अबयज़ ख़ान
पिता और पति.. दुनिया के किसी भी समाज के लिए इनकी वेल्यू एक जैसी ही है... एक मर्द की तमाम ज़िंदगी इन दो अल्फ़ाज़ों का बोझ ढोते-ढोते गुज़र जाती है... समाज में जब रिश्तों को नाम देने का चलन आया होगा, तो किसी को इस बात का गुमान नहीं होगा, कि जितने छोटे ये अल्फ़ाज हैं, उससे दस गुना ज्यादा बड़ी इनकी ज़िम्मेदारी होगी। आप सोच रहे होंगे कि मैं आपको अल्फाज़ों की बाजीगरी सिखाने की कोशिश कर रहा हूं... लेकिन मेरा ऐसा मकसद कतई नहीं है... मेरी कोशिश होती है, कि हर बार कुछ अलग सा लिखूं, बहुत दिन से कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखूं... लेकिन मंदी की मार ने इन दो अल्फ़ाज़ों पर ही लिखने को मजबूर कर दिया..

हुआ यूं कि जब मंदी की मार ने एक पूरे दफ्तर को ही तबाह कर दिया, तो बुरे वक्त में साथी ही एक-दूसरे को दिलासा देने की कोशिश कर रहे थे। हमेशा की तरह मैं टेंशन से दूर रहकर माहौल को हल्का करने की कोशिश कर रहा था... लोग एक दूसरे के साथ हमदर्दी के दो बोल बोलकर साथियों का गम बांट रहे थे। जो लोग अपना घर-बार छोड़कर दिल्ली जैसे अजनबी शहर में थे उनके साथ हमदर्दी कुछ ज्यादा थी। बातचीत के दौरान ऑफिस में ही मेरी एक साथी के मुंह से निकला, यार हम लड़कियों का तो कुछ नहीं, किसी तरह एडजस्ट कर लेंगे, लेकिन तुम लड़कों का क्या होगा... जो घर से दूर एक अजनबी शहर में अपने सपनो का घर बसाने आये थे। उसकी इस बात पर मुझे हंसी आ गई.. मैंने माहौल को हल्का करते हुए कहा, कि हां तुम सही कहती हो, लड़कियों को तो गॉड गिफ्ट मिला है, उनको तो कोई पालनहार मिल ही जाता है...

बचपन से जवानी तक पिता के कंधों पर ज़िम्मेदारी... और जवानी के बाद ये ज़िम्मेदारी बेचारे पति नाम के प्राणी पर आ जाती है। सिर्फ़ हिंदी की एक मात्रा का फर्क है...गौर से देखिए तो पिता में प पर लगने वाली छोटी इ की मात्रा... लड़की के जवान होते-होते पति के त पर लग जाती है... और ये छोटा सा लफ्ज बोझा ढोते-ढोते कमान बन जाता है... लेकिन तीर निशाने पर ही लगता है... अपनी पत्नी की ज़िम्मेदारी निभाते-निभाते ये छोटा सा अल्फ़ाज़ आगे जाकर फिर पति से पिता बन जाता है... और ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है... पति बनकर पहले अपनी हमशीरा के नाज़-नखरे उठाना... फिर जब एक वक्त बाद आपके घर में किलकारियां गूंजने लगती हैं.. तो फिर दूसरी ज़िम्मेदारी आपके सामने हाथ फैलाकर खड़ी होती है... मंदी के इस दौर में अगर एक लड़की की नौकरी चली भी जाती है, तो क्या फर्क पड़ता है..

मां-बाप कुछ दिन बाद अपनी लाडली बिटिया के एक लिए सुंदर सुशील गृहकार्य दक्ष लड़का ढूंढ ही लाते हैं... और मान लीजिए लड़की का रिश्ता जिस लड़के से तय हुआ है, अगर उसकी नौकरी चली जाती है, तो बेचारे गरीब को तो नौकरी के साथ-साथ छोकरी से भी हाथ धोना पड़ता है... फिर चाहे लड़का लाख मिन्नतें करे, लेकिन कोई उस बदनसीब को एक मौका देने को तैयार नहीं होता... हारकर बेचारे को फिर उतरना पड़ता है एक और अग्नि-परीक्षा के लिए। हालांकि कुछ लड़कियां बहुत खुद्दार भी होती हैं, जो चाहती हैं कि वो भी कमाकर अपने हाथ-पैरों पर खड़ी हों और उनके सपनों की भी एक दुनिया हो, लेकिन पति उनको भी ऐसा ही चाहिए जो खूब कमाता हो, जिसका अपना बंग्ला हो, गाड़ी हो, बैंक-बेलेंस हो, जो शादी के बाद हनीमून पर उन्हें विदेश की सैर कराए, और जो उनके सपनों को पंख लगा सके।

क्या है कोई ऐसी लड़की जो किसी निकम्मे लड़के को अपना दूल्हा बनाएगी? या है कोई ऐसा परिवार जो किसी निकट्ठू को अपना दामाद बनाएगा? चाहे लड़की नौकरीपेशा ही क्यों न हो, चाहे उसका परिवार करोड़ो में ही क्यों न खेलता हो। जवाब होगा नहीं.. क्योंकि समाज ने ऐसी परंपरा बना दी है। और इसका पालन वो लोग भी सीना ठोंककर करते हैं, जो समाज में बदलाव की बात करते हैं। पिता और पति के ये दोनो कैरेक्टर लड़कियों के लिए इकॉनॉमिक सपोर्टर का रोल ही नहीं निभाते, बल्कि उन्हे तो उनके सिक्योरिटी गार्ड का रोल भी निभाना पड़ता है... पहले पिता अपनी बेटी के साथ साया बनकर चलता है, फिर मियां अपनी बेगम को ज़माने भर की निगाहों से बचाने में लगे रहते हैं। हालांकि मैं खुद इससे इत्तेफाक नहीं रखता, क्योंकि आज की लड़कियां इतनी कमज़ोर नहीं हैं, कि उन्हे किसी सिक्योरिटी गार्ड की ज़रूरत पड़े... इसके लिए आदिम युग का वो समाज ज़िम्मेदार है, जिसने हमेशा उनकी आज़ादी पर लगाम लगाने की कोशिश की है। और मर्द ज़ात का खौफ दिखाकर उनके अरमानों का गला घोंटा है। हालांकि इसमें बेचारी लड़कियों का कोई दोष नहीं है, ये तो समाज ही इतना गब्दू है.. कि आज भी सब चलता है से आगे ही नहीं बढ़ना चाहता....।