सब्जेक्ट में भी पास होते हैं, तो अगली क्लास के लिए बेड़ा पार। मतलब ये कि पप्पू की दस साल की तपस्या रंग लाई। लेकिन कुछ बच्चे तो ऐसे भी हैं, जो पप्पू नहीं बनना चाहते। उनको तो एक्ज़ाम का ऐसा कीड़ा सवार है कि पूछिए मत।

इधर मंत्री जी ने ऐलान किया, उधर टीवी कैमरे बच्चों के पीछे दौड़ पड़े। हर किसी को उनकी बाइट की फिक्र थी, बहुत से पप्पू कैमरों के सामने चहक रहे थे, कि बढ़िया हुआ, अब झंझट से मुक्ति मिली। फेल-पास का चक्कर ही ख़त्म हो गया। कोई माया जी को कोटि-कोटि नमन कर रहा था, तो कोई सिब्बल साहब को साधुवाद दे रहा था। चलो किसी ने तो हमारी सुनी। किसी ने तो हमारा दर्द समझा। आखिर जो पप्पू घिसट-घिसट कर दसवीं के बाद की गिनती भूल गया था, अब कम से कम ग्यारह पर तो आयेगा।

लेकिन बहुत से पड़ाकू शायद इससे खुश नहीं थे,वो सिर्फ़ अपने ही बारे में सोच रहे थे, उनके लिए बिल्कुल नहीं, जिनके बाप-दादा भी बेटे के दसवीं पास होने का सपना देखते-देखते गुज़र गये।
पप्पू स्कूल से बाहर निकल गया, शादी के बाद पप्पू के बच्चे भी दसवीं में आ गये, और अब पप्पू अपने बच्चों के साथ उसी क्लास में है। हद तो तब हो गई, जब बच्चे पार कर गये और पप्पू किनारे पर ही रह गये। लेकिन अगर सिब्बल साहब की चली, तो उनकी ज़िंदगी में भी आयेगा एक सुनहरा दिन जब उनके मौहल्ले में भी बटेगी मिठाई और फिर हर कोई कहेगा कि पप्पू पास हो गया।
अबयज़ ख़ान
ये बच्चे नहीं पटाखा हैं। ज़ीटीवी पर आजकल एक शो आ रहा है लिटिल चैंप्स। इसमें शामिल सभी 12 बच्चे एक से बढ़कर एक हैं। इतनी कम उम्र में इन बच्चों को सुरों की इतनी समझ है, कि अच्छा-अच्छा आदमी दांतो तले उंगली दबा ले। लेकिन यहां पर नई बात ये नहीं है। बल्कि दिलचस्प तो ये है कि इस प्रोग्राम में एक छोटी से एंकर है, जो अच्छे-अच्छों की छुट्टी कर सकती है। दरअसल अफशां नाम की ये बच्ची आई तो थी सिंगर बनने, लेकिन उसकी हाज़िर जवाबी देखकर अभिजीत और अलका ने उसे एंकर बनाने का फैसला कर लिया। अफ़शा मुसानी नाम की ये बच्ची जब स्टेज पर एंकरिंग करती है, तो बड़ों-बड़ों के कान काट लेती है।

चार या पांच साल की इस बच्ची को देखकर यकीन ही नहीं होता कि ये अपनी उम्र से इतनी ज्यादा समझदार है। यूं तो स्टेज पर खड़े होना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती, लेकिन अफ़शां मुसानी की अदाकारी में वो कॉंफिडेंस है कि पूछिए मत। उसकी हाज़िर जवाबी का आलम ये कि अभिजीत और अलका याज्ञिक तो क्या बड़े-बड़े धुरंधर उसके सामने खुद को चित्त समझते हैं। दिलचस्प नज़ारा तो तब देखने को मिला था, जब मुंबई की ये बच्ची सिंगर बनने के लिए ऑडिशन देने आई थी। लेकिन ऑडिशन के दौरान उसने वो मस्ती की, कि आयोजकों का इरादा ही बदल गया। जब ऑडिशन के दौरान अलका याज्ञिक ने उससे सवाल पूछे, तो उसने ऐसे चटपटे जवाब दिये कि हर कोई उसके जवाबों पर लोटपोट हो गया।

