मंदी, महंगाई और मेहमान... तंगी के इस दौर में जेब खाली है, आम तो आम गुठलियों के दाम भी नहीं मिल रहे हैं। बाज़ार में फलों का राजा पूरी धौंस के साथ बिक रहा है। 10 से 15 रुपये किलो वाला आम 50 से 60 रुपये किलो बिक रहा है। सब्जियों का राजा आलू तो और भी कमाल कर रहा है। दाम आसमान पर हैं, आलू दम ने लोगों का दम निकाल रखा है। तो प्याज ने आंसू निकाल रखे हैं। दाल ने कमर तोड़ दी, सो अलग। बैंगन के भाव ज़रा मार्केट में कम होते हैं, वर्ना शायद बैंगन भी आसमान पर होता। अब सब्जी महंगी, दाल महंगी और खाने के बाद मुंह मीठा करने वाले आम का जायका भी कड़वा हो गया है। घर में थाली का साइज सिकुड़ रहा था, तो किचन में भी सन्नाटा पसरा था।
फ्रिज भी खाली हो चुका था। अब तो उसमें पानी भी नहीं भर सकते, क्योंकि अनमोल पानी का भी मोल हो चुका था। क्या खाएं और क्या न खाएं, यही सोचकर दिमाग भन्ना गया था। हम तो मियां भाई हैं, सो मुर्गे की लात भी खा सकते हैं, लेकिन सावन में अपने दूसरे भाई लोग क्या करें। मर्गे की खाल उधेड़ना है, तो सावन निकलने का इंतज़ार तो करना ही होगा। बाज़ार में मंदी ने जान निकाल ली है। नौकरियों पर तलवार लटक रही है, सैलरी का पता नहीं है। ऊपर से कंगाली में उस वक्त आंटा गीला हो गया, जब घर पर बिन बुलाए मेहमान धमक पड़े। पहले दिन तो मेहमान का बड़ी गर्मजोशी से इस्तकबाल किया, एक-दो दिन उनकी खूब खातिरदारी भी की, लेकिन मेहमान ने तो घर में डेरा डाल लिया था।
उंगली पकड़कर जनाब पहुंचे तक पहुंच गये। मेहमान भगवान की जगह आफ़त बन गये। दस दिन तक भी जब उन्होंने जाने का नाम नहीं लिया, तो हम ही उनको भगाने की तरकीबें ढूंढने लगे। घर से बाहर दिल्ली शहर में हम दोनों भाई परेशान कि आखिर इस मेहमान से कैसे पिंड छुड़ाया जाए। बातों-बातों में मेहमान को कई बार समझाया, कि भईया तुम कब दफ़ा होगे, कब छोड़ेगे हमारी जान? लेकिन मेहमान भी पूरे ढीढ थे। जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। एक दिन हम दोनों भाईयों ने प्लान बनाकर उनसे झूठ बोला कि भईया हमें घर जाना है, तो अब आप भी अपना रास्ता नापो। लेकिन जनाब आसानी से पीछा छोड़ने के मूड में नहीं थे। बोले कोई बात नहीं, आप चले जाइये, मैं यहां अकेला ही रुक जाऊंगा।
आप आराम से अपने घर जाइये, अब हमारा दांव हम ही पर उल्टा पड़ गया। हम लोगों को समझ ही नहीं आया कि अब क्या करें। ये जनाब तो चिकने घड़े बन चुके हैं। पूरे दिन घर में उन्हें सोने और खाने के अलावा कोई काम भी नहीं था। फिर हमने एक और प्लान बनाया, हम दोनों भाईयों ने उन्हें अपने दफ्तर से फोन कर झूठ बोला कि भईया हम लोग शूट पर जा रहे हैं, तो जब आप जाएं, तो घर में ताला लगाकर चाभी पड़ोसी को दे जाएं। उन्होंने कहा ठीक है। इसके बाद हमने राहत की सांस ली, कि चलो पिंड छूटा। दोपहर को जब दफ्तर से काम निपटाकर लौटने लगे, तो सोचा कि चलो एक बार फोन कर पता करें, कि भाई साहब दफ़ा हुए या नहीं, लेकिन ये क्या, जनाब ने फोन उठाया, तो बोले अभी तो नहीं गया हूं, शायद शाम तक जाऊंगा। हमारी तो समझ नहीं आ रहा था, कि अब करें, तो क्या करें। अब घर भी कैसे जाएं, उनसे झूठ तो पहले ही बोल चुके थे, कि हम शूट पर निकल गये हैं। घर जाते हैं तो फंस जाएंगे।
