अबयज़ ख़ान
नुक़्ता नहीं लगाना है...किसी भी लफ़्ज़ के नीचे नुक़्ता नहीं लगाना है...इसके लिए सभी को मेल भेज दिया गया है।
आप सभी लोगों को बता भी दीजिए। स्क्रीन पर नुक़्ता नहीं दिखना चाहिए।
क्यों... मैंने एतराज़ किया। नुक़्ता क्यों नहीं लगाना है। अरे अगर ज़मीन को जमीन और जहाज़ को जहाज लिखेंगे तो कैसा लगेगा?

लेकिन बॉस के सामने सारे तर्क बेकार थे। नुक़्ता सिर्फ़ इसीलिये नहीं लगाना था, क्योंकि कुछ लोगों को नुक़्ते का तमीज़ नहीं था। नुक़्ते में उनके गड़बड़ी थी, और नुक़्तानज़र सभी लोगों पर थी। मतलब जिन्हें नुक़्ते की तमीज़ है, वो भी नुक़्ता न लगाएं। मेरे साथ-साथ नुक़्ता भी अपने हाल पर बेहाल था। पहले तो मुझे भी नुक़्ता न लगाने का तर्क खराब लगा, लेकिन जब नुक़्ते की बदहाली देखी, तो फिर सब्र कर लिया। खुद भी और नुक़्ते को भी समझा दिया। फिक्र न कर गालिब, ज़माने में हमारे तलबगार और भी हैं। नुक़्ते के साथ जो नुक़्ताचीनी की जा रही थी, ज़रा उस पर आप भी नुक़्तानज़र कीजिए। ख़ुदा.. खुदा हो गया, ज़मीन...जमीन हो गई, ज़रा...जरा हो गया।
कुछ लोग इतने समझदार होते हैं, कि ज़रूरत से ज़्यादा नुक़्ता लगा देते हैं। अब जाल को नुक़्ता लगाकर ज़ाल, खाल को नुक़्ता लगाकर ख़ाल और जुदा को नुक़्ता लगाकर ज़ुदा कर देते हैं। और तो और नुक़्ते की गड़बड़ी के चक्कर में जंग को ज़ग लग जाती है। दिलचस्प तो ये है जलील बेचारा नुक़्ते के चक्कर में ज़लील हो जाता है। नुक़्ते के चक्कर में ज़ीना, जीना हो जाता है। हालांकि नुक़्तों वाले अल्फ़ाज़ की फेहरिस्त तो बहुत लंबी है। उर्दू में भी नु्क़्ते की गड़बड़ियां कम मशहूर नहीं हैं। वहां तो ख़ुदा का नुक़्ता ऊपर लगाकर उसे जुदा बना दिया जाता है।

ये तो वो चंद नज़ीर हैं.. जो नुक़्ते के चक्कर में आंसू बहा रही हैं। कसूर न मेरा है और न नुक़्ते का, लेकिन सज़ा भुगतना पड़ रही है अल्फ़ाज़ों को। जो बिना नुक़्ते के ऐसे नज़र आते हैं, जैसे कोई उजाड़ वन, जैसे पतझड़ के बाद सूखा हुआ पेड़, जैसे कोई बंजर खेत। लेकिन न्यूज़ चैनल में काम करते वक्त मुझे नुक़्ता न लगाने पर बड़ी कोफ़्त होती है। पाबंदियों के बावजूद मेरी उंगलियां नुक़्ते पर पहुंच ही जाती हैं। दिल मानता ही नहीं, जिसने बचपन से उर्दू पड़ी हो, जिसके घर में उर्दू का माहौल रहा हो, जिसके घर में खाने-पीने और पहनने तक में उर्दू का इस्तेमाल होता हो, वो खुद को बेबस महसूस न करे, तो क्या करे। लेकिन मजबूर ये हालात इधर भी हैं और उधर भी हैं। अफ़सोस ये है कि उर्दू पहले भी बेबस थी, लेकिन नुक़्ते के चक्कर में दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत ज़ुबान ख़ुद को अपाहिज महसूस करने लगी है। शायद कोई तो ऐसा आयेगा जो उर्दू का दर्द समझेगा।
अबयज़ ख़ान