बच्ची के जवाबों पर हंसते हुए अलका ने उसकी मम्मी से पूछा कि इसके जन्म के वक्त आपने क्या खाया था, तो उससे पहले ही अफ़शां बोल पड़ी, मेरी मम्मी ने बड़ा-पाव खाया था। मैं इस प्रोग्राम को लगातार देखता हूं, सिर्फ़ इसी को नहीं बल्कि बच्चों से जुड़े शायद सभी प्रोग्राम। इसकी एक वजह भी है। जो काम हम अपने बचपन में नहीं कर पाए, उन्हें ये बच्चे इतने कॉन्फिडेंस से पूरा कर रहे हैं कि सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। दरअसल हमारे ज़माने में न तो इतनी सुविधाएं थीं और न ही हमारे घरवालों ने प्रतिभा को तराशने की ज़रूरत महसूस की। अगर कभी छिपकर टीवी देख लिया, या कॉमिक्स पड़ ली, तो समझिए धुनाई होना पक्की बात थी। और अगर कहीं क्रिकेट खेलने चले गये, तो समझिये उस दिन शामत तय थी।

मां-बाप को बस एक ही चीज़ से मतलब था, कि बच्चे पढ़कर नवाब बनें। लेकिन आज ज़माना बदल गया है, आज के बच्चे कहते हैं कि पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे ख़राब और खेलेगो कूदोगे, तो बनोगे नवाब।। और ऐसा हो भी रहा है, आज़ के ज़माने के बच्चे तो रफ्तार से भी तेज़ दौड़ रहे हैं। साथ में उनके मां-बाप भी कदम से कदमताल मिलाकर अपने बच्चों के लिए खून-पसीना एक कर रहे हैं। कलर्स पर बालिका वधु और सलोनी धूम मचाए हुए हैं, तो कई चैनल्स बच्चों को लेकर प्रोग्राम बना रहे हैं। अब ये बच्चों के टैलेंट का कमाल है, या बाज़ार की बढ़ती मांग। अब एनिमेटिड प्रोग्राम और कार्टून नेटवर्क बच्चों की फेवरिट लिस्ट में नहीं हैं। अब वो खुद स्टेज पर खड़े होकर अपने सुरों का संग्राम छेड़ रहे हैं, तो ठहाकों से लोगों के मन में गुदगुदी पैदा कर रहे हैं।

आमिर खान की फिल्म तारे ज़मीं पर को शायद ही कोई भूला होगा, जिसमें नन्हें दर्शील सफ़ारी ने अपनी एक्टिंग से दर्शकों को रोने पर मजबूर कर दिया था। तो स्लमडॉग मिलेनियर के अज़हर और रुबीना को कौन नहीं जानता, जो अपनी एक्टिग की वजह से आज देशभर में नाम कमा रहे हैं। इन बच्चों को इतनी कम उम्र में नेम-फ़ेम-गेम मिल गया जब इनमें से कई को अपना नाड़ा बांधना भी नहीं आता होगा। पहले मां-बाप अपने बच्चों से अपना नाम रोशन करने के लिए कहते थे, लेकिन आज उनकी पहचान अपने बच्चों से ही है। आज सलोनी, अविका, अज़हर, रुबीना, दर्शील ओर अफ़शां के मां-बाप को उन्हीं की वजह से पहचान मिली है। ये बच्चे अब ख़बर बनते हैं, इनकी हर हलचल पर मीडिया की नज़र रहती है। इनकी हर हलचल, टीवी चैनल्स की हेडलाइन बनती है। ये बच्चे वाकई लाजवाब हैं, इनकी कामयाबी देखकर रश्क होता है। इनको देखकर लगता है कि हिंदुस्तान सचमुच तरक्की के रास्ते पर बढ़ चला है। ये बच्चे उधम नहीं मचा रहे हैं, बल्कि ये तो धूम मचा रहे हैं। इन बच्चों को देखकर कई बार मन होता है कि इन्हें किसी म्यूज़ियम में रख लूं, तो कई बार खुद से भी जलन होती है। कि हम बचपन में इतने बुद्धु कैसे रह गये।
अबयज़ ख़ान
22 मई 2009 की तपती दोपहरी थी... सूरज क़हर बरसा रहा था। हर तरफ़ आग ही आग बरस रही थी। दफ्तर से मन उचट चुका था, तो ज़िंदगी में भी घमासान मचा हुआ था। दिल और दिमाग दोनों ही काम नहीं कर रहे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। किसी से बात करके भी मन का बोझ हल्का नहीं हुआ, तो दफ्तर से छुट्टी ले ली। पहले समझ नहीं आया कि क्या करूं, फिर अचानक मन में आया कि चलो कहीं घूम लिया जाए। तभी अचानक पापा का फोन आया कि वो जयपुर जाना चाहते हैं, पापा ने फोन पर पूछा, क्या तुम भी चलोगे? मैंने हां कर दी। पापा के साथ मैं भी राजस्थान टूर पर निकल पड़ा। गर्मी झुलसा रही थी, लेकिन मन बहलाने के लिए घूमने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।

