अबयज़ ख़ान
पप्पू अब फेल नहीं होगा, जब से ये ख़बर आई है, पप्पू के साथ-साथ उसके मां-बाप के चेहरे भी खिल उठे हैं। पंजे को वोट देने वाले मां-बाप को लग रहा है कि उनका वोट कामयाब हो गया है। पिछली दस साल से एक ही क्लास में पप्पू रिकॉर्ड बना रहा था, लेकिन न तो गिनीज़ बुक वाले उसका नाम दर्ज़ कर रहे थे और न ही लिम्का बुक में उनके बेटे का नाम छप रहा था। और तो और बोर्ड वाले भी उससे पीछा छुड़ाने के मूड में नहीं थे। लेकिन सरकार को पप्पू का ख्याल आया। उसके मां-बाप के आंसुओं का ख्याल आया, जो पिछले दस साल से इस बात का इंतज़ार कर रही थीं, कि इस बार तो उनका लाडला दसवीं की सीड़ी पार कर ही लेगा।


लेकिन जब से वो गाना आया कि मां का लाडला बिगड़ गया, पप्पू और आवारा हो गया था। मां-बाप से लेकर पप्पू के यार-दोस्त तक इस इंतज़ार में थे, कि कब पप्पू पास होगा और उन्हें मिठाई खाने को मिलेगी। लेकिन पप्पू ने तो जैसे कसम खा ली थी। वो तो भला हो, बहन मायावती और कपिल सिब्बल जी का। सिब्बल जी ने दसवीं से बोर्ड ख़त्म कराने का सुझाव दिया, तो बहन जी ने फटाफट अपने स्टेट में ये फ़रमान लागू भी कर दिया कि अब दसवीं में कोई फेल नहीं होगा। अगर छह में से पांच सब्जेक्ट में भी पास होते हैं, तो अगली क्लास के लिए बेड़ा पार। मतलब ये कि पप्पू की दस साल की तपस्या रंग लाई। लेकिन कुछ बच्चे तो ऐसे भी हैं, जो पप्पू नहीं बनना चाहते। उनको तो एक्ज़ाम का ऐसा कीड़ा सवार है कि पूछिए मत।

इधर मंत्री जी ने ऐलान किया, उधर टीवी कैमरे बच्चों के पीछे दौड़ पड़े। हर किसी को उनकी बाइट की फिक्र थी, बहुत से पप्पू कैमरों के सामने चहक रहे थे, कि बढ़िया हुआ, अब झंझट से मुक्ति मिली। फेल-पास का चक्कर ही ख़त्म हो गया। कोई माया जी को कोटि-कोटि नमन कर रहा था, तो कोई सिब्बल साहब को साधुवाद दे रहा था। चलो किसी ने तो हमारी सुनी। किसी ने तो हमारा दर्द समझा। आखिर जो पप्पू घिसट-घिसट कर दसवीं के बाद की गिनती भूल गया था, अब कम से कम ग्यारह पर तो आयेगा।

लेकिन बहुत से पड़ाकू शायद इससे खुश नहीं थे,वो सिर्फ़ अपने ही बारे में सोच रहे थे, उनके लिए बिल्कुल नहीं, जिनके बाप-दादा भी बेटे के दसवीं पास होने का सपना देखते-देखते गुज़र गये।
पप्पू स्कूल से बाहर निकल गया, शादी के बाद पप्पू के बच्चे भी दसवीं में आ गये, और अब पप्पू अपने बच्चों के साथ उसी क्लास में है। हद तो तब हो गई, जब बच्चे पार कर गये और पप्पू किनारे पर ही रह गये। लेकिन अगर सिब्बल साहब की चली, तो उनकी ज़िंदगी में भी आयेगा एक सुनहरा दिन जब उनके मौहल्ले में भी बटेगी मिठाई और फिर हर कोई कहेगा कि पप्पू पास हो गया।
अबयज़ ख़ान
ये बच्चे नहीं पटाखा हैं। ज़ीटीवी पर आजकल एक शो आ रहा है लिटिल चैंप्स। इसमें शामिल सभी 12 बच्चे एक से बढ़कर एक हैं। इतनी कम उम्र में इन बच्चों को सुरों की इतनी समझ है, कि अच्छा-अच्छा आदमी दांतो तले उंगली दबा ले। लेकिन यहां पर नई बात ये नहीं है। बल्कि दिलचस्प तो ये है कि इस प्रोग्राम में एक छोटी से एंकर है, जो अच्छे-अच्छों की छुट्टी कर सकती है। दरअसल अफशां नाम की ये बच्ची आई तो थी सिंगर बनने, लेकिन उसकी हाज़िर जवाबी देखकर अभिजीत और अलका ने उसे एंकर बनाने का फैसला कर लिया। अफ़शा मुसानी नाम की ये बच्ची जब स्टेज पर एंकरिंग करती है, तो बड़ों-बड़ों के कान काट लेती है।