क्या आपने कभी अपनी बेटी की उम्र की किसी लड़की के साथ सेक्स किया है?
जवाब मिलता हैं.. हां।
क्या आप कभी अपने पति के अलावा किसी और के साथ गैर मर्द के साथ नाजायज़ रिश्ता बनाने की कोशिश करेंगीं?
जवाब मिलता है.. नहीं।

लेकिन ये जवाब गलत था। ये एक बानगी भर है उस प्रोग्राम की, जो आजकल स्टार प्लस पर आता है। अमेरिकी शो 'मोमेंट ऑफ़ ट्रुथ' की नकल पर शुरु हुए इस प्रोग्राम के ज़रिए हिंदुस्तान में सच की गंगा बहाने की कोशिश की जा रही है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र के इस मुल्क में जहां हज़ारों गुरु पंडितों और मुल्ला मौललवियों ने इस मुल्क की बुनियाद रखी, वहां आज लोगों को सच सिखाने की ज़रूरत पड़ रही है। जहां लाखों पीर-फकीर गंगा-जमुनी तहजीब की सीख देकर चले गये। वहां टीवी पर सच सिखाया जा रहा है। सच भी कैसा। बेडरूम का सच। नाजायज़ रिश्तों का सच। साजिशों का सच। मर्डर और दोस्ती में दरारों का सच। सेक्स और बेवफ़ाई के अजीबो-गरीब रिश्तों का सच। प्यार-मौहब्बत में नाकाम रहने का सच। फलर्ट करने का सच। सच भी ऐसा जिसमें सिर्फ़ मसाला हो, तड़का हो। वो भी किसलिए सिर्फ़ एक करोड़ रुपयों के लिए। और एक करोड़ भी तब मिलेंगे जब आप सभी 21 सवालों का सही जवाब देंगे। मुझे आचार्य धर्मेद्र की एक बात बहुत अच्छी लगी, कि आप पैसा देना बंद कर दो, लोग टीवी पर सच बोलना बंद कर देंगे। लोग टीवी पर पैसे के लिए सच बोल रहे हैं। प्रोग्राम के पीछे तर्क दिया जा रहा है, कि इसके आने के बाद लोग सच बोलने लगे हैं। मेरा उनसे यही सवाल है कि क्या इससे पहले समाज में लोग सच नहीं बोलते थे? क्या अब तक मुल्क और समाज की बुनियाद झूठ के ढर्रे पर चल रही थी? एक सच ये है कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता। आप भले ही यकीन न करें, लेकिन मुझे झूठ बोलना बिल्कुल पसंद नहीं है। आप सोच रहे होंगे कि मैं शायद स्टार प्लस पर आने वाले प्रोग्राम सच का सामना के बाद कुछ बदल गया हूं। आप सोच रहे होंगे कि इस प्रोग्राम के आने के बाद हिंदुस्तान में राजा हरिशचन्द्र कहां से पैदा हो गये। लेकिन जनाब ऐसा नहीं हैं। यहां सदियों से लोग सच का सामना करते हैं। अब अगर कोई राखी सावंत से सच बोलता है कि वो पहले से शादी-शुदा है, तो क्या ये सच का सामना का असर है। दरअसल ये भी एक ड्रामा था। जिसके पीछे भी था पैसे का बड़ा खेल। मतलब फुल ड्रामा। और फिर यहां जो भी शख्स सच बोलता है, उसकी पूरी फैमिली उसके सामने बैठती है। झूठ और सच के साथ ही उनके एक्सप्रेशन भी बदलते जाते हैं। ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि कोई पति या पत्नी अपनी बीस साल की शादी-शुदा ज़िंदगी में डर की वजह से अपने राज़ एक-दूसरे से शेयर ही न करे। और जब बात एक करोड़ मिलने की आती है, तो उसके राज़ परत दर परत सारी दुनिया के सामने खुल जाते हैं। मुझे याद है कि कई साल पहले राजेन्द्र यादव जी ने अपनी पत्रिका हंस में ऐसी ही एक सीरीज़ चलाई थी। जिसमें अपनी ज़िंदगी का कच्चा चिट्ठा लिखना था। मैगज़ीन बाज़ार में आई, लेकिन लेख छपते ही हल्ला मच गया। कुछ लोगों ने बड़े उतावले पन के साथ अपनी ज़िंदगी को तार-तार करने की कोशिश की थी। लेकिन नतीजा क्या निकला। हंगामा मचा, तो हंस को सीरीज़ ही बंद करना पड़ी। अफ़सोस ये है कि इस प्रोग्राम का भी वहीं हश्र न हो। सच का सामना करने के चक्कर में कहीं रिश्ते दरक न जाएं, और भरोसे पर टिका जिंदगी का घंरौंदा एक हल्के से झोके में ही ज़र्रा-ज़र्रा करके बिखर न जाए। सच के ठेकेदारों समाज पर कुछ तो रहम करो। क्योंकि कुछ झूठ ख़ूबसूरती के लिबास में ही अच्छे लगते हैं।
अबयज़ ख़ान


