अबयज़ ख़ान
दुनियाभर में मंदी की मार ने ऐसा मारा है कि न अब सीधे बैठा जाता है। और न ही खड़े होकर चैन मिलता है। हर दिन एक नई उम्मीद के साथ घर से निकलते हैं। लेकिन मन में एक डर हर वक्त ये एहसास कराता है, कि पता नहीं कब नौकरी चली जाए। ये हाल पत्रकारों की उस जमात का है, जो दुनिया के हक़ के लिए आवाज़ उठाते हैं। लेकिन अपने लिए वो सिसकियां भरने की हिम्मत भी नहीं रखते। जब जेट एयरलाइन्स ने अपने कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया था, तो मीडिया उनके साथ कदम से क़दम मिलाकर खड़ा हो गया। और उसकी मुहिम तब तक जारी रही, जब तक उन लोगों को नौकरियां नहीं मिल गईं। हैरत की बात ये है कि कलमकारों पर नौकरी जाने की मार उस वक्त भी थी, और आज भी है। लेकिन इन कलम घिस्सुओं को अपना ध्यान फिर भी नहीं आया। सत्यम क्या लुटा पत्रकार बावले हो गये। ख़बर की ताक में सत्यम का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया। और तो और उसके कर्मचारियों की नौकरी और तनख्वाह पर खूब आंसू बहाये। अब इसे मंदी की मार कहें, या मीडिया सम्राटों की बाहनेबाज़ी। पत्रकारों को बार-बार इस बात का एहसास कराया जाता है, कि मियां अब तुम्हारी नौकरी तो गई। मतलब मांझी ही जब नाव डुबोये, तो फिर बचाने वाला कौन।



लेकिन ये बिरादरी तो ऐसी है जो अपनों के लिए दो आंसू बहाने का वक्त भी नहीं निकालती। भले ही प्रेस क्लब में गप्पे मारकर देश और दुनिया की सियासत पर गुफ्तुगु होती हो, लेकिन अपने दर्द पर मरहम लगाने वाला कोई नहीं है। वक्त के साथ हवा भी मुखालिफ़ हो गई। न नई नौकरियां हैं, न पुरानों को जगह है। हालात इतने नासाज़ हो गये कि न तो रातों को नींद आती है और न ही दिन चैन से कटता है। हर रोज़ बायोडाटा को अपडेट करने में लग जाता है। लेकिन कोई नौकरी के लिए बुलाता ही नहीं। बार-बार घर वालों से झूठ बोलना पड़ता है। बच्चों को समझाना पड़ता है। और इस अनजाने डर ने कई सपनों को चकनाचूर कर दिया। कोई शादी करने का प्लान टाल रहा है। तो कोई मकान ख़रीदने के ख्वाब पर ब्रेक लगा चुका है। अपने बहुत से बिरादर भाई आज सड़क पर हैं। लेकिन न तो उनके लिए कोई दो लाइन अख़बार में लिखता है, और न ही किसी टीवी चैनल पर उनकी ख़बर टिकर में ही चलती है। और ऊपर से ठेके की नौकरी ने हालात और ख़राब कर दिये। इसके चक्कर में कई छोटे नपे, तो कई बड़ों को भी विदाई मिल गई। बहुत से पत्रकार तो सस्ते-सुंदर टिकाऊ के चक्कर में ही चले गये। लेकिन सबसे ज्यादा दिक्कत उनके सामने आई, जो अपने घर और बीवी बच्चों से दूर अंजान शहर में दो जून की रोटी जुटाने आये थे। राजधानी के मंहगे खर्चों ने उनकी कमर पहले ही तोड़ रखी थी, ऊपर से किस्तों की ज़िंदगी ने बुरा हाल कर दिया। और अब नौकरी के संकट ने उनकी सांसों को गले में ही अटका दिया। मां-बाप की उम्मीदें चकनाचूर हुईं, तो खुद के अरमान भी आंसुओं में बह गये। ऊपर से इन पत्रकारों के सामने बड़ी दिक्कत ये है कि ये पत्रकारी के अलावा कोई दूसरा काम भी नहीं कर सकते। न तो हाथ में हुनर है और न ही कोई प्रोफेशनल डिग्री। अलबत्ता बातें बनाने का गुण ज़रूर होता है। लेकिन उससे तो नौकरी मिलने से रही। अब कौन आयेगा रहनुमा बनकर जो हमारे दर्द को समझेगा।
4 Responses
  1. इस माहौल में हम और आप ही एक दूसरे का सहारा बन सकते हैं. जिस तरह का माहौल चल रहा है उसमें स्वतंत्र रूप से काम भी नहीं कर पा रहे।


  2. आदर्श राठोर की बात सही है किंतु यह पेशा बहुत खराब है। जिसे आप पालते हैं सिखाते हैं वही मौका पाकर आपको धकियाकर आगे निकलने में लगा है। पूरी उम्र इसी पेशे में लागकर यह पाया कि यहां किसी को किसी से सहानुभूति नही हैं। आपके खिलाफ कुछ होता है तो वही आपके विरूद्ध चटखारे लेतें हैं, जिन्हें आप मदद कर आगे बढातें हैं। कभी मुकदमा हुआ तो आपके साथी ही दुशमन को आपके विरूद्ध कार्रवाई के रास्तें बताते है।


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  4. अबयज भाई, मुद्दा आपने एकदम ठीक चुना है। दूसरों के हक के लिए अपनी कलम तोड़ लेने वाली हमारी बिरादरी के माथे की सिलवटों को पढ़ने वाला कोई नहीं है। नौकरी पर लटकती तलवार कब किसके सपनों को काट जाए कुछ कह नहीं सकते लेकिन कर भी क्या सकते हैं। मंदी को ढाल बनाकर जो खेल खेला जा रहा है उसे हमें और आपको ही समझना होगा।