अबयज़ ख़ान


जब कभी तन्हाई घेर लेती है
घर याद आता है, आंख भर आती है
दोस्त बचपन के बहुत याद आते हैं
तकिये में मुंह छिपाकर फिर ख़ूब रोते हैं
जब शैतानियां आंखों के सामने आती हैं
बचपन में चोरी और आईसक्रीम की ज़िद
धूप में क्रिकेट और गुल्ली डंडे का खेल
तपती दोपहरी में पेड़ों पर उछलकूद
गली के बच्चों संग किसी बूढ़े को चिढाना
और फिर डरके पापा की टांगों में छिप जाना
शहद के छत्ते पर गुलेल चलाना
मौहल्ले को सारे अपने सिर पर उठाना
बहाने से निकलकर घर से भाग जाना
जब चाहें खाना, जब चाहें सोना
फिर स्कूल से निकलकर कॉलेज के दिन
ट्रेन से आना और रोज़ ट्रेन से जाना
पंख लगाकर गुज़र गया वक्त
फिर नौकरी की तलाश में बड़े शहर का रुख़
और ट्रेन की खिड़की से छूटता हुआ घर
फिर पापा और मम्मी की अलविदाई मुस्कुराहट
जब याद आती है, तो आंख भर आती है
बचपन के सपने अब हवा हो गये सब
अब देर रात सोना और सुबह जाग जाना
काम के बोझ तले याद नहीं कुछ भी
पैसे की चकाचौंध में रिश्ते भी छूट गये
अब जब कभी तन्हाई घेर लेती है
घर याद आता है, आंख भर आती है।
अबयज़ ख़ान
अबयज़ ख़ान


जब तुम मिले थे एक अजनबी की तरह
मुझे नज़रें तरेरकर देखा था इस तरह
जैसे आपके लिए मैं कोई अजूबा हूं
उस नज़र में हिकारत थी, या प्यार
ये मैं नहीं जानता, लेकिन
मुलाकातों का सिलसिला
ख्यालातों से मिलने लगा
एक-दूसरे का दर्द हमें और करीब ले आया
बात निकली तो दुखों का सैलाब उमड़ने लगा
तुम्हारा साथ पाकर मैं कुछ संभल सा गया
और मेरा साथ पाकर तुम भी संभलने लगे
फिर ज़िंदगी का बोझ कुछ हल्का सा हुआ
लेकिन जैसे दुनिया की रिवायत है
बात-बात पर लड़ना-झगड़ना
रूठना-मनाना फिर लड़ना-झगड़ना
फिर शिकवे-शिकायत और मान मनौव्वल
और फिर कभी बात न करने की कसमें
फिर रूठकर ख़ुद ही मान जाना
तुम्हारी यही अदा मुझे बेहद पसंद है
लेकिन इसमें हिकारत नहीं है
इसमें है प्यार और सिर्फ़ प्यार, लेकिन
दोस्ती और प्यार के बीच का ये रिश्ता
अब तक परवान न चढ़ सका, क्योंकि
न तुमने पहल की, और न मैंने इब्तिदा
लेकिन ज़माने को फिर भी ख़बर हो गई
और हम आज भी अजनबी हैं पहले की तरह
जैसे तुम मिले थे, मुझे एक अजनबी की तरह
अबयज़ ख़ान
मौहब्बत में ग़ज़ल भी लिखना आ गई
मेहराऊ तो नहीं मिली, जेब ख़ाली हो गई
पित्ज़ा, बर्गर और फ़िल्मों में पैसे फ़िज़ूल हुए
नाकाम हुए तो क्या हुआ, अक्ल ठिकाने आ गई।


मौहब्बत में ग़ज़ल भी लिखना आ गई
प्यार-मौहब्बत के समंदर में गोते भी लगा लिए
कई बार डूबे भी, तो पार भी पा लिए
नाकाम हुए तो क्या हुआ, तैराकी तो आ गई।


मौहब्बत में ग़ज़ल भी लिखना आ गई
शक्ल पे साढ़े तीन बजे, हालत ख़स्ता हो गई
इश्क के चर्चों से ज्यादा अपने खर्चे हो गये
नाकाम हुए तो क्या हुआ पब्लिसिटी तो हो गई।


मौहब्बत में ग़ज़ल भी लिखना आ गई
चेहरे की रंगत उड़ी, महफ़िल की रौनक गई
शायर भी बने, मजनू भी और पागल हो गये
नाकाम हुए तो क्या हुआ शायरी तो आ गई।


मौहब्बत में ग़ज़ल भी लिखना आ गई
दोस्त सब विदा हुए, इश्क में बीमार हुए
कंगाली के दौर में घरवाली भी आ गई
नाकाम हुए तो क्या हुआ, ज़िम्मेदारी आ गई।


