अबयज़ ख़ान


जब तुम मिले थे एक अजनबी की तरह
मुझे नज़रें तरेरकर देखा था इस तरह
जैसे आपके लिए मैं कोई अजूबा हूं
उस नज़र में हिकारत थी, या प्यार
ये मैं नहीं जानता, लेकिन
मुलाकातों का सिलसिला
ख्यालातों से मिलने लगा
एक-दूसरे का दर्द हमें और करीब ले आया
बात निकली तो दुखों का सैलाब उमड़ने लगा
तुम्हारा साथ पाकर मैं कुछ संभल सा गया
और मेरा साथ पाकर तुम भी संभलने लगे
फिर ज़िंदगी का बोझ कुछ हल्का सा हुआ
लेकिन जैसे दुनिया की रिवायत है
बात-बात पर लड़ना-झगड़ना
रूठना-मनाना फिर लड़ना-झगड़ना
फिर शिकवे-शिकायत और मान मनौव्वल
और फिर कभी बात न करने की कसमें
फिर रूठकर ख़ुद ही मान जाना
तुम्हारी यही अदा मुझे बेहद पसंद है
लेकिन इसमें हिकारत नहीं है
इसमें है प्यार और सिर्फ़ प्यार, लेकिन
दोस्ती और प्यार के बीच का ये रिश्ता
अब तक परवान न चढ़ सका, क्योंकि
न तुमने पहल की, और न मैंने इब्तिदा
लेकिन ज़माने को फिर भी ख़बर हो गई
और हम आज भी अजनबी हैं पहले की तरह
जैसे तुम मिले थे, मुझे एक अजनबी की तरह
6 Responses
  1. Anonymous Says:

    अच्छी रचना
    बहुत सारे लोगों को अपनी कहानी दिखेगी इसमें। पहली 5 पंक्तियों से खुद को जुड़ा हुआ पाता हूं।


  2. Vinay Says:

    भई मज़ा आ गया

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    http://prajapativinay.blogspot.com


  3. बढ़िया कविता लिखी है।
    घुघूती बासूती


  4. lata Says:

    aap bahut achcha likhte hain.



  5. जनाब आदाब अर्ज़ है.....
    आपकी लेखनी में दम है...इस छोटी सी कहानी ने काफी कुछ बया कर दिया...