अबयज़ ख़ान

हर आंख नम है... हर दिल में ग़म है... ख़ून से सने बस्तों में नन्हें हाथों से लिखी इबारतें रो रही हैं...  कॉपी, किताबें, कलम-दवात, स्कूल की बेंच और कुर्सियां... दरो-दीवार सब रो रहे हैं। गणित के खूंसट सर, अंग्रेज़ी की मैडम, उर्दू के मास्साब, बड़े से चश्मे वाले इतिहास के टीचर, गेट का दरबान, स्कूल के खेल का मैदान... ज़मीन से लेकर आसमान तक हर आंख नम है।
क्लासरूम के रोशनदान में घोंसला बनाने वाले कबूतर, काबक में बैठी चिड़ियों के बच्चे सब रो रहे हैं... जो बच्चे मां से शाम को आने का वादा करके गये थे, वो हमेशा-हमेशा के लिए उससे रूठ कर उस जगह चले गये.. जहां से कोई लौटकर नहीं आता। मां से बिस्तर में दुबककर जन्नत की कहानियां सुनते-सुनते बच्चे सीधे जन्नत ही चले गये। 

अब कुछ बाकी है... तो सड़कों पर दर्द का समंदर है। इंसान तो छोड़िये शहर में खड़े पत्थरों के बुत आंसुओं से पिघल चुके हैं... शहर की तमाम गलियां इस तरह सूनी हैं.. जैसे उनकी ज़ुबान को ताला लग चुका है। पेशावर के तमाम पार्कों में अब सिर्फ़ सन्नाटा है। आज शाम ढलने वाली है.. लेकिन कोई बच्चा खेलने नहीं आया है....  लोगों की ज़ुबान बोलते-बोलते लरज़ रही है... आंखों से अश्क ज़ार ज़ार बह रहे हैं...

132 मासूमों की लाशों का ढेर लगा है.. लेकिन एक मां है... जो इस कब्रिस्तान में भी अपने जिगर के टुकड़े को तलाश रही है। मां जानती है.. कि इन बेबस लाशों में अब सांसों का कोई नामों निशां बाकी नहीं है...  मां जानती है... कि अब नन्हा सा खिलौना लेकर भी उसका बच्चा आंख नहीं खोलेगा। नई साईकिल देखकर भी उसका जिगर का टुकड़ा उससे नज़र नहीं मिलाएगा.. 

लेकिन ताबूतों के इस ढेर में उसकी उम्मीद अभी बाक़ी है। उसका लख्ते जिगर अब उससे कभी बात नहीं करेगा... उसका बच्चा अब उससे कभी कोई नख़रा नहीं करेगा... जिस बच्चे को मां बचपन में चांद-तारों की कहानियां सुनाती थी, अब वो उन्हीं चंदा मामा के पास चला गया है।  आज घर में उसकी पसंद की खीर बनाई थी... आज घर में बड़े अरमान से नरगिसी कोफ़्ते बनाए थे। आज तो बच्चे के लिए कीमे वाली कचौड़ियां भी बनाईं थीं... लेकिन मां को अभी उम्मीद है... उसकी हिम्मत अभी टूटी नहीं है। टूटती सांसों में उसकी उम्मीद अभी बाक़ी है।
लाशों के ढेर में मां अपने बच्चे का बस्ता तलाश रही है.. ये देखने के लिए कि कल जो उसने घर पर स्कूल का काम किया था, उसमें उसे मैडम से गुड मिला या नहीं... ये देखने के लिए कि मैडम ने डायरी में उसकी तारीफ़ में चंद अल्फ़ाज़ लिखे या नहीं... ये देखने के लिए कि आज भी उसके बच्चे ने टिफ़िन से खाना खाया था या नहीं... लेकिन मां ने जब कांपते हाथों से अपने मासूम का बस्ता खोला तो उसका कलेजा मुंह को आ गया..
मां ज़ोर ज़ोर से चीखें मार रही थी... उसकी दहाड़ हर किसी का कलेजा चीर रही थी... उसके बच्चे का बस्ता जगह जगह से छलनी हो चुका था.. कॉपी किताबें रोशनाई के बजाए खून से रंगी थीं... टिफ़िन में सुबह के दो पराठे और आम का अचार वैसा ही रखा था, जैसा उसने दिया था... हर रोज़ की तरह आज भी उसके लाडले बच्चे ने खाना नहीं खाया था... आज उसने लंच में खाने के बजाए सीने पर गोलियां खाई थीं... 
उसकी गोद में पला-बड़ा उसका बच्चा उससे दूर चला गया.. बिना कोई शिकवा किये... बिना कोई गिला किये... बिना किसी फ़रमाइश के...  लेकिन उस मासूम ने तो जल्लादों की हूरों के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी थी... उसे शिकायत तो अल्लाह से भी थी, जब हैवान उसके बच्चों का सीना गोलियों से छलनी कर रहे थे.. और वो ख़ामोशी की चादर ओढ़े इस ख़ौफ़नाक मंज़र का गवाह बना था...

ऐ-अल्लाह अब सब्र का पैमाना छलकने लगा है...