मजबूरन घर जाने के बजाए हमने दिल्ली की सड़कें नापने का फैसला किया, ताकि वो छह बजे तक हमारा घर छोड़ें, और हम अपने घर पहुंचे। छह बजे तक बड़ी मुश्किल से इंतज़ार किया, लेकिन वो तो अब भी पत्थर की तरह जमे थे। हमने उनसे लाख गुजारिश की, कि भईया रात हो जाएगी, आपको तो फिर जाने में दिक्कत होगी, इसलिए दिन छिपे से पहले ही निकल जाओ, लेकिन जनाब टस से मस होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर दिल्ली नाप-नापकर हमारी टांगे टूट रहीं थीं, उधर वो हमारे घर में रखे हुए खाने के सामान पर हाथ साफ़ कर रहे थे। खैर जैसे-तैसे करके रात के ग्यारह बजे उनका फोन आया कि शायद मैं अगले आधे घंटे में निकल जाऊं। हमने थोड़ी राहत की सांस ली, आधा घंटा पहाड़ की तरह लग रहा था। खैर क़तरा-क़तरा करके घड़ी ने साढ़े ग्यारह बजाए। एक और फोन आया, जनाब मैं निकल चुका हूं, मेहमाननवाज़ी के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। हम-दोनों भाईयों को समझ नहीं आ रहा था कि हंसे या रोयें, क्योंकि दिल्ली नापते-नापते पैर दर्द कर चुके थे। भूख से बुरा हाल हो चुका था, ऑटो कर घर पहुंचे, तो फिर दरवाजा खोलकर सीधे बिस्तर पर गिर गये। और फिर बेफिक्री की जो नींद आई, वो अगले दिन सुबह ही टूटी। लेकिन तौबा कर ली बिन-बुलाए मेहमानों से।
फ्रिज भी खाली हो चुका था। अब तो उसमें पानी भी नहीं भर सकते, क्योंकि अनमोल पानी का भी मोल हो चुका था। क्या खाएं और क्या न खाएं, यही सोचकर दिमाग भन्ना गया था। हम तो मियां भाई हैं, सो मुर्गे की लात भी खा सकते हैं, लेकिन सावन में अपने दूसरे भाई लोग क्या करें। मर्गे की खाल उधेड़ना है, तो सावन निकलने का इंतज़ार तो करना ही होगा। बाज़ार में मंदी ने जान निकाल ली है। नौकरियों पर तलवार लटक रही है, सैलरी का पता नहीं है। ऊपर से कंगाली में उस वक्त आंटा गीला हो गया, जब घर पर बिन बुलाए मेहमान धमक पड़े। पहले दिन तो मेहमान का बड़ी गर्मजोशी से इस्तकबाल किया, एक-दो दिन उनकी खूब खातिरदारी भी की, लेकिन मेहमान ने तो घर में डेरा डाल लिया था।
उंगली पकड़कर जनाब पहुंचे तक पहुंच गये। मेहमान भगवान की जगह आफ़त बन गये। दस दिन तक भी जब उन्होंने जाने का नाम नहीं लिया, तो हम ही उनको भगाने की तरकीबें ढूंढने लगे। घर से बाहर दिल्ली शहर में हम दोनों भाई परेशान कि आखिर इस मेहमान से कैसे पिंड छुड़ाया जाए। बातों-बातों में मेहमान को कई बार समझाया, कि भईया तुम कब दफ़ा होगे, कब छोड़ेगे हमारी जान? लेकिन मेहमान भी पूरे ढीढ थे। जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। एक दिन हम दोनों भाईयों ने प्लान बनाकर उनसे झूठ बोला कि भईया हमें घर जाना है, तो अब आप भी अपना रास्ता नापो। लेकिन जनाब आसानी से पीछा छोड़ने के मूड में नहीं थे। बोले कोई बात नहीं, आप चले जाइये, मैं यहां अकेला ही रुक जाऊंगा।
