22 मई 2009 की तपती दोपहरी थी... सूरज क़हर बरसा रहा था। हर तरफ़ आग ही आग बरस रही थी। दफ्तर से मन उचट चुका था, तो ज़िंदगी में भी घमासान मचा हुआ था। दिल और दिमाग दोनों ही काम नहीं कर रहे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं। किसी से बात करके भी मन का बोझ हल्का नहीं हुआ, तो दफ्तर से छुट्टी ले ली। पहले समझ नहीं आया कि क्या करूं, फिर अचानक मन में आया कि चलो कहीं घूम लिया जाए। तभी अचानक पापा का फोन आया कि वो जयपुर जाना चाहते हैं, पापा ने फोन पर पूछा, क्या तुम भी चलोगे? मैंने हां कर दी। पापा के साथ मैं भी राजस्थान टूर पर निकल पड़ा। गर्मी झुलसा रही थी, लेकिन मन बहलाने के लिए घूमने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।
देर शाम जयपुर पहुंचा, तो हम लोग छोटे भाई के कमरे पर रुके। फ्रेश होने के बाद कुछ देर इधर-उधर की बातें की, उसके बाद हम तीनों घूमने निकल गये। जयपुर का किला और हवामहल देखने के बाद भी मन उदास ही था। सीने पर एक बड़ा बोझ था, जो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। देर शाम जयपुर के मशहूर इस्माइल रोड पर भी निकले, बाज़ार भी घूमा, सोचा कुछ ख़रीदारी कर लूं, लेकिन जयपुर में मन रमा नहीं। इसके बाद अगला पड़ाव था अजमेर। मशहूर ख्वाजा संत मोईनुद्दीन चिश्ती का शहर। पहाड़ी पर बसे इस शहर में चढ़ाई ने काफ़ी थका दिया। वैसे भी जयपुर से अजमेर का रास्ता करीब तीन घंटे से ज्यादा का था। थकान तो पहले से ही थी। अजमेर पहुंचा तो दरगाह जाना भी ज़रूरी था। लेकिन दरगाह पर पहुंचते ही ऐसा लगा कि हम कहां आ गये।
मज़ार पर मन्नतों के लिए हज़ारों ज़ायरीन पहुंचे थे, लेकिन मज़ार पर पैसों का खेल देखकर एक बारगी खुद को झटका लगा, कि क्या यही ख्वाजा का दरबार है, जहां कदम-क़दम पर लोग पैसे उगाहने के लिए खड़े थे। शुरुआत चप्पलों से हुई, जिसके पांच रुपये देना पड़े। उसके बाद गेट पर खड़े लोग किसी भी तरह पैसे लेने के लिए उतावले थे। कोई फूलों के बहाने पैसे ले रहा था, तो कोई ख्वाजा के दर पे लंगर कराने के नाम पर पैसे मांग रहा था। इन सब से निकलकर जब ख्वाजा की मज़ार पर पहुंचे, तो वहां एक औरत के चीखने की आवाज़ सुनी। मालूम किया तो पता चला कि उससे भी लोग ज़बरन पैसे उगाहने में लगे थे। अफ़सोस हुआ कि ये लोग मुसलमानों की कैसी इमेज बना रहे हैं। मुझे याद आये दिल्ली के लोटस और अक्षरधाम टैंपिल जहां न तो कोई टिकट लगता है, उल्टे आपके जूते-चप्पल भी हिफ़ाज़त से रखे जाते हैं। लेकिन ख्वाजा के दर पर कुछ लोग मुसलमानों की इमेज को ख़राब करने में लगे थे। आज अगर ख्वाजा देखते होंगे तो उन्हें भी इस हालत पर अफ़सोस तो होता ही होगा।
ख़ैर यहां से आगे बढ़े तो प्यार-मोहब्बत के शहर आगरा का रुख किया। ट्रेन ने जैसे ही आगरा शहर में एंट्री की, बदबू के मारे जीना मुश्किल हो गया। समझ नहीं आया कि हम उसी शहर में दाख़िल हो रहे हैं, जहां दुनिया का सातवां अजूबा हैं। रेलवे लाइन के किनारे बिखरी गंदगी ने नाक पर रुमाल रखने को मजबूर कर दिया। बदबू से बचते हुए बड़ी मुश्किल से स्टेशन पहुंचे, तो उसके बाहर का हाल भी पूछिए मत। हर तरफ़ गंदगी ही गंदगी का नज़ारा। लालू जी ने रेल को तो प्रोफिट में ला दिया, लेकिन गंदगी देखकर प्रोफ़िट का राज़ समझ में आ गया। ताज के रास्ते में तो गंदगी का वो आलम था, कि पूछिए मत। बड़ा अफ़सोस हुआ वहां की हालत पर, गंदगी देखकर मन में ख्याल आया कि आखिर क्या सोचते होंगे परदेसी महमान इस शहर के बारे में।
लोकिन ताज पर पहुंचकर सारी थकान काफ़ूर हो गई। आलमपनाह की बेपनाह ख़ूबसूरत इमारत देखकर दिल बाग़-बाग हो गया। प्यार की इतनी खूबसूरत निशानी तो क्या, मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसा शानदार अजूबा भी नहीं देखा था।