देर शाम जयपुर पहुंचा, तो हम लोग छोटे भाई के कमरे पर रुके। फ्रेश होने के बाद कुछ देर इधर-उधर की बातें की, उसके बाद हम तीनों घूमने निकल गये। जयपुर का किला और हवामहल देखने के बाद भी मन उदास ही था। सीने पर एक बड़ा बोझ था, जो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। देर शाम जयपुर के मशहूर इस्माइल रोड पर भी निकले, बाज़ार भी घूमा, सोचा कुछ ख़रीदारी कर लूं, लेकिन जयपुर में मन रमा नहीं। इसके बाद अगला पड़ाव था अजमेर। मशहूर ख्वाजा संत मोईनुद्दीन चिश्ती का शहर। पहाड़ी पर बसे इस शहर में चढ़ाई ने काफ़ी थका दिया। वैसे भी जयपुर से अजमेर का रास्ता करीब तीन घंटे से ज्यादा का था। थकान तो पहले से ही थी। अजमेर पहुंचा तो दरगाह जाना भी ज़रूरी था। लेकिन दरगाह पर पहुंचते ही ऐसा लगा कि हम कहां आ गये।

मज़ार पर मन्नतों के लिए हज़ारों ज़ायरीन पहुंचे थे, लेकिन मज़ार पर पैसों का खेल देखकर एक बारगी खुद को झटका लगा, कि क्या यही ख्वाजा का दरबार है, जहां कदम-क़दम पर लोग पैसे उगाहने के लिए खड़े थे। शुरुआत चप्पलों से हुई, जिसके पांच रुपये देना पड़े। उसके बाद गेट पर खड़े लोग किसी भी तरह पैसे लेने के लिए उतावले थे। कोई फूलों के बहाने पैसे ले रहा था, तो कोई ख्वाजा के दर पे लंगर कराने के नाम पर पैसे मांग रहा था। इन सब से निकलकर जब ख्वाजा की मज़ार पर पहुंचे, तो वहां एक औरत के चीखने की आवाज़ सुनी। मालूम किया तो पता चला कि उससे भी लोग ज़बरन पैसे उगाहने में लगे थे। अफ़सोस हुआ कि ये लोग मुसलमानों की कैसी इमेज बना रहे हैं। मुझे याद आये दिल्ली के लोटस और अक्षरधाम टैंपिल जहां न तो कोई टिकट लगता है, उल्टे आपके जूते-चप्पल भी हिफ़ाज़त से रखे जाते हैं। लेकिन ख्वाजा के दर पर कुछ लोग मुसलमानों की इमेज को ख़राब करने में लगे थे। आज अगर ख्वाजा देखते होंगे तो उन्हें भी इस हालत पर अफ़सोस तो होता ही होगा।