अबयज़ ख़ान
अबयज़ ख़ान
अख़बार में शादी के इश्तेहार अक्सर एक जैसे ही होते हैं। एकदम बोरिंग से, कुछ भी नयापन नहीं। हर इश्तेहार में वहीं लिखा होता सुंदर, सुशील गृहकार्य दक्ष लड़की चाहिए। लड़का अच्छी नौकरी में हो। वेतन पांच अंकों से ज्यादा हो। वगैरह-वगैरह। लेकिन अब वक्त के साथ बहुत कुछ बदल रहा है। अब लड़कियों को ऐसा वर चाहिए जो ''सुंदर, सुशील, और गृहकार्य में दक्ष होना चाहिए''। मतलब दूल्हा तो मिले लेकिन वो मनमाफ़िक होना चाहिए। सैलरी तो पांच अंको से कम किसी भी कीमत पर मंज़ूर नहीं। इस पर भी तुक्का ये है कि अगर आपके घर में बीएसएनएल का फोन है, तभी आपको कोई प्रीति जिंटा जैसी हूरपरी मिलेगी। वरना आप तो बस नींद में ही सपने देखते रहो। क्या ज़माना आ गया है, लड़के आज भी बेचारे गऊ जैसे हैं। और लड़कियां तो बस पूछो मत। पसंद-नापसंद, प्यार-इश्क और प्रेम-मौहब्बत जैसे अधूरे शब्द तो अब हवा हो गये। कमाल की बात तो ये है कि इश्क, मौहब्बत, प्रेम, और प्यार अपने आप में ही आधे-अधूरे हैं। जबकि प्यार का दुश्मन लफ्ज़ बेवफ़ाई इसी घमंड में चूर है, कि न सिर्फ़ वो अपने आप में पूरा है, बल्कि अपने दम पर किसी की रूमानी कहानी में दीवार भी बन सकता है। अब न निगाहें मिलती हैं, न अब कोई किसी के प्यार में पागल होकर लैला-मंजनू बनता है। रफ्तार के इस दौर में अब तो बस सेलेक्शन होता है। अब हर कोई तो चंद्रमोहन नहीं हो सकता ना, जो अपना प्यार पाने के लिए चांद मौहम्मद भी बनने को तैयार रहे। सभी लड़कियां भी अनुराधा नहीं होतीं, जो अपनी मौहब्बत के लिए फ़िज़ा बनने को भी तैयार रहती हैं। इनकी कहानी में इश्क भी था, प्यार भी और मौहब्बत भी। एकदम पूरा फिल्मी ड्रामा था। शादी के ऐलान के बाद चंद्रमोहन उर्फ़ चांद मौहम्मद बेचारे को तो उनके घरवालों ने बेदखल ही कर दिया। भले ही ये अमीर घरानों की बड़ी औलादें हों। लेकिन प्यार के आगे इन लोगों ने मज़हब की दीवारें भी गिरा दीं। और वो भी हरियाणा जैसे राज्य में। लेकिन अब ज़माना बदला है। अब प्यार-मौहब्बत के चक्कर में कोई भी वक्त ज़ाया नहीं करना चाहता। हां कुछ दिन टाइमपास के लिए के लिए ही सही। कुछ मीठी-मीठी सी बातें की। घंटों फोन पर बातियाए और एक-दूसरे को ढेर सारे मैसेज से प्यार भरी बातें और शिकवे-शिकायतें। देर रात तक मोबाइल पर बतियाने का सिलसिला जो शुरु होता है, तो या तो फोन की बैटरी ख़त्म होने के बाद रुकता है, या बिना मतलब की किसी बात पर नोंक-झोंक के बाद। इस बहाने बेचारी मोबाइल कंपनियों का भी अच्छा-खासा कारोबार चल जाता है। चाहें गिफ्ट में मोबाइल देने की बात हो, या कूपन रिचार्ज का खर्चा। छोटे-बड़े सभी दुकानदार भी दो पैसे बना लेते हैं। रूठने-मनाने के दौर में वक्त कब गुज़र जाता है पता ही नहीं चलता। इसके बाद अगर दिल ने मजबूर कर दिया तो बात सात फेरों तक पहुंच सकती है। वरना बात आई-गई में ही गुज़र जाती है। लाख कोशिशों के बाद भी जब पटरी नहीं बैठती, तो मजबूरन घरवालों के आगे चुपचाप सरेंडर कर देते हैं। और फिर प्यार के मारे बेचारे कब एक-दूसरे से बिछड़ जाते हैं, पता ही नहीं चलता। हां कुछ अरसे बाद किसी मोड़ पर मुलाकात होती है, तो नज़रें चुराने के अलावा कोई चारा भी नहीं होता। लेकिन दिल बस यही कहता है, ये ज़माना बड़ा ज़ालिम है।
अबयज़ ख़ान
इस गुलाबी सर्दी में एक गरम चाय की प्याली हो।
तिलबट्टे के साथ गजक हो, और एक कॉफ़ी की प्याली हो।
गरम रज़ाई साथ में हो और एक नॉवेल भी हाथ में हो,
खिड़की से आयें सर्द हवाएं और रात भी ढलने वाली हो।
इस गुलाबी सर्दी में एक गरम चाय की प्याली हो।

सुबह सवेरे की धूप हो, अख़बार के साथ गरम सूप हो।
गाजर का हल्वा भी हो और शकरकंद की खीर हो।
गन्ने के रस की मिठास जब फ़िज़ा में घुलने वाली हो।
इस गुलाबी सर्दी में एक गरम चाय की प्याली हो।

मां का बुना स्वेटर हो और गर्म कपड़ों का साथ हो।
कोहरे वाली सर्दी हो और बस निकलने वाली हो।
इस गुलाबी सर्दी में एक गरम चाय की प्याली हो।

