अब मेरे घर में कोई रिश्तेदार नहीं है
छत का आसरा है कोई दीवार नहीं है।
ज़िंदगी किस मोड़ पे मेरा इंतेज़ार करेगी
मेरा तो अपना अब कोई घरबार नहीं है।
अपने ही बदल जाते हैं,ग़ैरों से शिकायत क्या
आदमी को आदमी पे अब ऐतबार नहीं है।
हर कोई परेशान है अपनी ज़िंदगी से यहां
उलझने सुलझने के अब कोई आसार नहीं हैं।
रिश्तों की उसके दिल में कोई अहमियत नहीं रही
उसका अब अपना कोई 'अबयज़' रिश्तेदार नहीं है।
छत का आसरा है कोई दीवार नहीं है।
ज़िंदगी किस मोड़ पे मेरा इंतेज़ार करेगी
मेरा तो अपना अब कोई घरबार नहीं है।
अपने ही बदल जाते हैं,ग़ैरों से शिकायत क्या
आदमी को आदमी पे अब ऐतबार नहीं है।
हर कोई परेशान है अपनी ज़िंदगी से यहां
उलझने सुलझने के अब कोई आसार नहीं हैं।
रिश्तों की उसके दिल में कोई अहमियत नहीं रही
उसका अब अपना कोई 'अबयज़' रिश्तेदार नहीं है।
har sher lajawab bahut achhi gazal badhai.
"घर बेचने चले थे लेकर हम बाज़ारों में।
पर क्या करें वहां कोई खरीदार नहीं है ।
आपका ब्लोग बडा पसंद आया,साथ में गज़ल भी
रज़िया मिर्ज़ा