परदेस में रहके न अपने देश को भूलो तुम.
दूरियां बेशक रहें, पर दिल के तारों को जोड़ो तुम..
एक चिट्ठी तो कम से कम अपनी हम को लिख दो तुम
घर की मिट्टी बुला रही है, अब तो वापस आ जाओ
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तुम्हारा मनपसंद खाना, खलिहानों में गाना, गाना.
मुनिया के संग शरारत, फिर उसको बहलाना..
सूना-सूना है सारा आंगन, टूटा सबका मन.
रो-रो के कटती हैं रातें, रो-रोके कटते हैं दिन,
गांव के बच्चे बुला रहे हैं, अब तो वापस आ जाओ
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दादी की शकरकंद की खीर, दादा की आंखों में नीर.
पापा की थकी-थकी सी चाल, मम्मी की आंखों में आंसू
आमों का मौसम हो, या गन्ने के रस की मिठास.
सबकुछ फीका-फीका है, कोयल भी है अबकी उदास,
आम की बगिया बुला रही है, अब तो वापस आ जाओ..
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क्या शहर में तुमको याद नहीं आता गांव.
खेतों की पगडंडियां और मौहल्ले की सब लड़कियां..
छत की कच्ची मुंढेरों पर कबूतर उड़ाना
कंचों में बेमानी, लूडो में शैतानी
गणित में सिफ़र और स्कूल का डर
गांव के पोखर में डुबकियां लगाना
सब तुमको बुला रहे हैं अब तो वापस आ जाओ..
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क्यों भूल गये तुम इतनी जल्दी सब कुछ
गांव की टोली संग होली, ईद की सिंवइयां..
दीवाली के पटाखे और रंगोली..
रेशम की डोरी में लिपटा छोटी का प्यार
अपने बुला रहे हैं तुमको, अब तो वापस आ जाओ....
अबयज़ ख़ान

टीवी पर बीएसएनएल का एक एड आता था, जिसमें प्रीति जिंटा कहती थीं, कि अगर इनके पास बीएसएनएल का कनेक्शन नहीं है, तो वो इनके बेटे से शादी नहीं करेंगी। आजकल टीवी पर एक एड और आता है अमूल माचो का.. जिसमें एक लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते है और बेचारा लजाता, शर्माता हुआ उनके लिए चाय लाता है। उसके बाद दूसरी तस्वीर में दिखाया जाता है कि कैसे लड़की उसे बाइक पर बैठाकर घुमाने ले जाती है, लड़की स्पीड ब्रेक लगाती है। झटका खाकर बेचारा लड़की से टकराता है। तो एक और तस्वीर में बस में खड़े होकर सफ़र कर रहे एक लड़के को एक लड़की छेड़कर निकल जाती है और बेचारा शर्म से लाल हो जाता है। आखिर क्या ज़माना आ गया है। इतने तक तो ठीक था। लेकिन अब तो सबकुछ उल्टा हो रहा है। राखी सांवत के स्वंयवर के बारे में तो आप सभी जानते होंगे। इस स्वंयवर में नाटक है, रोमांस है, और एक्शन भी। लेकिन राखी के चाहने वालों को न तो इसमें धनुष तोड़ना है और न ही मछली की आंख पर निशाना लगाना है। पूरे फिल्मी ड्रामे से भरी इस कहानी में राखी को किसी हूर से कम नहीं पेश किया है। और लड़के, वो तो बेचारे ऐसे लगते हैं, जैसे किसी रानी के गुलाम। राखी की हर अदा पर झुककर सलाम करने वाले, राखी के झूठ को सच साबित करने वाले, राखी जी बल खाकर चलती हैं, तो बेचारे मुंडे उनके कदमों में बिछे चले जाते हैं। और अगर राखी साहिबा उनसे खुश हो गईं, तो खाने को मिलेंगे लड्डू। शादी के लड्डू के बारे में तो सभी जानते हैं, जो खाए वो पछताए और जो न खाए वो पछताए। लेकिन राखी के साथ सपने बुनकर सभी 16 राजकुमार लड्डू खाना चाहते हैं। और राखी उनके सामने ऐसे पेश आती हैं, जैसे मल्लिका-ए-हिंदुस्तान। हद तो तब हो गई, जब राखी को पाने के लिए वो आग के शोलों पर भी नंगे पांव गुज़र गये। और तो और स्वंयवंर में आई ईवेंट मैनेजर ने दूल्हों को चुनौती दी, कि एक-दूसरे की गर्दन में सरिया फंसाकर जो इसे मोड़ देगा, राखी जी उससे बेहद खुश होंगी। और बेचारे दूल्हों ने ऐसा भी किया। मरता क्या न करता आखिर राखी को जो पाना है।