दफ्तर में जब ठंड सताए, जेब से हाथ बाहर न आये।
कलम छोड़ दे साथ तुम्हारा और जाड़ा तुमको बहुत सताए।
तब गरम समोसों के साथ में एक गरम चाय की प्याली हो।
अबयज़ ख़ान
मैं इसे छोड़कर जा तो रहा हूं,
लेकिन इसके हर शख्स से दीवारो-दर से
मेरी कुछ यादें जुड़ी हैं...
चंद लोगों का ये कैंपस क्या है
एक छोटा सा संसार है।
मेरे जाने के बाद बाकी रहेगा यहां
मेरी यादें, मेरी परछाईंया
मेरी शोखियां, मेरी शैतानियां
मेरी निशानियां, लेकिन
तुम मुझे यूं ही भूल नहीं सकते
मेरे जाने के बाद हर शख्स से
पूछोगे मेरा पता...
फिर ढूंढोगे तुम मुझे
कभी चाय की चुस्कियों में
कभी यारों की चकल्लस में...
बेशक मेरे चले जाने के बाद
कुछ दिन सूना-सूना सा लगेगा ये आंगन
लेकिन फिर कोई आयेगा आपके बीच
फिर लौटेगी वही हंसी, वही शोखी, वही बिंदासपन
और भूल जाएंगे आप बीते वक्त की तरह
और ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा।

अबयज़ ख़ान
अबयज़ ख़ान
ख़िलाफ़त... वैसे तो ये लफ्ज़ कोई नया नहीं लेकिन इसके इस्तेमाल पर लोगों में काफ़ी कन्फ्यूज़न रहता है। ख़िलाफ़त का मतलब होता है किसी को अपना ख़लीफ़ा मान लेना... लेकिन बहुत से लोग इसका मतलब मुख़ालफ़त से निकलते हैं। जिसका मतलब विरोध करना होता है। लेकिन उर्दू के इन दोनों अल्फ़ाज़ का लोग कई बार इतना ग़लत इस्तेमाल करते हैं, कि बात का मतलब ही बदल जाता है। अभी हाल ही में लेफ्ट-यूपीए के टकराव पर सभी बड़े चैनल इस ख़बर पर नज़र बनाये हुए थे। मैं हिंदी के एक बड़े चैनल पर इस ख़बर को देख रहा था, जिसका थोड़ा बहुत झुकाव लेफ्ट की तरफ़ देखा जाता है। न्यूक डील को लेकर लेफ्ट लगातार सरकार के विरोध में था। लेकिन चैनल पर जो एंकर मौजूद थे, उन्होने इस ख़बर को जिस तरह बताया उससे पूरी ख़बर का मतलब ही बदल गया। चैनल पर एंकर ने बताया कि "लेफ्ट न्यूक डील पर सरकार की ख़िलाफ़त करेगा" अब जो कोई ख़िलाफत का मतलब जानता होगा, वो तो यही समझेगा कि लेफ्ट न्यूक डील पर सरकार से सहमत है और वो सरकार का समर्थन करेगा। ये हाल सिर्फ़ अकेले एक चैनल का नहीं था, सभी मुख़ालफ़त को अपने-अपने हिसाब से समझा रहे थे। दरअसल ख़िलाफ़त लफ्ज़ को इस्लाम की देन माना जाता है। सन 632 में इस्लाम के आखिरी पैगंबर हज़रत मौहम्मद साहब के इंतेकाल के बाद उनके उत्तराधिकारी को लेकर काफ़ी संकट पैदा हो गया। आने वाले वक्त में इस तरह के संकट से निपटने के लिए पैगंबर साहब ने पहले ही चार लोगों को भविष्य का खलीफ़ा नियुक्त कर दिया। जिन्होनें बारी-बारी आगे तक इस सिलसिले को चलाया। ऐसा नहीं है कि ख़िलाफ़त को लेकर ये कन्फ्यूज़न सिर्फ़ एक ख़ास चैनल में ही नहीं था, मैं जिस ऑर्गनाइज़ेशन में काम करता हूं वहां भी इस लफ्ज़ को लेकर लोगों में काफ़ी कंफ्यूज़न की हालत रहती है। किसी ख़बर में अगर विरोध की बात आती है, तो कई एंकर और रिपोटर्स को इस मुख़ालफ़त की जगह खिलाफ़त का इस्तेमाल करते हुए देखा गया है।
अबयज़ ख़ान
मैं ज़िंदगी भर तुमसे रूठा रहूं तो तुम क्या करोगे
मेरी जां मुझे मनाओगे या मुझ पे हंसा करोगे

खिलौना समझ के लोगों ने की दिल्लगी हमसे
दिल को रखोगे दिल में या तुम भी दिल्लगी करोगे

अनमोल आंसू जो रातों को भिगो गये दुपट्टे को
उन मोतियों का तुम संग दिल एहसास क्या करोगे

गुज़र गया है अपना वक्त और गुज़र भी जाएगा
अफ़सोस तो ये है जाना अब तुम कैसे जिया करोगे

जब जानोगे 'अबयज़' को तो बहुत हैरत होगी तुमको
कभी कोसेगे किस्मत को, कभी ख़ुद पे हंसा करोगे।।
अबयज़ ख़ान
हम जिन्हें दिल में बसाने की बात करते हैं
वो बेमतलब ही फंसाने की बात करते हैं।।