शाहजहां ने अपनी महबूबा को प्यार का वो तोहफ़ा दिया था, जिसे शाहजहां और मुमताज तो क्या इस दुनिया में आने वाला हर शख्स ताउम्र याद रखेगा। आज के दौर में न तो कोई ऐसा प्यार करने वाला शाहजहां मिलेगा और न ही कोई इतनी किस्मत वाली मुमताज़ महल होगी। और न ही कोई ऐसा दिलखर्च शहंशाह होगा। जो अपनी महबूबा के लिए मरने से पहले ही सफ़ेद पत्थर का हसीन मकबरा बनवा सकता हो। दुनिया का ये अजूबा वाकई लाजवाब है। अनमोल है, बेशकीमती है। दुनिया में इस जैसी इमारत न तो कोई बनवा सकता है और न ही शायद बनवा पाएगा। सफ़ेद संगमरमर से बनी ये इमारत उस प्यार की कहानी को अमर कर रही है, जो आज से लगभग चार सौ साल पहले लिखी गई थी। और उस ज़माने में लिखी गई थी, जब प्यार को किसी गुनाह के दर्जे में रका गया था। इस कहानी में सिर्फ़ प्यार का टिव्स्ट नहीं था, बल्कि ये तो चार सौ साल का इतिहास भी समेटे हुए थी।
पहली बार में तो ताज को देखने पर आंखें चकाचौंध से भर जाती हैं। यकीन ही नहीं होता कि अपने मुल्क में भी इतना नायाब नमूना है, जिसे देखने दुनियाभर से हर साल लाखों लोग हिंदुस्तान के इस शहर में आते हैं। वाकई ये अपने आप में लाजवाब है। ताज नगरी के बाद मैंने घर लौटने का फैसला कर लिया, क्योंकि इस हसीन इमारत को देखने के बाद फिर कहीं और जाने का मन ही नहीं हुआ। ताज की मीठी-मीठी यादों के साथ आगरा का मशहूर पेठा ख़रीदकर मैंने इस शहर से से विदाई ली, और फिर चल पड़ा अपने घर के लिए। जहां मां बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रही थीं। हर बार की तरह इस बार भी उनके पास मुझसे करने के लिए ढेर सारी बातें थीं, मेरे लिए उनकी रसोई में ढेर सारे पकवान भी इंतज़ार कर रहे थे... बस फिर क्या था, मैंने आगरा से पकड़ी बस और फिर इस शहर को अलविदा कहकर अपने घर के लिए रवाना हो गया। और आगरा की यादें कहीं पीछे छूट गईं।
देर शाम जयपुर पहुंचा, तो हम लोग छोटे भाई के कमरे पर रुके। फ्रेश होने के बाद कुछ देर इधर-उधर की बातें की, उसके बाद हम तीनों घूमने निकल गये। जयपुर का किला और हवामहल देखने के बाद भी मन उदास ही था। सीने पर एक बड़ा बोझ था, जो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। देर शाम जयपुर के मशहूर इस्माइल रोड पर भी निकले, बाज़ार भी घूमा, सोचा कुछ ख़रीदारी कर लूं, लेकिन जयपुर में मन रमा नहीं। इसके बाद अगला पड़ाव था अजमेर। मशहूर ख्वाजा संत मोईनुद्दीन चिश्ती का शहर। पहाड़ी पर बसे इस शहर में चढ़ाई ने काफ़ी थका दिया। वैसे भी जयपुर से अजमेर का रास्ता करीब तीन घंटे से ज्यादा का था। थकान तो पहले से ही थी। अजमेर पहुंचा तो दरगाह जाना भी ज़रूरी था। लेकिन दरगाह पर पहुंचते ही ऐसा लगा कि हम कहां आ गये।
मज़ार पर मन्नतों के लिए हज़ारों ज़ायरीन पहुंचे थे, लेकिन मज़ार पर पैसों का खेल देखकर एक बारगी खुद को झटका लगा, कि क्या यही ख्वाजा का दरबार है, जहां कदम-क़दम पर लोग पैसे उगाहने के लिए खड़े थे। शुरुआत चप्पलों से हुई, जिसके पांच रुपये देना पड़े। उसके बाद गेट पर खड़े लोग किसी भी तरह पैसे लेने के लिए उतावले थे। कोई फूलों के बहाने पैसे ले रहा था, तो कोई ख्वाजा के दर पे लंगर कराने के नाम पर पैसे मांग रहा था। इन सब से निकलकर जब ख्वाजा की मज़ार पर पहुंचे, तो वहां एक औरत के चीखने की आवाज़ सुनी। मालूम किया तो पता चला कि उससे भी लोग ज़बरन पैसे उगाहने में लगे थे। अफ़सोस हुआ कि ये लोग मुसलमानों की कैसी इमेज बना रहे हैं। मुझे याद आये दिल्ली के लोटस और अक्षरधाम टैंपिल जहां न तो कोई टिकट लगता है, उल्टे आपके जूते-चप्पल भी हिफ़ाज़त से रखे जाते हैं। लेकिन ख्वाजा के दर पर कुछ लोग मुसलमानों की इमेज को ख़राब करने में लगे थे। आज अगर ख्वाजा देखते होंगे तो उन्हें भी इस हालत पर अफ़सोस तो होता ही होगा।