राखी इतनी बोल्ड हैं कि शो में खुलेआम कह रही हैं कि मुझे इनके छूने से कोई फीलिंग नहीं हो रही है, इनके छूने से मुझे कुछ एहसास ही नहीं हुआ। ये सब जानते हुए भी कि इस शो को सारी दुनिया देख रही है। लेकिन ये तो राखी हैं, राखी को क्या, कुछ भी बोल सकती हैं। बेचारे कुंआरे अब खुद को भरी पब्लिक के सामने नामर्द समझें, या राखी को संतुष्ट करने के लिए किसी नीम-हकीम से मर्दानगी की दवा खरींदे। आखिर राखी को जो पटाना है। लेकिन राखी हैं, कि आराम से पटना ही नहीं चाहतीं। लड़के लाख मिन्नतें कर रहे हैं, इतना ही नहीं, राखी को पटाने के लिए बेचारे एक-दूसरे को भगाने के लिए उसी तरह की ख़तरनाक साज़िशें रच रहे हैं, जैसे किसी रियलिटी शो में लड़कियां एक-दूसरे के खिलाफ़ जाल बुनती हैं। लड़के राखी के सामने हाथ बांधे खड़े हैं, कब मैडम की मेहरबानी हो जाए और उनको मिठाई का डिब्बा मिल जाए। लेकिन मिठाई मिलना सबकी इच्छा नहीं है, हर कोई चाहता है कि राखी उसे वरमाला पहना दें। वाकई ज़माना बदल गया है, अब मां का लाडला अपने लिए बहू नहीं ढूंढ रहा है, बल्कि एक बहू अपने लिए पति ढूंढ रही है। अब पति परमेश्वर होगा, या पत्नी पतिव्रता, ये तो भगवान ही जाने। लेकिन ज़माना सचमुच बदल गया है।
अबयज़ ख़ान

मुर्गी ने आदमी के बच्चे को जन्म दिया है। सुनने में आपको थोड़ा अटपटा ज़रूर लगेगा, लेकिन ये ख़बर आई है मध्य-प्रदेश के रायसेन शहर से। एक टीवी चैनल पर ये ख़बर चलने के बाद दूसरे चैनलों के पत्रकार भी इसे कवर करने दौड़ पड़े। बिना ये जांच-पड़ताल किये, कि क्या एक मुर्गी भी इंसान के बच्चे को जन्म दे सकती है। मज़े की बात ये है कि इस पर किसी ने अपना दिमाग लगाने की ज़रूरत भी नहीं समझी। मामला मध्य प्रदेश में रायसेन के एक गांव बाड़ीकला का है। जहां से ख़बर आई कि यहां रहने वाले पतिराम नाम के शख्स के घर मुर्गी ने एक इंसान के बच्चे को जन्म दिया है। इस ख़बर के आने के बाद मीडिया वाले दौड़ पड़े। लेकिन डॉक्टरों के साथ ही आम लोगों का दिमाग भी चकरा गया। हर कोई ये सोच रहा था कि ऐसा भला कैसे हो सकता है।