वो हमें याद रखेंगे ये आरज़ू है फ़िज़ूल
क्योंकि वो हरकतें ही करते हैं ऊल-जलूल।।

शौक से आये बुरा वक्त अगर आता है
हमको भी चटनी-फ़ाकों में मज़ा आता है।।

मारकर वो मुझे खुश हैं लेकिन
मार उनकी भी बहुत पड़ी थी लोगों।।

हर कोई परेशान है अपनी ज़िंदगी से यहां
फिर भी खुदकुशी करने के कोई आसार नहीं हैं।।

गलियों में वही लड़के, हाथों में वही पत्थर
क्या अब भी तेरे भाई मुझे रोज़ ही मारेंगे।।

कब समां देखेंगे हम ज़ख्मों के भर जाने का
नाम लेता ही नहीं कोई डॉक्टर इधर से जाने का।।

सोचते ही रहे पूछेंगे तेरी आंखो से
किससे सीखा है, हुनर लड़कियां पटाने का।।

बैचेन इस कदर था, सोया न रात भर
मच्छर भी बहुत थे, खटमल भी बहुत।।

ग़म तेरे बिछड़ने का हम दिल में समां लेंगे
साथ खड़ी है दूसरी इसको ही पटा लेंगे।।

तेरी इक झलक के लिए दिल बेकरार है
आज कोई नहीं तो तुझसे ही प्यार है।।

दिल की आरज़ुओं की शमां न जल पड़े
ऐसा न हो सीढ़ी पर पैर फिसल पड़े
फिर किस तरह करे कोई इज़हारे मौहब्बत
जब आपकी चप्पलें उसके चेहरे पर पड़ें।।

तेरी महफिल में रोशनी के लिए
मैं पड़ोसी के बल्ब उतार लाया
तू ज़रा नफ़रत से फेर ले आंखे
मैं अभी लाइट बंद करके आया।।

मौहब्बत में ऐसे मक़ाम आ गये हैं
न लड़कियों की कमी, न कम हैं लड़के
ममता-जया को तो सलीका नहीं था
अटल-कलाम भी थे अच्छे लड़के।।
अबयज़ ख़ान
बहुत अरसे के बाद आज बारिश की पहली बूंद गिरी
भीग गया फिर सारा तन-मन, और
घर से दूर परदेस में मुझे याद आई उसकी
जिसने मेरे साथ तमाम उम्र रहने का वादा किया था
उसके इस वादे को मैंने एक बार फिर आज़माना चाहा
कलम उठाकर बरसात का पहला ख़त लिख डाला
मेरे महबूब, बरसात की पहली बारिश में
अब तुम्हारे बिना मन नहीं लगता।
कम से कम इसी बहाने
एक बार मुलाकात का मौका दे दो
इस मुलाकात के बाद हमारी कोशिश होगी
दोबारा कभी एक-दूसरे से बिछड़ न पाएं
मगर जवाबे ख़त कुछ इस तरह था
मेरे महबूब मुझे डर नहीं बारिश की बूंद का
या मुझे डर नहीं बरसात का
मुझे तो डर सिर्फ़ इस बात का है
कि उसके बाद जो सैलाब आयेगा, उससे
हम दोनों का वुजूद ख़तरे में पड़ जाएगा
और मैं नहीं चाहती
कि बरसात की पहली बारिश के सैलाब में
मेरी वजह से तुम्हें 'देगोश' होना पड़े
क्योंकि तुमसे ज़िंदा मैं हूं
और मुझसे ज़िंदा तुम।।
(देगोश का मतलब मुश्किल में पड़ना)
अबयज़ ख़ान
अब मेरे घर में कोई रिश्तेदार नहीं है
छत का आसरा है कोई दीवार नहीं है।