चार या पांच साल की इस बच्ची को देखकर यकीन ही नहीं होता कि ये अपनी उम्र से इतनी ज्यादा समझदार है। यूं तो स्टेज पर खड़े होना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती, लेकिन अफ़शां मुसानी की अदाकारी में वो कॉंफिडेंस है कि पूछिए मत। उसकी हाज़िर जवाबी का आलम ये कि अभिजीत और अलका याज्ञिक तो क्या बड़े-बड़े धुरंधर उसके सामने खुद को चित्त समझते हैं। दिलचस्प नज़ारा तो तब देखने को मिला था, जब मुंबई की ये बच्ची सिंगर बनने के लिए ऑडिशन देने आई थी। लेकिन ऑडिशन के दौरान उसने वो मस्ती की, कि आयोजकों का इरादा ही बदल गया। जब ऑडिशन के दौरान अलका याज्ञिक ने उससे सवाल पूछे, तो उसने ऐसे चटपटे जवाब दिये कि हर कोई उसके जवाबों पर लोटपोट हो गया।

बच्ची के जवाबों पर हंसते हुए अलका ने उसकी मम्मी से पूछा कि इसके जन्म के वक्त आपने क्या खाया था, तो उससे पहले ही अफ़शां बोल पड़ी, मेरी मम्मी ने बड़ा-पाव खाया था। मैं इस प्रोग्राम को लगातार देखता हूं, सिर्फ़ इसी को नहीं बल्कि बच्चों से जुड़े शायद सभी प्रोग्राम। इसकी एक वजह भी है। जो काम हम अपने बचपन में नहीं कर पाए, उन्हें ये बच्चे इतने कॉन्फिडेंस से पूरा कर रहे हैं कि सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। दरअसल हमारे ज़माने में न तो इतनी सुविधाएं थीं और न ही हमारे घरवालों ने प्रतिभा को तराशने की ज़रूरत महसूस की। अगर कभी छिपकर टीवी देख लिया, या कॉमिक्स पड़ ली, तो समझिए धुनाई होना पक्की बात थी। और अगर कहीं क्रिकेट खेलने चले गये, तो समझिये उस दिन शामत तय थी।

मां-बाप को बस एक ही चीज़ से मतलब था, कि बच्चे पढ़कर नवाब बनें। लेकिन आज ज़माना बदल गया है, आज के बच्चे कहते हैं कि पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे ख़राब और खेलेगो कूदोगे, तो बनोगे नवाब।। और ऐसा हो भी रहा है, आज़ के ज़माने के बच्चे तो रफ्तार से भी तेज़ दौड़ रहे हैं। साथ में उनके मां-बाप भी कदम से कदमताल मिलाकर अपने बच्चों के लिए खून-पसीना एक कर रहे हैं। कलर्स पर बालिका वधु और सलोनी धूम मचाए हुए हैं, तो कई चैनल्स बच्चों को लेकर प्रोग्राम बना रहे हैं। अब ये बच्चों के टैलेंट का कमाल है, या बाज़ार की बढ़ती मांग। अब एनिमेटिड प्रोग्राम और कार्टून नेटवर्क बच्चों की फेवरिट लिस्ट में नहीं हैं। अब वो खुद स्टेज पर खड़े होकर अपने सुरों का संग्राम छेड़ रहे हैं, तो ठहाकों से लोगों के मन में गुदगुदी पैदा कर रहे हैं।