मेरे चैनल में भी ये ख़बर आई, तो मैं भी इसे सुनकर चौंक गया। पहले तो ख़बर की आपा-धापी में यकीन ही नहीं हुआ। लेकिन जब इसकी तस्वीरें देखीं, तो माजरा समझते देर नहीं लगी। मुर्गी के साथ एक इंसान का चार इंच का भ्रूण दिख रहा था। जिसको लेकर ये दावा किया जा रहा था कि इंसान के इस बच्चे को मुर्गी ने ही जन्म दिया है। लेकिन मुर्गी को देखकर तरस आ रहा था, बेचारी अपने हाल पर बेबस थी, कैमरे की निगाहों के साथ ही उसे ज़माने की नज़रों का सामना भी करना पड़ रहा था।

बेज़ुबान परेशान थी, अपनी सफ़ाई में क्या कहे, किससे कहे और कैसे कहे। कैसे लोगों को बताए कि इसमें उसका कोई कसूर नहीं है, बल्कि इसका पापी तो कोई और है, जो अपने गुनाहों पर पर्दा ढकने के लिए मेरे दड़बे में इस भ्रूण को रखकर चला गया है। लेकिन जैसे लोग नासमझ थे, वैसे ही मुर्गी भी लाचार थी। उसका मासूम चेहरा देखकर उस बेचारी पर तरस आ रहा था। जो ख़ता उसने की ही नहीं उसका इल्ज़ाम उसके मत्थे मढ़ दिया गया था। और तो और उसका मालिक भी इस ख़बर को कैश कराने में लगा था। मुर्गी बेचारी के हर एंगल से शॉट्स बनाए जा रहे थे। वो तो बस नहीं चला, अगर मुर्गी बोल पाती, तो शायद उससे तमाम तरह के बेतुके सवाल भी पूछ लिए होते। हो सकता है कोई ये भी पूछ लेता, कि इस बच्चे का बाप कौन है? डॉक्टर भी बेचारे बोल-बोलकर परेशान थे, कि कुदरत के नियम में इस तरह का कोई खिलवाड़ नहीं हो सकता। भला मुर्गी भी कहीं इंसान के बच्चे को जन्म दे सकती है। लेकिन सुनने को कोई तैयार ही नहीं था। ये किस्सा बिल्कुल ऐसा ही था, जैसे हमने जर्नलिज्म में पढ़ा था कि अगर कुत्ता आदमी को काटे तो ख़बर नहीं है, लेकिन अगर आदमी कुत्ते को काटे तो ख़बर बन जाती है।
अबयज़ ख़ान


-जैसे सावन की घटा ज़रा सा बरसे और फिर धूप निकल आये।
-जैसे कोई मेहमान चंद रोज़ घर में क़हकहे बिखेर कर वापस चला जाए।
-जैसे छुट्टी का दिन आकर गुज़र जाए।
-जैसे त्योहार के रोज़ की शाम।
-जैसे दुल्हन की रुख़सती के बाद घर।
-जैसे किसी परदेसी की अलविदाई मुस्कुराहट।
-जैसे स्टेशन का प्लेटफ़ार्म छोड़ती ट्रेन।
-जैसे घर के सामने से गुज़रता हुआ डाकिया।
-जैसे वतन से बिछुड़ने की याद।
-जैसे भूले-बिखरे चंद ख़त।
-जैसे किताबों की रैक में अचानक कोई पुरानी तस्वीर मिल जाए।
-जैसे एलबम में मम्मी-पापा के साथ बचपन की फोटो।
-जैसे तावीज़ में दी हुई मां की दुआएं।
-जैसे परदेस में मिली पापा की प्यार भरी चिट्ठी।
-जैसे किसी मरने वाले के तह-दर-तह कपड़े।
अबयज़ ख़ान
तारीख पहली जुलाई, सुबह छह बजे अख़बार वाले की आहट से आंख खुली, उनींदी आंखों से दरवाज़ा खोला, तो चौखट पर हिंदुस्तान अख़बार पड़ा था। ख़बर के चस्के में अख़बार उठाया, तो उसके मास्ट हेड पर बड़ा सा लिखा था आज पहली तारीख है। साथ में कैडबरी चॉकलेट का एड भी था। बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ''खुश है ज़माना आज पहली तारीख है''। मतलब अगर पहली तारीख आती है, तो तनख्वाह मिलती है और आप चॉकलेट की पार्टी देते हैं। लेकिन अख़बार के इस एड को देखकर मेरा मन ख़राब हो गया। आखिर मेरी ज़िदगी में पहली तारीख़ कब आयेगी। तीन महीने हो गये पहली तारीख़ का इंतज़ार करते हुए। लेकिन ये पहली तारीख आना ही नहीं चाहती।


