अबयज़ ख़ान
हम जिन्हें दिल में बसाने की बात करते हैं
वो बेमतलब ही फंसाने की बात करते हैं।।

वो हमें याद रखेंगे ये आरज़ू है फ़िज़ूल
क्योंकि वो हरकतें ही करते हैं ऊल-जलूल।।

शौक से आये बुरा वक्त अगर आता है
हमको भी चटनी-फ़ाकों में मज़ा आता है।।

मारकर वो मुझे खुश हैं लेकिन
मार उनकी भी बहुत पड़ी थी लोगों।।

हर कोई परेशान है अपनी ज़िंदगी से यहां
फिर भी खुदकुशी करने के कोई आसार नहीं हैं।।

गलियों में वही लड़के, हाथों में वही पत्थर
क्या अब भी तेरे भाई मुझे रोज़ ही मारेंगे।।

कब समां देखेंगे हम ज़ख्मों के भर जाने का
नाम लेता ही नहीं कोई डॉक्टर इधर से जाने का।।

सोचते ही रहे पूछेंगे तेरी आंखो से
किससे सीखा है, हुनर लड़कियां पटाने का।।

बैचेन इस कदर था, सोया न रात भर
मच्छर भी बहुत थे, खटमल भी बहुत।।

ग़म तेरे बिछड़ने का हम दिल में समां लेंगे
साथ खड़ी है दूसरी इसको ही पटा लेंगे।।

तेरी इक झलक के लिए दिल बेकरार है
आज कोई नहीं तो तुझसे ही प्यार है।।

दिल की आरज़ुओं की शमां न जल पड़े
ऐसा न हो सीढ़ी पर पैर फिसल पड़े
फिर किस तरह करे कोई इज़हारे मौहब्बत
जब आपकी चप्पलें उसके चेहरे पर पड़ें।।

तेरी महफिल में रोशनी के लिए
मैं पड़ोसी के बल्ब उतार लाया
तू ज़रा नफ़रत से फेर ले आंखे
मैं अभी लाइट बंद करके आया।।

मौहब्बत में ऐसे मक़ाम आ गये हैं
न लड़कियों की कमी, न कम हैं लड़के
ममता-जया को तो सलीका नहीं था
अटल-कलाम भी थे अच्छे लड़के।।
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