ख़ैर यहां से आगे बढ़े तो प्यार-मोहब्बत के शहर आगरा का रुख किया। ट्रेन ने जैसे ही आगरा शहर में एंट्री की, बदबू के मारे जीना मुश्किल हो गया। समझ नहीं आया कि हम उसी शहर में दाख़िल हो रहे हैं, जहां दुनिया का सातवां अजूबा हैं। रेलवे लाइन के किनारे बिखरी गंदगी ने नाक पर रुमाल रखने को मजबूर कर दिया। बदबू से बचते हुए बड़ी मुश्किल से स्टेशन पहुंचे, तो उसके बाहर का हाल भी पूछिए मत। हर तरफ़ गंदगी ही गंदगी का नज़ारा। लालू जी ने रेल को तो प्रोफिट में ला दिया, लेकिन गंदगी देखकर प्रोफ़िट का राज़ समझ में आ गया। ताज के रास्ते में तो गंदगी का वो आलम था, कि पूछिए मत। बड़ा अफ़सोस हुआ वहां की हालत पर, गंदगी देखकर मन में ख्याल आया कि आखिर क्या सोचते होंगे परदेसी महमान इस शहर के बारे में।

लोकिन ताज पर पहुंचकर सारी थकान काफ़ूर हो गई। आलमपनाह की बेपनाह ख़ूबसूरत इमारत देखकर दिल बाग़-बाग हो गया। प्यार की इतनी खूबसूरत निशानी तो क्या, मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसा शानदार अजूबा भी नहीं देखा था।
शाहजहां ने अपनी महबूबा को प्यार का वो तोहफ़ा दिया था, जिसे शाहजहां और मुमताज तो क्या इस दुनिया में आने वाला हर शख्स ताउम्र याद रखेगा। आज के दौर में न तो कोई ऐसा प्यार करने वाला शाहजहां मिलेगा और न ही कोई इतनी किस्मत वाली मुमताज़ महल होगी। और न ही कोई ऐसा दिलखर्च शहंशाह होगा। जो अपनी महबूबा के लिए मरने से पहले ही सफ़ेद पत्थर का हसीन मकबरा बनवा सकता हो। दुनिया का ये अजूबा वाकई लाजवाब है। अनमोल है, बेशकीमती है। दुनिया में इस जैसी इमारत न तो कोई बनवा सकता है और न ही शायद बनवा पाएगा। सफ़ेद संगमरमर से बनी ये इमारत उस प्यार की कहानी को अमर कर रही है, जो आज से लगभग चार सौ साल पहले लिखी गई थी। और उस ज़माने में लिखी गई थी, जब प्यार को किसी गुनाह के दर्जे में रका गया था। इस कहानी में सिर्फ़ प्यार का टिव्स्ट नहीं था, बल्कि ये तो चार सौ साल का इतिहास भी समेटे हुए थी।