ज़िंदगी किस मोड़ पे मेरा इंतेज़ार करेगी
मेरा तो अपना अब कोई घरबार नहीं है।

अपने ही बदल जाते हैं,ग़ैरों से शिकायत क्या
आदमी को आदमी पे अब ऐतबार नहीं है।

हर कोई परेशान है अपनी ज़िंदगी से यहां
उलझने सुलझने के अब कोई आसार नहीं हैं।

रिश्तों की उसके दिल में कोई अहमियत नहीं रही
उसका अब अपना कोई 'अबयज़' रिश्तेदार नहीं है।
अबयज़ ख़ान
जून 2002 की गर्म दोपहरी थी। शाहबाद से बस में सवार हुए तो दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर कदम रखा। वैसे तो गाज़ियाबाद से ही मन अजीब सा होने लगा था। घर से दूर करियर की तलाश में दिल्ली पहुंच तो गये थे। लेकिन घर छूट गया था। सिर्फ़ कुछ दिन के लिए नहीं, बल्कि बहुत लंबे वक्त के लिए। दिल्ली में उतरते ही कुछ दिन नाते-रिश्तेदारों के यहां टिकने के बाद एक किराए का कमरा लिया, कमरे में जैसे ही घुसे, आंखों से आंसू टपक पड़े। अम्मी के साथ-साथ घर याद आने लगा। अकेले थे, सो घंटो चुपचाप रो भी लिए। अपने घर पर किये सारे ऐशो-आराम आंखों के सामने नज़र आने लगे। वो घर जहां कभी गन्ने के खेत में घुस जाते थे, तो तब तक बाहर नहीं निकलते थे, जब तक खेत वाला दो-चार गालियां न सुना दे। गन्ने के रस की खीर तो एक सीज़न में दस-बारह बार से कम नहीं खाते थे। अम्मी के लाख मना करने के बावजूद भरी दोपहरी में क्रिकेट खेलने जाते थे, तो खेलते-खेलते कब अंधेरा हो जाता था, याद ही नहीं रहता था। कभी ऐसा कोई दिन नहीं गुज़रा जब हमने खाना खाने में नखरे न दिखाएं हों। अरहर की दाल-चावल बन जाए तो समझो हमारी तो ईद हो जाती थी। पालक, बैंगन जैसी सब्ज़ी बन जाए तो उस दिन तो भूख हड़ताल समझो। न कपड़े धोने का झंझट न सफ़ाई करने की चिकचिक। लेकिन हां पढ़ाई की तरफ़ से घरवालों को कभी कहने का मौका नहीं दिया। तभी तो इतनी छूट मिली हुई थी। शाम को स्कूल से निपटने के बाद खाना और सोने के अलावा कोई काम नहीं होता था। बचपन में दूरदर्शन के अलावा टीवी देखने का दूसरा कोई ज़रिया था नहीं, लिहाज़ा लाइट मेहरबान हुई तो थोड़ी देर अब्बू-अम्मी के साथ टीवी देख लिया। उस वक्त कशिश, नीम का पेड़, सर्कस जैसे सीरियल आते थे, बेहद शानदार थे वो सीरियल्स भी। हमारे घर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था, बिजली के अलावा बैटरी से भी चल जाता था। इतवार के दिन तो हमारे घर मेला लग जाता था। फिल्म देखने के लिए हम किराए पर बैटरी लाते थे और पूरा मौहल्ला हमारे घर फिल्म देखता था। इस दौरान चाय का दौर भी चलता था। अम्मी भगौने में भरकर पूरे घर के लिए चाय बनाती थीं। लेकिन दिल्ली में आते ही ये सारे ऐश काफ़ूर हो गये। न तो अब किसी पर नखरे दिखा सकते थे, न अम्मी के हाथ का खाना नसीब होता। दिल्ली के होटलों के मीनू में तो दो-चार सब्जियां फिक्स होती हैं। एक ही चीज़ को चार-चार चीज़ों में मिलाकर अठारह भोग बना देते हैं.. सबका टेस्ट भी एक जैसा ही। दाल मखनी, राजमा-चावल, शाही पनीर, मिक्स काली दाल ये चार सब्ज़ियां तो पेटेंट हैं। ये पनीर तो कमाल की चीज़ है। 56 तरह के भोग इस पनीर से ही ढाबे वाला दो मिनट में बना देता है। शुरु में एक महीने तो ये सब काफ़ी अच्छा लगा, उसके बाद तो इन सब्जियों से नफ़रत सी होने लगी। ऊपर से शाम को थक-हारकर कमरे पर आओ तो एक कमरे में ही बंद होकर रह जाओ। सड़ी गर्मी में भी उसी कमरे में बंद रहना पड़ता था। बरसात के बाद वाली गर्मी तो और भी बुरी, ऐसा लगता था जैसे तंदूर में बंद हो गये हों। ऊपर से पड़ोस के किराएदारों की चिकचिक वो अलग। घर पर अम्मी शाम को आंगन में बिस्तर लगाती थी, तो घंटो तो आसमान की तरफ़ ही टकटकी लगाए देखते रहते थे। और यहां तो हफ्तों बीत जाते हैं आसमां की तरफ़ देखे हुए। दिल्ली की डब्बेनुमा ज़िदगी में सुबह उठकर दफ्तर चले जाओ, शाम को आने के बाद उन्हीं कबूतरखानों में फिर सो जाओ। दस-बारह घंटे की नौकरी, दो घंटे घर से दफ्तर आने-जाने में, और चार घंटे सोने में। दिन के 24 घंटे, घंटो से हफ्ते, और हफ्तों से साल, दिन हवा की तरह निकले जा रहे थे। लेकिन इस शहर में छह साल रहने के बाद भी न तो किसी में अपनाइयत दिखी, और न इस शहर में कोई ऐसा मिला, जिससे आप अपने दिल की बात कहकर बोझ़ को हल्का कर लें। गालिब की इस दिल्ली ने रफ्तार पकड़ी तो और बेदर्द हो गई। कई बार लगता है पत्रकार बनने के जुनून में जिंदगी हमसे कोसों दूर चली गई।
अबयज़ ख़ान
घर से निकलते ही अचानक कुछ ऐसी चीज़ों पर नज़र पड़ जाती है, जिन्हें देखकर आपको लगता है कि ये तो पहले भी कहीं देखा है... साल दर साल बीत जातें हैं, मगर उन चीज़ों में कोई बदलाव नहीं आता... शाम को दफ्तर से आने के बाद घूमते हुए मार्केट में निकल गया.. अचानक एक बड़े से बैनर पर नज़र पड़ी... बैनर पर लिखी इबारत कुछ पुरानी सी लग रही थी... लिखा था पूनम साड़ी सेल... बचपन से इस लाइन को देखते-सुनते जवान हो गये... लेकिन इस लाइन में कोई बदलाव नहीं आया था... इबारत के साथ बाकी बातें भी वही पुरानी, पांच सौ रुपये वाला लखनवी सूट सिर्फ़ डेढ़ सौ रुपये में... एक हज़ार रुपये वाली बनारसी साड़ी सिर्फ़ दो सौ रुपये में, दो हज़ार रुपये वाला शानदार सिल्क का सूट सिर्फ़ चार सौ रुपये में... साथ में दो लाइन और जुड़ी थीं... कंपनी में आग लगने की वजह से मालिक को बहुत नुकसान हुआ है... कंपनी की डील टूट जाने की वजह से विदेश में जाने वाली लॉट रूक गई है, जिसकी वजह से सारा माल सस्ते में बस आपके लिए आपके शहर में... बचपन में ये लाइनें सुनकर कंपनी और सेल वालों के लिए दिल में हमदर्दी पैदा हो जाती थी, और हम भी घर वालों से ज़िद करके एक-आध जोड़ी कपड़े खरीद लाते थे... सोचकर ताज्जुब होता है कि आखिर इन लाइन्स में कितना दम है, जो अब तक हूबहू ऐसे के ऐसे ही चल रही हैं...