ख़ैर यहां से आगे बढ़े तो प्यार-मोहब्बत के शहर आगरा का रुख किया। ट्रेन ने जैसे ही आगरा शहर में एंट्री की, बदबू के मारे जीना मुश्किल हो गया। समझ नहीं आया कि हम उसी शहर में दाख़िल हो रहे हैं, जहां दुनिया का सातवां अजूबा हैं। रेलवे लाइन के किनारे बिखरी गंदगी ने नाक पर रुमाल रखने को मजबूर कर दिया। बदबू से बचते हुए बड़ी मुश्किल से स्टेशन पहुंचे, तो उसके बाहर का हाल भी पूछिए मत। हर तरफ़ गंदगी ही गंदगी का नज़ारा। लालू जी ने रेल को तो प्रोफिट में ला दिया, लेकिन गंदगी देखकर प्रोफ़िट का राज़ समझ में आ गया। ताज के रास्ते में तो गंदगी का वो आलम था, कि पूछिए मत। बड़ा अफ़सोस हुआ वहां की हालत पर, गंदगी देखकर मन में ख्याल आया कि आखिर क्या सोचते होंगे परदेसी महमान इस शहर के बारे में।
लोकिन ताज पर पहुंचकर सारी थकान काफ़ूर हो गई। आलमपनाह की बेपनाह ख़ूबसूरत इमारत देखकर दिल बाग़-बाग हो गया। प्यार की इतनी खूबसूरत निशानी तो क्या, मैंने अपनी ज़िंदगी में ऐसा शानदार अजूबा भी नहीं देखा था।
शाहजहां ने अपनी महबूबा को प्यार का वो तोहफ़ा दिया था, जिसे शाहजहां और मुमताज तो क्या इस दुनिया में आने वाला हर शख्स ताउम्र याद रखेगा। आज के दौर में न तो कोई ऐसा प्यार करने वाला शाहजहां मिलेगा और न ही कोई इतनी किस्मत वाली मुमताज़ महल होगी। और न ही कोई ऐसा दिलखर्च शहंशाह होगा। जो अपनी महबूबा के लिए मरने से पहले ही सफ़ेद पत्थर का हसीन मकबरा बनवा सकता हो। दुनिया का ये अजूबा वाकई लाजवाब है। अनमोल है, बेशकीमती है। दुनिया में इस जैसी इमारत न तो कोई बनवा सकता है और न ही शायद बनवा पाएगा। सफ़ेद संगमरमर से बनी ये इमारत उस प्यार की कहानी को अमर कर रही है, जो आज से लगभग चार सौ साल पहले लिखी गई थी। और उस ज़माने में लिखी गई थी, जब प्यार को किसी गुनाह के दर्जे में रका गया था। इस कहानी में सिर्फ़ प्यार का टिव्स्ट नहीं था, बल्कि ये तो चार सौ साल का इतिहास भी समेटे हुए थी।
पहली बार में तो ताज को देखने पर आंखें चकाचौंध से भर जाती हैं। यकीन ही नहीं होता कि अपने मुल्क में भी इतना नायाब नमूना है, जिसे देखने दुनियाभर से हर साल लाखों लोग हिंदुस्तान के इस शहर में आते हैं। वाकई ये अपने आप में लाजवाब है। ताज नगरी के बाद मैंने घर लौटने का फैसला कर लिया, क्योंकि इस हसीन इमारत को देखने के बाद फिर कहीं और जाने का मन ही नहीं हुआ। ताज की मीठी-मीठी यादों के साथ आगरा का मशहूर पेठा ख़रीदकर मैंने इस शहर से से विदाई ली, और फिर चल पड़ा अपने घर के लिए। जहां मां बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रही थीं। हर बार की तरह इस बार भी उनके पास मुझसे करने के लिए ढेर सारी बातें थीं, मेरे लिए उनकी रसोई में ढेर सारे पकवान भी इंतज़ार कर रहे थे... बस फिर क्या था, मैंने आगरा से पकड़ी बस और फिर इस शहर को अलविदा कहकर अपने घर के लिए रवाना हो गया। और आगरा की यादें कहीं पीछे छूट गईं।
इन यात्राओं से मन की उदासी तो दूर होनी लाजिमी है , अजमेर पर आपने सही चिंता व्यक्त की
bahut achcha sansmaran hai lekin ajmer ki chinta jayaj hai
अजमेर यात्रा का अपना अनुभव भी आपसे कुछ अलग नहीं था.
मन इतना उचट जाए तो बैठक पर भी आ सकते हैं....वहां आपके लिए भरपूर जगह है....
मन उदास हो तो घूमने से अच्छा कुछ नही हो सकता है। मैं भी यही करता हूं कभी कभी तो किसी को बिना बताये कहीं चला जात हूं और मोबाइल भी नहीं ले जाता तब ज्यादा मज़ा आता है।