महीने की पहली तारीख़ गुज़र गई, लेकिन एकाउंट में पैसा अभी तक नहीं पहुंचा था। एक-एक दिन पहाड़ जैसा लग रहा था। जेब पूरी तरह खाली थी, पेट भरने से ज्यादा किस्तें अदा करने की फिक्र थी। खाना खाये बगैर भूखे रह लेंगे, लेकिन चैक बाउंस होने के बाद जो हालत होगी, उसके बारे में सोचकर ही रूह कांप जाती है। अब पहले जैसा तो ज़माना रहा नहीं, जो सारे प्लान रिटायरमेंट के बाद करना पड़े, जिंदगी बहुत फास्ट हो चुकी है। ज़माना बदल चुका है। आज के नौजवान रिटायर होने का इंतेज़ार नहीं करते। ज़िदगी में सब कुछ जी लेने की चाहत में दिन-रात हाड़ तोड़ मेहनत हो रही है। सुबह से शाम तक धूप में पसीना बहाने के बाद भी लगता है बहुत कुछ बाकी रह गया है।
जब छोटे थे, तो हमारे अंकल ने रिटायरमेंट के बाद मिले फंड से पहले बेटी की शादी की, उसके बाद बचे पैसे से अपने लिए एक छोटा सा मकान खरीदा। बाकी की सारी ज़िंदगी पेंशन पर गुज़ार दी। पहले के लोग मकान का सपना रिटायरमेंट के बाद ही देखते थे। लेकिन आज ज़माना रफ्तार का है। रिटायरमेंट का इंतेज़ार नहीं होता। आजकल के लड़के नौकरी के साथ ही छोकरी की तलाश भी शुरु कर देते हैं। इंतेज़ार तो बिल्कुल भी नहीं, अब शादी की ज़िम्मेदारी मां-बाप के कंधों से लेकर खुद ही निभाने लगे हैं। इधर नौकरी मिली, उधर सात फेरे लेने की तैयारी, शादी के बाद मकान का सपना, और इस सपने को देखने में बिल्कुल भी लेट-लतीफ़ी नहीं। क्योंकि अब सपने देखे नहीं जाते, बल्कि बनाये जाते हैं। अब मकान के लिए पैसा जमा करने की दिक्कत नहीं, पैसा बांटने वाले तो शहर के हर कोने पर खड़े हैं। रात-दिन कभी भी, किसी भी वक्त आपको फोन करके पैसा बांटने की फिराक में रहते हैं।
कर्ज़ के पैसे से सपनों का मकान खड़ा होता है, तो अगला क़दम होता है गाड़ी खरीदने का। इधर बात मुंह से निकली उधर घर के गैराज में चमकती हुई गाड़ी, आपके बुज़ुर्गों को मुंह चिढ़ाती है, ये देखो, तुम जो काम ज़िंदगी भर नहीं कर पाये, वो तुम्हारे लड़के ने कितनी तेज़ी से कर डाला। गाड़ी के बाद घर की दूसरी चीज़ों को खरीदना तो और भी आसान है। ज़ीरो परसेंट के चक्कर में लोग ऐसे फंसते हैं, कि फिर तो ज़िंदगी किस्तों में गुज़रती है। बचपन में हमारे अब्बू महीने की पहली तारीख को दूध वाले, मकान मालिक और पड़ोस के लाला का हिसाब-किताब करते थे। लेकिन अब तो महीने की पहली तारीख को आधी से ज्यादा कमाई मकान की किस्त, गाड़ी की किस्त, लैपटॉप, फ्रिज, वॉशिंग मशीन और दूसरी चीज़ों में ही चली जाती है।
ऊपर से अगर वक्त पर किस्त जमा नहीं हुई तो सूद के पैसे अलग। और अगर लोन की एक भी किस्त टूटी तो बाउंसरों के मुक्कों से निपटने को तैयार रहो। सोने पर सुहागा ये कि अगर आपके घर में छोटे से साहबज़ादे हैं तो उनके स्कूल की नर्सरी की फीस इतनी होती है, जितने में आप स्कूल से कॉलेज तक ऐशो-आराम करके निपट गये थे। ऊपर से अख़बार, केबल, टेलीफ़ोन, गैस, बिजली-पानी के बिल सो अलग। किस्तें जमा करते-करते ज़िंदगी कमान बन जाती है। जिस ऐश के लिए ये सब कुछ किया था, वो तो कोसों तक नज़र नहीं आता। किस्तों में जमा हुए इस ऐशो-आराम पर कई बार आपको रश्क तो बहुत होता होगा, लेकिन आपके बाद बच्चे आपको सिर्फ़ इसलिए याद करेंगे, कि हमारे पापा ने विरासत में किस्तों का महल छोड़ा है।