सफ़र में जाते वक्त चाहें ट्रेन का रास्ता हो या बस का रूट हो... आपको हर दीवार, घर के पिछवाड़े, सड़क की पुलिया पर, चौपाल की दीवार पर या आपके मौहल्ले में गुप्त रोग विशेषज्ञों के ढेरो विज्ञापन मिल जाएंगे... इन इश्तेहारों की इबारत वही पुरानी, जो आपने बचपन में देखी सुनी होगी, हकीम साहब भी शायद वही पुराने या उनकी कोई औलाद जो उनके नाम का फायदा उठा रही होगी... गांवों में तो कई लोग जानबूझकर अपनी दीवारे इश्तेहार वालों को पुतने के लिए दे देते हैं, सोचते हैं दीवार की पुताई से बच जाएंगे.. लेकिन जब उनके बच्चे उनके सामने उस इबारत को पढ़कर गुज़रते है, तो उन पर घड़ो पानी पड़ जाता है... दीवार पर वही लिखा होता है, नामर्दी का शर्तिया इलाज, बेऔलाद एक बार ज़रूर मिलें... गारंटी कार्ड साथ में दिया जाएगा... पत्नी-पत्नी संतुष्ट नहीं हैं तो भी मिलें... शादी से पहले या शादी के बाद वगैरह-वगैरह... अब घर की दीवार पर ही सेक्स की इतनी जानकारी मिल रही हो, तो भला बच्चों को सेक्स एजुकेशन देने की क्या ज़रुरत है... इश्तेहारों की डिज़ाइनिंग भी वही, सफ़ेद चूने से पुती दीवार पर काले रंग से लिखे मोटे-मोटे अक्षर... आपको न सिर्फ़ पुराने दिनों की याद करा देतें है, बल्कि इस बात का एहसास भी कराते हैं कि दुनिया कितनी बदल गई है, लेकिन कुछ तो है जो अब भी नहीं बदला...
अबयज़ ख़ान
अजब पागल सी लड़की है........
मुझे हर ख़त में लिखती है
मुझे तुम याद आते हो
तुम्हें मैं याद आती हूं
मेरी बातें सताती हैं
मेरी नींदें जगाती हैं
मेरी आंखें रुलाती हैं
सावन की सुनहरी धूप में
तुम अब भी टहलते हो
किसी खामोश रस्ते से कोई आवाज़ आती है
ठहरती सर्द रातों में
तुम अब भी छत पे जाते हो
फलक के सब सितारों को मेरी बातें सुनाते हो
किताबों से तुम्हारे इश्क में कोई कमी आई?
या मेरी याद की शिद्दत से आंखों में नमी आई?
अजब पागल सी लड़की है....

मुझे हर ख़त में लिखती है
जवाब मैं भी लिखता हूं-
...मेरी मसरूफियत देखो
सुबह से शाम आफिस में
चराग़े उम्र जलता है
फिर उसके बाद दुनिया की
कई मजबूरियां पांवों में
बेड़िया डाले रखती हैं
मुझे बेफिक्र चाहत से भरे सपने नहीं दिखते
टहलने, जागने, रोने की मोहलत नहीं मिलती
सितारों से मिले अब अर्सा हुआ... नाराज़ हों शायद
किताबों से ताल्लुक़ मेरा... अभी वैसे ही क़ायम है
फर्क इतना पड़ा है अब उन्हें अर्से में पढ़ता हूं
तुम्हें किसने कहा पगली....
तुम्हें मैं याद करता हूं
कि मैं खुद को भुलाने की
मुसलसल जुस्तजू में हूं
तुम्हें ना याद आने की
मुसलसल जुस्तजू में हूं
मगर ये जुस्तजू मेरी
बहुत नाकाम रहती है
मेरे दिन रात में अब भी
तुम्हारी शाम रहती है
मेरे लफ्जों की हर माला
तुम्हारे नाम रहती है
तुम्हें किसने कहा पगली......
तुम्हें मैं याद करता हूं..

पुरानी बात है जो लोग
अक्सर गुनगुनाते हैं
’उन्हें हम याद करते हैं
जिन्हें हम भूल जाते हैं’
अजब पागल सी लड़की है....
मेरी मसरूफियत देखो
तुम्हें दिल से भुलाऊं तो
तुम्हारी याद आती है
तुम्हें दिल से भुलाने की
मुझे फुर्सत नहीं मिलती
और इस मसरूफ जीवन में
तुम्हारे ख़त का इक जुमला
’तुम्हें मैं याद आती हूं?
मेरी चाहत की शिद्दत में
कमी होने नहीं देता
बहुत रातें जगाता है
मुझे सोने नहीं देता
सो अगली बार खत में
ये जुमला ही नहीं लिखना
अजब पागल सी लड़की है....
मुझे फिर भी ये लिखती है
मुझे तुम याद करते हो?
तुम्हें मैं याद आती हूं?