पहली बार में तो ताज को देखने पर आंखें चकाचौंध से भर जाती हैं। यकीन ही नहीं होता कि अपने मुल्क में भी इतना नायाब नमूना है, जिसे देखने दुनियाभर से हर साल लाखों लोग हिंदुस्तान के इस शहर में आते हैं। वाकई ये अपने आप में लाजवाब है। ताज नगरी के बाद मैंने घर लौटने का फैसला कर लिया, क्योंकि इस हसीन इमारत को देखने के बाद फिर कहीं और जाने का मन ही नहीं हुआ। ताज की मीठी-मीठी यादों के साथ आगरा का मशहूर पेठा ख़रीदकर मैंने इस शहर से से विदाई ली, और फिर चल पड़ा अपने घर के लिए। जहां मां बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रही थीं। हर बार की तरह इस बार भी उनके पास मुझसे करने के लिए ढेर सारी बातें थीं, मेरे लिए उनकी रसोई में ढेर सारे पकवान भी इंतज़ार कर रहे थे... बस फिर क्या था, मैंने आगरा से पकड़ी बस और फिर इस शहर को अलविदा कहकर अपने घर के लिए रवाना हो गया। और आगरा की यादें कहीं पीछे छूट गईं।
अबयज़ ख़ान
नवाबों के इस शहर की हर अदा निराली है। तहज़ीब और उर्दू के इस शहर में चाकू की धार भले ही कुंद पड़ चुकी हो, लेकिन इस शहर में रफ्तार बाकी है। दिल्ली से करीब सवा दौ सौ किलोमीटर दूर नेशनल हाईवे 24 पर बसा ये शहर मेहमानों के इस्तकबाल में हाथ फैलाए खड़ा रहता है। नवाबी आन-बान और लज़ीज़ खानो के अलावा इस शहर ने शायरी में भी अपना एक मुकाम बनाया है। लेकिन आज बात सिर्फ़ खाने की। और खाने में भी रामपुर के मशहूर हब्शी हल्वे की। नाम भले ही अटपटा सा लगे, लेकिन आप बिल्कुल सही समझ रहे हैं, दरअसल इस हल्वे का नाम अफ्रीका में रहने वाले हब्शियों के नाम पर ही पड़ा है। रामपुर के नवाब कल्बे अली खां जब साउथ अफ्रीका गये थे, तो वहां का हब्शी हल्वा उन्हें बेहद पसंद आया। इतना पसंद आया, कि वो हल्वा बनाने वाले करीगर को ही वहां से अपने साथ ले आये। और फिर रामपुर में बनाया जाने लगा ख़ास हब्शी हल्वा।
इस हल्वे की खास बात ये है कि इसे कमज़ोरी और ताकत की अहम दवा माना जाता है। लेकिन रामपुर में इस हल्वे को बनाने की ज़िम्मेदारी उठाई शहर के मशहूर हकीम अब्दुल हकीम खान ने। डेढ़ सौ साल पहले रामपुर के बाज़ार नसरुल्ला खां में उन्होंने हल्वे की दुकान खोली। नसरुल्ला खां बाज़ार जाने के लिए स्टेशन पर उतरने के बाद आप रिक्शा कर सकते हैं, जो महज दस रुपये में आपको बाज़ार में छोड़ देगा। तंग रास्ते वाले इस बाज़ार में हफ्ते के सातों दिन भीड़ का आलम रहता है। इसी भीड़ भरे बाज़ार में है हकीम साहब की दुकान। लेकिन अब हकीम साहब तो रहे नहीं, लिहाज़ा उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी इस पुश्तैनी धंधे को संभाल रही है। दुकान और दुकानदार की बात से हटकर अब बात की जाए हल्वे की। देसी घी, और ख़ालिस दूध से बना ये हल्वा पूरी रात आग पर बनाया जाता है। साथ ही हल्वे में सूखे मेवों और समनख के साथ ही देसी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल भी किया जाता है। ख़ास बात ये है कि हल्वे के बनाने वाले इसका फार्मूला बताना नहीं चाहते। शायद यही वजह है कि रामपुर शहर में इसकी दो ही दुकाने हैं और दोनों ही इसी खानदान की हैं। खाने में चॉकलेट जैसा स्वाद देने वाला ये हल्वा इतना लज़ीज़ होता है कि जो कोई एक बार इसे खाले, तो खाते-खाते भी उसका मन न भरे। हालांकि इसे सर्दियों के लिए बेहद उम्दा माना जाता है, लेकिन हल्वे की मांग इतनी है, कि इसे बारह महीनों तक बेचा जाता है। कई फिल्मी सितारे भी जैसे मैक मोहन, पोपटलाल भी हकीम साहब के हल्वे के ख़ास मुरीद हैं। इसके अलावा कई देशी-विदेशी सैलानी भी रामपुर से गुज़रते वक्त इस हल्वे को साथ ले जाना नहीं भूलते। हल्वे की भीनी-भीनी खुशबू का ज़ायका अगर आपकी ज़ुबान को लग जाए, तो आप भी इसके दीवाने हुए बिना नहीं रह पाएंगे।