आमिर खान की फिल्म तारे ज़मीं पर को शायद ही कोई भूला होगा, जिसमें नन्हें दर्शील सफ़ारी ने अपनी एक्टिंग से दर्शकों को रोने पर मजबूर कर दिया था। तो स्लमडॉग मिलेनियर के अज़हर और रुबीना को कौन नहीं जानता, जो अपनी एक्टिग की वजह से आज देशभर में नाम कमा रहे हैं। इन बच्चों को इतनी कम उम्र में नेम-फ़ेम-गेम मिल गया जब इनमें से कई को अपना नाड़ा बांधना भी नहीं आता होगा। पहले मां-बाप अपने बच्चों से अपना नाम रोशन करने के लिए कहते थे, लेकिन आज उनकी पहचान अपने बच्चों से ही है। आज सलोनी, अविका, अज़हर, रुबीना, दर्शील ओर अफ़शां के मां-बाप को उन्हीं की वजह से पहचान मिली है। ये बच्चे अब ख़बर बनते हैं, इनकी हर हलचल पर मीडिया की नज़र रहती है। इनकी हर हलचल, टीवी चैनल्स की हेडलाइन बनती है। ये बच्चे वाकई लाजवाब हैं, इनकी कामयाबी देखकर रश्क होता है। इनको देखकर लगता है कि हिंदुस्तान सचमुच तरक्की के रास्ते पर बढ़ चला है। ये बच्चे उधम नहीं मचा रहे हैं, बल्कि ये तो धूम मचा रहे हैं। इन बच्चों को देखकर कई बार मन होता है कि इन्हें किसी म्यूज़ियम में रख लूं, तो कई बार खुद से भी जलन होती है। कि हम बचपन में इतने बुद्धु कैसे रह गये।
अबयज़ ख़ान
22 मई 2009 की तपती दोपहरी थी... सूरज क़हर बरसा रहा था। हर तरफ़ आग ही आग बरस रही थी। दफ्तर से मन उचट चुका था, तो ज़िंदगी में भी घमासान मचा हुआ था। दिल और दिमाग दोनों ही काम नहीं कर रहे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। किसी से बात करके भी मन का बोझ हल्का नहीं हुआ, तो दफ्तर से छुट्टी ले ली। पहले समझ नहीं आया कि क्या करूं, फिर अचानक मन में आया कि चलो कहीं घूम लिया जाए। तभी अचानक पापा का फोन आया कि वो जयपुर जाना चाहते हैं, पापा ने फोन पर पूछा, क्या तुम भी चलोगे? मैंने हां कर दी। पापा के साथ मैं भी राजस्थान टूर पर निकल पड़ा। गर्मी झुलसा रही थी, लेकिन मन बहलाने के लिए घूमने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।

देर शाम जयपुर पहुंचा, तो हम लोग छोटे भाई के कमरे पर रुके। फ्रेश होने के बाद कुछ देर इधर-उधर की बातें की, उसके बाद हम तीनों घूमने निकल गये। जयपुर का किला और हवामहल देखने के बाद भी मन उदास ही था। सीने पर एक बड़ा बोझ था, जो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। देर शाम जयपुर के मशहूर इस्माइल रोड पर भी निकले, बाज़ार भी घूमा, सोचा कुछ ख़रीदारी कर लूं, लेकिन जयपुर में मन रमा नहीं। इसके बाद अगला पड़ाव था अजमेर। मशहूर ख्वाजा संत मोईनुद्दीन चिश्ती का शहर। पहाड़ी पर बसे इस शहर में चढ़ाई ने काफ़ी थका दिया। वैसे भी जयपुर से अजमेर का रास्ता करीब तीन घंटे से ज्यादा का था। थकान तो पहले से ही थी। अजमेर पहुंचा तो दरगाह जाना भी ज़रूरी था। लेकिन दरगाह पर पहुंचते ही ऐसा लगा कि हम कहां आ गये।

मज़ार पर मन्नतों के लिए हज़ारों ज़ायरीन पहुंचे थे, लेकिन मज़ार पर पैसों का खेल देखकर एक बारगी खुद को झटका लगा, कि क्या यही ख्वाजा का दरबार है, जहां कदम-क़दम पर लोग पैसे उगाहने के लिए खड़े थे। शुरुआत चप्पलों से हुई, जिसके पांच रुपये देना पड़े। उसके बाद गेट पर खड़े लोग किसी भी तरह पैसे लेने के लिए उतावले थे। कोई फूलों के बहाने पैसे ले रहा था, तो कोई ख्वाजा के दर पे लंगर कराने के नाम पर पैसे मांग रहा था। इन सब से निकलकर जब ख्वाजा की मज़ार पर पहुंचे, तो वहां एक औरत के चीखने की आवाज़ सुनी। मालूम किया तो पता चला कि उससे भी लोग ज़बरन पैसे उगाहने में लगे थे। अफ़सोस हुआ कि ये लोग मुसलमानों की कैसी इमेज बना रहे हैं। मुझे याद आये दिल्ली के लोटस और अक्षरधाम टैंपिल जहां न तो कोई टिकट लगता है, उल्टे आपके जूते-चप्पल भी हिफ़ाज़त से रखे जाते हैं। लेकिन ख्वाजा के दर पर कुछ लोग मुसलमानों की इमेज को ख़राब करने में लगे थे। आज अगर ख्वाजा देखते होंगे तो उन्हें भी इस हालत पर अफ़सोस तो होता ही होगा।