आप आराम से अपने घर जाइये, अब हमारा दांव हम ही पर उल्टा पड़ गया। हम लोगों को समझ ही नहीं आया कि अब क्या करें। ये जनाब तो चिकने घड़े बन चुके हैं। पूरे दिन घर में उन्हें सोने और खाने के अलावा कोई काम भी नहीं था। फिर हमने एक और प्लान बनाया, हम दोनों भाईयों ने उन्हें अपने दफ्तर से फोन कर झूठ बोला कि भईया हम लोग शूट पर जा रहे हैं, तो जब आप जाएं, तो घर में ताला लगाकर चाभी पड़ोसी को दे जाएं। उन्होंने कहा ठीक है। इसके बाद हमने राहत की सांस ली, कि चलो पिंड छूटा। दोपहर को जब दफ्तर से काम निपटाकर लौटने लगे, तो सोचा कि चलो एक बार फोन कर पता करें, कि भाई साहब दफ़ा हुए या नहीं, लेकिन ये क्या, जनाब ने फोन उठाया, तो बोले अभी तो नहीं गया हूं, शायद शाम तक जाऊंगा। हमारी तो समझ नहीं आ रहा था, कि अब करें, तो क्या करें। अब घर भी कैसे जाएं, उनसे झूठ तो पहले ही बोल चुके थे, कि हम शूट पर निकल गये हैं। घर जाते हैं तो फंस जाएंगे।
मजबूरन घर जाने के बजाए हमने दिल्ली की सड़कें नापने का फैसला किया, ताकि वो छह बजे तक हमारा घर छोड़ें, और हम अपने घर पहुंचे। छह बजे तक बड़ी मुश्किल से इंतज़ार किया, लेकिन वो तो अब भी पत्थर की तरह जमे थे। हमने उनसे लाख गुजारिश की, कि भईया रात हो जाएगी, आपको तो फिर जाने में दिक्कत होगी, इसलिए दिन छिपे से पहले ही निकल जाओ, लेकिन जनाब टस से मस होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर दिल्ली नाप-नापकर हमारी टांगे टूट रहीं थीं, उधर वो हमारे घर में रखे हुए खाने के सामान पर हाथ साफ़ कर रहे थे। खैर जैसे-तैसे करके रात के ग्यारह बजे उनका फोन आया कि शायद मैं अगले आधे घंटे में निकल जाऊं। हमने थोड़ी राहत की सांस ली, आधा घंटा पहाड़ की तरह लग रहा था। खैर क़तरा-क़तरा करके घड़ी ने साढ़े ग्यारह बजाए। एक और फोन आया, जनाब मैं निकल चुका हूं, मेहमाननवाज़ी के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। हम-दोनों भाईयों को समझ नहीं आ रहा था कि हंसे या रोयें, क्योंकि दिल्ली नापते-नापते पैर दर्द कर चुके थे। भूख से बुरा हाल हो चुका था, ऑटो कर घर पहुंचे, तो फिर दरवाजा खोलकर सीधे बिस्तर पर गिर गये। और फिर बेफिक्री की जो नींद आई, वो अगले दिन सुबह ही टूटी। लेकिन तौबा कर ली बिन-बुलाए मेहमानों से।
ऊपर से कमबख्त हालात भी बहुत अच्छे हैं...
आज के महँगाई के दौर मे मेहमानो का आना तौबा-तौबा ।
इटली की महारानी से पिज़्ज़ा मंगवाइये… :) :)
अब ऐसा लगता है कि घर के बाहर एक बोर्ड लगाना पड़ेगा.. मंदी के दौर मेहमान दूर रहें..
मेहमाँ जो हमारा होता है, वो जान से प्यारा होता है, - यह शायद ऐसे मेहमानों के लिए नहीं कहा गया है.