किसी मैगज़ीन में मैंने ये कविता पढ़ी थी, ये लाइनें मेरे दिल को छू गईं, उम्मीद है आप को भी पसंद आयेंगी।
अबयज़ ख़ान
ज़िदंगी के सारे लम्हे रफ़्ता-रफ़्ता कट गये
इंतेज़ार, आस, खुशी और ग़म में बंट गये।।

मैनें तो इंतेज़ार में उसके ज़िंदगी गुज़ार दी
उसके लिए तो रास्ते भी दुश्वार बन गये।।

कुछ मजबूरी रही होगी, फैसला बदलना पड़ा उसे
दोस्त की दोस्ती और कुछ रिश्ते बदल गये।।

बजती रहीं शहनाइयां ग़ैर की महफ़िल में
और वो मेरी महफ़िल को वीरान कर गये।।

यह हक़ीकत है मंज़िले आसां नहीं हैं 'अबयज़'
फिर भी कितने शीरी-फरहाद इन रास्तों से गुज़र गये।।
अबयज़ ख़ान
हमारे मुहल्ले के नुक्कड़ पर जुम्मन मियां की साईकिल की दुकान है... अपने ज़माने के बिंदास और बांके जवान रहे जुम्मन मियां की उम्र साईकिलों का पंचर जोड़ने में ही बीत गई... मियां की दुकान क्या थी, दरअसल मौहल्ले के भटके हुए लड़कों का अड्डा थी.. कईयों की आंखे तो उनकी दुकान पर बैठे-बैठे ही लड़ गईं... उनकी दुकान पर बैठकर मटरगश्ती करने वाले कई लड़के उनकी आंखों के सामने ही अपने बच्चे को उंगली पकड़कर स्कूल ले जाते हैं...और जुम्मन मियां आंहे भरकर रह जाते हैं... उम्र का पचासवां बसंत है और मियां जुम्मन के सिर अब तक सेहरा नहीं बंधा है.... अपने ज़माने में मौहल्ले के बिंदास लड़कों में शुमार था उनका... कुछ लड़कियों को उन्होंने नापसंद किया, कुछ उन्हें नापसंद कर गईं.. यही करते-करते उम्र पचास के आंकड़े पर पहुंच गई... अब हालत ये कि उन्हें शादी के लिए कोई पूछता नहीं, तिस पर जर्मनी के वैज्ञानिकों ने एक रिसर्च करके उनकी नींद उड़ा दी... पिछले दिनों कई अख़बारों में ख़बर छपी थी कि अब शादी के बाद बच्चे पैदा करने में आदमियों का कोई रोल नहीं होगा... जर्मनी के वैज्ञानिकों ने बाकायदा एक रिसर्च में इस बात का दावा कर दिया... कि अब आर्टिफिशल स्पर्म के जरिए महिलाएं बिना मर्दों की मदद के भी मां बन सकती हैं... बहरहाल अगर ये नई खोज कामयाब हो गई तो मर्द निगोड़े तो बेकार हो जाएंगे... क्योंकि अब बच्चे पैदा भी हो जाएंगे और पता भी नहीं चलेगा उनका बाप कौन है... बस यही बात है जो जुम्मन मिंयां को खाये जा रही है... जब भी कोई उनसे शादी की बात करता है, सुनते ही झल्ला जाते हैं... पहले ही उम्र निकली जा रही है...ऊपर से ये मुए साइंटिस्ट, खुद तो शादी करते नहीं... हमारा भी स्कोप खत्म करने पर तुले हैं... लगता है कमबख्त कुदरत के कायदे-कानून ही पलट देंगे... बताओ अब जवान-जवान लड़कों का क्या होगा... किसको ताकेंगे बेचारे... बच्चे कल किसको अब्बा बोलेंगे... पता ही नहीं चलेगा कौन किसकी औलाद है... अब आप ही बताओ शादी करके करेंगे क्या... खाली बाज़ार से सब्ज़ी थोड़े ही लाना है...
अबयज़ ख़ान
कभी बचपन के दोस्त को भी सीने से लगाकर देखो
कभी आईने के सामने खुद को भी सजाकर देखो।
अब तो रातों को देर तलक नींद भी न आयेगी,
तुम कभी अपने दिल से मेरा नाम मिटाकर देखो।।

यूं तो चाहने वाले मिलते हैं सभी को मिलते भी रहेंगे
कभी बचपन के दोस्त को भी सीने से लगाकर देखो।
तमाम उम्र गुज़र गई बस तुम्हारे ही ख्यालों में,
तुम कभी अपने ख्वाबों में मुझको भी बसाकर देखो।।

जाने वाले कभी लौटकर वापस नहीं आते
तुम कभी एक बार तो मुझको पास बुलाकर देखो।
पुराने ज़ख्म तुम्हारे फिर से हरे हो जाएंगे,
कभी ज़ख्मों की पुरवाई से मुलाकात कराकर देखो।।