एक-एक दिन का इंतज़ार पहाड़ जैसा हो गया था। अख़बार और टीवी चैनल पर कैडबरी का एड मुंह चिढ़ा रहा था। नाच-गाकर पहली तारीख का जश्न मनाया जा रहा था, लेकिन अपने सीने पर तो सांप लौट रहा था। पहली तारीख तो अपने कैलेंडर में भी आई, लेकिन मोबाइल में मैसेज ही नहीं आया। कई बार उलट-पलट कर देखा शायद अब घंटी बजे, लेकिन किस्मत की घंटी बजना शायद अपने नसीब में था ही नहीं। उल्टे कर्ज़दारों ने घर की कॉलबेल बजाना ज़रुर शुरु कर दिया। मकान मालिक का दो महीने का किराया चढ़ चुका था, तो क्रेडिट कार्ड, मोबाइल, इंटरनेट, राशन और दूधवाले तक का बिल बकाया था। लेकिन पहली तारीख का सपना टूट ही नहीं रहा था।

सैलरी को लेकर कोई सीधा जवाब नहीं मिल रहा था, तो कभी तीन महीने की सैलरी मिलने के सब्ज़बाग दिखाए जा रहे थे। लेकिन मुझे खुद से ज्यादा इंडियन एयरलाइंस और सत्यम के लोगों की चिंता हो रही थी। उन लोगों को सैलरी मिलना तो दूर, नौकरियां जाने की भी नौबत आ चुकी थी। पत्रकार हैं, इसलिए उनका दर्द समझ में आता है, लेकिन अपना दर्द पूछने वाला शायद कोई नहीं है। सरकारें भी शायद कान बंद किये बैठी थीं। कंपनियां झूठी तसल्ली दे रही थीं, और बेबस कर्मचारी मन मसोस कर पहली तारीख का इंतज़ार कर रहे थे। दफ्तर में अजीब तरह का माहौल था। काम में किसी का मन नहीं लग रहा था। लेकिन काम तो करना ही था। तो घर पर बच्चे पापा की सैलरी का इंतज़ार कर रहे थे।

जुलाई का महीना शुरु हो चुका था, लुकाछिपी के बाद मानसून भी दस्तक दे चुका था। लेकिन पैसों की बरसात होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। जब दुनियाभर के मां-बाप अपने बच्चों को गर्मियां की छुट्टियों में तफ़रीह करा रहे थे, तो हमारे दफ्तर में लोग घर चलाने के लिए कर्ज़ का जुगाड़ करने में लगे थे। मां-बाप बच्चों को झूठी तसल्ली दे रहे थे, उनको अगली छुट्टियों में घुमाने के वादे किये जा रहे थे। लेकिन स्कूल खुलते ही बच्चों की फीस और एडमिशन का खर्च मुंह बाएं खड़ा था। तो मकान से लेकर गाड़ी तक की किस्त दिमाग की घंटी बजा रही थी। घरवालों की फ़रमाइशें पूरी करना तो दूर, दफ्तर तक आने के लिए किराए के भी लाले पड़ने लगे। कुछ लोग तो मजबूरन ऑफिस से छुट्टियां लेने को मजबूर हो गये।

हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। लेकिन किसी को भी हमारी फिक्र नहीं। ऊपर से सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ाकर एक और झटका दे दिया। अब पैदल चलने के सिवा कोई चारा नहीं था। लोग पहली तारीख को सैलरी मिलने पर भले ही जश्न मनाते हों, लेकिन यहां तो जश्न के बारे में सोचने की हिम्मत भी नहीं होती। कभी किसी से पांच रुपये उधार मांगने की नौबत नहीं आई, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ, जब दोस्तों के सामने उधारी के लिए हाथ फैलाना पड़ा हो। मजबूर ये हालात इधर भी थे और उधर भी। मंदी ने ऐसा मारा कि कमर कमान हो चुकी थी। दोस्त भी मंदी के मारे थे। पहली तारीख के सपने सब हवा हो चुके थे। पार्टियों में जाने के बजाए अब उनसे बचने की तरकीबें सोची जा रही थीं, इसी इंतज़ार में कि जल्द ही आयेगी पहली तारीख, लेकिन कब आयेगी ये किसी को पता नहीं है।