जून 2002 की गर्म दोपहरी थी। शाहबाद से बस में सवार हुए तो दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर कदम रखा। वैसे तो गाज़ियाबाद से ही मन अजीब सा होने लगा था। घर से दूर करियर की तलाश में दिल्ली पहुंच तो गये थे। लेकिन घर छूट गया था। सिर्फ़ कुछ दिन के लिए नहीं, बल्कि बहुत लंबे वक्त के लिए। दिल्ली में उतरते ही कुछ दिन नाते-रिश्तेदारों के यहां टिकने के बाद एक किराए का कमरा लिया, कमरे में जैसे ही घुसे, आंखों से आंसू टपक पड़े। अम्मी के साथ-साथ घर याद आने लगा। अकेले थे, सो घंटो चुपचाप रो भी लिए। अपने घर पर किये सारे ऐशो-आराम आंखों के सामने नज़र आने लगे। वो घर जहां कभी गन्ने के खेत में घुस जाते थे, तो तब तक बाहर नहीं निकलते थे, जब तक खेत वाला दो-चार गालियां न सुना दे। गन्ने के रस की खीर तो एक सीज़न में दस-बारह बार से कम नहीं खाते थे। अम्मी के लाख मना करने के बावजूद भरी दोपहरी में क्रिकेट खेलने जाते थे, तो खेलते-खेलते कब अंधेरा हो जाता था, याद ही नहीं रहता था। कभी ऐसा कोई दिन नहीं गुज़रा जब हमने खाना खाने में नखरे न दिखाएं हों। अरहर की दाल-चावल बन जाए तो समझो हमारी तो ईद हो जाती थी। पालक, बैंगन जैसी सब्ज़ी बन जाए तो उस दिन तो भूख हड़ताल समझो। न कपड़े धोने का झंझट न सफ़ाई करने की चिकचिक। लेकिन हां पढ़ाई की तरफ़ से घरवालों को कभी कहने का मौका नहीं दिया। तभी तो इतनी छूट मिली हुई थी। शाम को स्कूल से निपटने के बाद खाना और सोने के अलावा कोई काम नहीं होता था। बचपन में दूरदर्शन के अलावा टीवी देखने का दूसरा कोई ज़रिया था नहीं, लिहाज़ा लाइट मेहरबान हुई तो थोड़ी देर अब्बू-अम्मी के साथ टीवी देख लिया। उस वक्त कशिश, नीम का पेड़, सर्कस जैसे सीरियल आते थे, बेहद शानदार थे वो सीरियल्स भी। हमारे घर में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था, बिजली के अलावा बैटरी से भी चल जाता था। इतवार के दिन तो हमारे घर मेला लग जाता था। फिल्म देखने के लिए हम किराए पर बैटरी लाते थे और पूरा मौहल्ला हमारे घर फिल्म देखता था। इस दौरान चाय का दौर भी चलता था। अम्मी भगौने में भरकर पूरे घर के लिए चाय बनाती थीं। लेकिन दिल्ली में आते ही ये सारे ऐश काफ़ूर हो गये। न तो अब किसी पर नखरे दिखा सकते थे, न अम्मी के हाथ का खाना नसीब होता। दिल्ली के होटलों के मीनू में तो दो-चार सब्जियां फिक्स होती हैं। एक ही चीज़ को चार-चार चीज़ों में मिलाकर अठारह भोग बना देते हैं.. सबका टेस्ट भी एक जैसा ही। दाल मखनी, राजमा-चावल, शाही पनीर, मिक्स काली दाल ये चार सब्ज़ियां तो पेटेंट हैं। ये पनीर तो कमाल की चीज़ है। 56 तरह के भोग इस पनीर से ही ढाबे वाला दो मिनट में बना देता है। शुरु में एक महीने तो ये सब काफ़ी अच्छा लगा, उसके बाद तो इन सब्जियों से नफ़रत सी होने लगी। ऊपर से शाम को थक-हारकर कमरे पर आओ तो एक कमरे में ही बंद होकर रह जाओ। सड़ी गर्मी में भी उसी कमरे में बंद रहना पड़ता था। बरसात के बाद वाली गर्मी तो और भी बुरी, ऐसा लगता था जैसे तंदूर में बंद हो गये हों। ऊपर से पड़ोस के किराएदारों की चिकचिक वो अलग। घर पर अम्मी शाम को आंगन में बिस्तर लगाती थी, तो घंटो तो आसमान की तरफ़ ही टकटकी लगाए देखते रहते थे। और यहां तो हफ्तों बीत जाते हैं आसमां की तरफ़ देखे हुए। दिल्ली की डब्बेनुमा ज़िदगी में सुबह उठकर दफ्तर चले जाओ, शाम को आने के बाद उन्हीं कबूतरखानों में फिर सो जाओ। दस-बारह घंटे की नौकरी, दो घंटे घर से दफ्तर आने-जाने में, और चार घंटे सोने में। दिन के 24 घंटे, घंटो से हफ्ते, और हफ्तों से साल, दिन हवा की तरह निकले जा रहे थे। लेकिन इस शहर में छह साल रहने के बाद भी न तो किसी में अपनाइयत दिखी, और न इस शहर में कोई ऐसा मिला, जिससे आप अपने दिल की बात कहकर बोझ़ को हल्का कर लें। गालिब की इस दिल्ली ने रफ्तार पकड़ी तो और बेदर्द हो गई। कई बार लगता है पत्रकार बनने के जुनून में जिंदगी हमसे कोसों दूर चली गई।