उम्रभर के साथी कभी अपनो से रूठा नहीं करते
तुम कभी एक बार तो मुझको भी मनाकर देखो।
अपनी गलती का एहसास भी हो जाएगा तुम्हें,
कभी दुखती हुई नब्ज़ को और दुखाकर देखो।।
अबयज़

अबयज़ ख़ान
कुछ तुम भी पहल करो, कुछ मैं करूंगा
तुम हीर बनो मेरी, मैं मीर बनूंगा।।

ये प्यार-मौहब्बत कोई खेल नहीं बच्चों का
तुम धड़कन बन जाना मैं सांस बनूंगा।।

वो प्यार ही क्या जिसमें सब राज़ छुपाए
कुछ तुम कहना अपनी, कुछ मैं कहूंगा।।

मेरी वजह से कोई तकलीफ़ मिले तुमको
तुम सबकुछ कह लेना मैं चुपचाप सुनूंगा।।

जब आने लगे मुश्किल प्यार के रस्ते में
तुम साथ निभाना मेरा, मैं दीवार बनूंगा।।

मझधार में छोड़ोगे, तो पछताओगे तुम
कैसे बचोगे जब मैं, तूफ़ान बनूंगा।।
अबयज़
अबयज़ ख़ान
बचपन में सबसे ज्यादा जिस चीज का बेसब्री से इंतजार होता था.. वो गर्मियों की छुट्टियां होती थीं.. पूरे एक महीने तक मौजमस्ती के सिवा कुछ नहीं... इधर स्कूल में छुट्टियों का ऐलान हुआ, उधर अम्मी ने नानी के घर जाने के लिए सारे सामान की पैकिंग शुरु कर दी... और अगली सुबह यूपी रोडवेज की खटारा सी बस से रामपुर से पहुंच जाते थे बरेली... नानी के घर... नानी के घर छुट्टियां बिताने का एक अलग ही लुत्फ होता था.. मन में जितनी भी फरमाइशें होती थीं सब नानी के आगे रख दी जाती थीं... इन नानी जी के घर कई कैरेक्टर बसते थे... नाना, खाला और कई सारी मामियां भी होती थीं... हमारे भी चार मामू थे... तीन बीवी-बच्चों वाले थे... एक अभी तक कुंवारे थे... लिहाजा सारे नाज-नखरे वो ही उठाते थे... सुबह उठते ही मामू एक चवन्नी देते थे... दो-तीन चवन्नी इकट्ठी करने के बाद कभी कुलफी लेकर खाते थे... तो कभी बर्फ का गोला... अम्मी लाख मना करें कि बेटा बर्फ मत खाओ, तुम्हारे अब्बू से शिकायत कर दूंगी... लेकिन हम कहां मानने वाले थे भला... फिर चवन्नी भी तो मामू की थी... मामू की चवन्नी में आइसक्रीम खाने का मजा ही अलग होता था... जैसे-जैसे छुट्टियां खत्म होती थीं घर वापसी की तैयारी शुरु हो जाती थी... और हम मामू की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए वापस आते थे... अपने मामू को ढेर सारी दुआएं देते थे... अल्ला से दुआ करते थे, ऐ अल्लाह अगली बार जब हम आएं, तो मामू हमें अठ्ठनी दें.. कुछ तो तरक्की हो.... खैर ये सिलसिला तो लंबे वक्त तक चला... बड़े हुए तो मामू से मुलाकातें भी कम होने लगीं... पढ़ाई खत्म होने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए रामपुर से दिल्ली आ गये... कोर्स खत्म होने के बाद नौकरी लग गई.. पहली नौकरी के बाद दोस्तों के साथ दिल्ली के एक सिनेमाघर पहुंच गये... किसी नये हीरो की फिल्म थी... नाम शायद फुटपाथ था... रिजवान हाशमी नाम का कोई लड़का इस फिल्म का हीरो था... (असली नाम तो सभी जानते हैं) देखने में तो हीरो के माफिक नहीं लगता... कई सारी फिल्में की उसने... अपनी हर फिल्म में उसका एक ही काम है.. एक प्यारी सी सुन्दर सी लड़की को किस करना... इसलिये उसका नाम भी सीरियल किसर पड़ गया... अब हमारी आंखों के सामने कोई लड़का किसी लड़की को किस करे, तो भला लड़का जात को ये कैसे बर्दाश्त हो... सो हमारे तन-बदन में भी आग लग जाती थी.. और हम फिल्म को बीच में ही छोड़कर उठ जाते थे... अब हमने फिल्म देखने के बजाय इस बात पर दिमाग के घौड़े दौड़ाने शुरु कर दिये, कि इस मुए को फिल्म में काम कौन देता है.. यार दोस्तों ने बताया कि रमेश हट्ट नाम का उसका एक मामू फिल्म इंड्स्ट्री में है... मामू ने कसम खाई है, कि मेरा भांजा एक्टिंग करे या न करे, साले को सारी हीरोइन्स का किस तो करवा ही दूंगा... वाकई में लाजवाब मामू है.. एक हमारे मामू हैं चवन्नी से तरक्की करके एक रुपये पर अटक गये थे, और एक इस हाशमी का मामू है, किस कराने से लेकर सुबह तक डसने की छूट भी देता है... वाह रे मामू, हमारे मामू कब बनोगे...? सुबह तक डसने का मौका मत देना, फिल्म में काम भी मत देना, मगर एक किस तो जरूर दिलवा देना मामू.....