ख़ैर यहां से आगे बढ़े तो प्यार-मोहब्बत के शहर आगरा का रुख किया। ट्रेन ने जैसे ही आगरा शहर में एंट्री की, बदबू के मारे जीना मुश्किल हो गया। समझ नहीं आया कि हम उसी शहर में दाख़िल हो रहे हैं, जहां दुनिया का सातवां अजूबा हैं। रेलवे लाइन के किनारे बिखरी गंदगी ने नाक पर रुमाल रखने को मजबूर कर दिया। बदबू से बचते हुए बड़ी मुश्किल से स्टेशन पहुंचे, तो उसके बाहर का हाल भी पूछिए मत। हर तरफ़ गंदगी ही गंदगी का नज़ारा। लालू जी ने रेल को तो प्रोफिट में ला दिया, लेकिन गंदगी देखकर प्रोफ़िट का राज़ समझ में आ गया। ताज के रास्ते में तो गंदगी का वो आलम था, कि पूछिए मत। बड़ा अफ़सोस हुआ वहां की हालत पर, गंदगी देखकर मन में ख्याल आया कि आखिर क्या सोचते होंगे परदेसी महमान इस शहर के बारे में।

लोकिन ताज पर पहुंचकर सारी थकान काफ़ूर हो गई। आलमपनाह की बेपनाह ख़ूबसूरत इमारत देखकर दिल बाग़-बाग हो गया। प्यार की इतनी खूबसूरत निशानी तो क्या, मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसा शानदार अजूबा भी नहीं देखा था।
शाहजहां ने अपनी महबूबा को प्यार का वो तोहफ़ा दिया था, जिसे शाहजहां और मुमताज तो क्या इस दुनिया में आने वाला हर शख्स ताउम्र याद रखेगा। आज के दौर में न तो कोई ऐसा प्यार करने वाला शाहजहां मिलेगा और न ही कोई इतनी किस्मत वाली मुमताज़ महल होगी। और न ही कोई ऐसा दिलखर्च शहंशाह होगा। जो अपनी महबूबा के लिए मरने से पहले ही सफ़ेद पत्थर का हसीन मकबरा बनवा सकता हो। दुनिया का ये अजूबा वाकई लाजवाब है। अनमोल है, बेशकीमती है। दुनिया में इस जैसी इमारत न तो कोई बनवा सकता है और न ही शायद बनवा पाएगा। सफ़ेद संगमरमर से बनी ये इमारत उस प्यार की कहानी को अमर कर रही है, जो आज से लगभग चार सौ साल पहले लिखी गई थी। और उस ज़माने में लिखी गई थी, जब प्यार को किसी गुनाह के दर्जे में रका गया था। इस कहानी में सिर्फ़ प्यार का टिव्स्ट नहीं था, बल्कि ये तो चार सौ साल का इतिहास भी समेटे हुए थी।

पहली बार में तो ताज को देखने पर आंखें चकाचौंध से भर जाती हैं। यकीन ही नहीं होता कि अपने मुल्क में भी इतना नायाब नमूना है, जिसे देखने दुनियाभर से हर साल लाखों लोग हिंदुस्तान के इस शहर में आते हैं। वाकई ये अपने आप में लाजवाब है। ताज नगरी के बाद मैंने घर लौटने का फैसला कर लिया, क्योंकि इस हसीन इमारत को देखने के बाद फिर कहीं और जाने का मन ही नहीं हुआ। ताज की मीठी-मीठी यादों के साथ आगरा का मशहूर पेठा ख़रीदकर मैंने इस शहर से से विदाई ली, और फिर चल पड़ा अपने घर के लिए। जहां मां बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रही थीं। हर बार की तरह इस बार भी उनके पास मुझसे करने के लिए ढेर सारी बातें थीं, मेरे लिए उनकी रसोई में ढेर सारे पकवान भी इंतज़ार कर रहे थे... बस फिर क्या था, मैंने आगरा से पकड़ी बस और फिर इस शहर को अलविदा कहकर अपने घर के लिए रवाना हो गया। और आगरा की यादें कहीं पीछे छूट गईं।