अबयज़ ख़ान
कई दिन से उमस बढ़ती जा रही थी.. गर्मी के साथ चिपचिपाहट भी बढ़ने लगी थी.. फि़ज़ा खुशनुमा तो थी, लेकिन माहौल में काफ़ी नमी थी.. बस खुदा से दुआ थी, कि बारिश हो जाए.. कम से कम इस चिपचिपाती गर्मी से तो राहत मिलेगी.. लेकिन मौसम को शायद ये मंज़ूर नहीं था.. दिन तो किसी तरह दफ़्तर में गुज़र जाता था, लेकिन कबूतरखाने जैसे घरों में रात काटना बड़ा मुश्किल हो रहा था... लेकिन कहावत है न कि खुदा के घर देर है, लेकिन अंधेर नहीं... दिल्ली शहर में जब बारिश हुई तो झमाझम हुई.. बदरा बरसे तो जी भरकर बरसे.. आसमान में काली घटा ऐसी छाई, कि फिर तो रातभर बारिश ने मूसलाधार रूप अख्तियार कर लिया... बादलों ने तन और मन भिगो कर रख दिया.. लेकिन इस शहर और अपने गांव में यही फर्क है, कि यहां बारिश का मज़ा लेने के बजाए लोग चाहरदीवारी में ही कैद होकर रह जाते हैं।

और एक अपना गांव है, जहां बारिश में जमकर भीगो, कोई रोक-टोक नहीं... दिल्ली में बारिश झमाझम हो रही थी.. लेकिन ये क्या... एक घंटे बाद टीवी ऑन किया, तो हर चैनल पर डूबती-उतराती दिल्ली की तस्वीरें नज़र आ रही थी... शहर में कई-कई फुट पानी भर चुका था, गाड़ियों की लंबी-लंबी कतारें लगी थीं, दिल्ली जाम से दो-चार हो रही थी, और दिल्ली वाले बारिश से तरबतर। राजधानी की हालत पर तरस आ रहा था.. लेकिन क्या करें, बदहाली के लिए भी हम लोग ही ज़िम्मेदार हैं.. घर में नहीं हैं दाने और अम्मा चली भुनाने की तर्ज़ पर लोन लेकर गाड़ियों का अंबार लगाने पर तुले हैं.. और फिर जब घुटनों पानी से मशक्कत करके घर पहुंचते हैं, तो सरकार को कोसते हैं... सड़कें भी आखिर क्या करें... फैलकर बड़ी तो नहीं हो सकती न...

कई बार लगता है कि इससे तो अपना प्यारा छोटा सा गांव ही बेहतर है, जहां हम बचपन में भी बारिश के पानी में क़ाग़ज़ की कश्तियां चलाते थे.. और आज भी जाते हैं, तो बरसात में अपने इस पसंदीदा खेल को भला कैसे छोड़ सकते हैं.. पहली या दूसरी क्लास में रहे होंगे, काग़ज़ की नाव बनाना तो तभी सीख लिया था.. वैसे तो स्कूल में काग़ज़ के बहुत से खिलौने बनाना सीखे थे, लेकिन क़ाग़ज़ की नाव तो ज़िंदगी का एक हिस्सा बन गई.. शायरों ने इसे कलम में पिरो लिया, तो बच्चों ने इसमें अपनी दुनिया बसा ली.. बारिश के मौसम में फिर उसी घर में लौट जाने को जी करता है, मन करता है फिर से बचपन में लौट जाने को जहां दिलभर कर शरारतें करो.. जहां बरसात के पानी में छपाक.. छई करने को मिले.. जहां बारिश के पानी में किसी के ऊपर छींटे उड़ाने की फिर से छूटे मिले.. जहां बारिश के पानी में निकर पहनकर फिर से सड़क पर दौड़ने को मिले..

मुझे अच्छी तरह याद है, जब जुलाई के महीने में स्कूल खुलते ही खूब बारिशें होती थीं, स्कूल में पानी भर जाता था.. और फिर सबकी छुट्टी हो जाती थी... बस फिर क्या था... किताबों से भरा बैग पीठ पर लादकर घर के लिए दौड़ लगा दिया करते थे.. क्या मस्त दिन थे, वो बारिश में भीगने के... हसीन और बेहद खूबसूरत दिन... जहां बरसात में पापा के साथ अंगीठी पर भुट्टा भूनकर खाते थे.. तालाब से सिंघाड़े तोड़कर लाते थे... क्या मस्ती होती थी.. मोहल्ले में हमारे पानी भर जाए, तो कोई नगरपालिका को नहीं कोसता था.. बच्चों की तो समझो ऐश हो जाती थी... लेकिन दिल्ली शहर को देखकर तो डर लगता है.. कहां हम बचपन में कागज़ की नाव चलाते थे, और कहां अब दिल्ली शहर के बरसाती पानी में कारें डूबती-उतराती हैं...
3 Responses
  1. दिल्ली दरअसल अदूरदर्शी प्रबंधन की मार झेल रही है... गांवों में तो प्रकृति से बड़ा प्रबंधक कोई नहीं... लेकिन शहरों में कमान नेताओं के हाथ में है... ये नेता और इनकी नौकरशाही चू&%$यों की जमात है... इन्हें नोट भरने और टाइम पास करने से ही फुरसत नहीं है... ऐसे में हर मौसम इसी तरह से मुश्किलों भरा रहेगा... ऐसा तो नहीं है कि दिल्ली में पहली बार बारिश हो रही हो... इन पर सियारों वाली कहानी ठीक बैठती है...

    गांवों में रहने में ही आनंद है... ये तो विवशता है कि यहां आना पड़ा..


  2. हमेशा ही लगता है कि इससे प्यारा वो न्यारा गांव था..लेकिन क्या किया जाये..जिन्दगी यूँ नहीं लौटने देती..

    बहुत कुछ याद दिलाया इस आलेख के माध्यम से.


  3. अबयज़ भाई,
    बेहद ख़ूबसूरती से उकेरा है दोस्त दिल के जज्बातों को! सच में, बचपन के दिन भी क्या दिन थे!
    रही दिल्ली की बात, तो यार खैर मनाओ के कॉमनवैल्थ ना बह जाए बस! ये बसन्ती नहीं देश की इज्ज़त का सवाल है!
    आशीष