जब छोटे थे, तो हमारे अंकल ने रिटायरमेंट के बाद मिले फंड से पहले बेटी की शादी की, उसके बाद बचे पैसे से अपने लिए एक छोटा सा मकान खरीदा। बाकी की सारी ज़िंदगी पेंशन पर गुज़ार दी। पहले के लोग मकान का सपना रिटायरमेंट के बाद ही देखते थे। लेकिन आज ज़माना रफ्तार का है। रिटायरमेंट का इंतेज़ार नहीं होता। आजकल के लड़के नौकरी के साथ ही छोकरी की तलाश भी शुरु कर देते हैं। इंतेज़ार तो बिल्कुल भी नहीं, अब शादी की ज़िम्मेदारी मां-बाप के कंधों से लेकर खुद ही निभाने लगे हैं। इधर नौकरी मिली, उधर सात फेरे लेने की तैयारी, शादी के बाद मकान का सपना, और इस सपने को देखने में बिल्कुल भी लेट-लतीफ़ी नहीं। क्योंकि अब सपने देखे नहीं जाते, बल्कि बनाये जाते हैं। अब मकान के लिए पैसा जमा करने की दिक्कत नहीं, पैसा बांटने वाले तो शहर के हर कोने पर खड़े हैं। रात-दिन कभी भी, किसी भी वक्त आपको फोन करके पैसा बांटने की फिराक में रहते हैं।
कर्ज़ के पैसे से सपनों का मकान खड़ा होता है, तो अगला क़दम होता है गाड़ी खरीदने का। इधर बात मुंह से निकली उधर घर के गैराज में चमकती हुई गाड़ी, आपके बुज़ुर्गों को मुंह चिढ़ाती है, ये देखो, तुम जो काम ज़िंदगी भर नहीं कर पाये, वो तुम्हारे लड़के ने कितनी तेज़ी से कर डाला। गाड़ी के बाद घर की दूसरी चीज़ों को खरीदना तो और भी आसान है। ज़ीरो परसेंट के चक्कर में लोग ऐसे फंसते हैं, कि फिर तो ज़िंदगी किस्तों में गुज़रती है। बचपन में हमारे अब्बू महीने की पहली तारीख को दूध वाले, मकान मालिक और पड़ोस के लाला का हिसाब-किताब करते थे। लेकिन अब तो महीने की पहली तारीख को आधी से ज्यादा कमाई मकान की किस्त, गाड़ी की किस्त, लैपटॉप, फ्रिज, वॉशिंग मशीन और दूसरी चीज़ों में ही चली जाती है।
ऊपर से अगर वक्त पर किस्त जमा नहीं हुई तो सूद के पैसे अलग। और अगर लोन की एक भी किस्त टूटी तो बाउंसरों के मुक्कों से निपटने को तैयार रहो। सोने पर सुहागा ये कि अगर आपके घर में छोटे से साहबज़ादे हैं तो उनके स्कूल की नर्सरी की फीस इतनी होती है, जितने में आप स्कूल से कॉलेज तक ऐशो-आराम करके निपट गये थे। ऊपर से अख़बार, केबल, टेलीफ़ोन, गैस, बिजली-पानी के बिल सो अलग। किस्तें जमा करते-करते ज़िंदगी कमान बन जाती है। जिस ऐश के लिए ये सब कुछ किया था, वो तो कोसों तक नज़र नहीं आता। किस्तों में जमा हुए इस ऐशो-आराम पर कई बार आपको रश्क तो बहुत होता होगा, लेकिन आपके बाद बच्चे आपको सिर्फ़ इसलिए याद करेंगे, कि हमारे पापा ने विरासत में किस्तों का महल छोड़ा है।
bilkul sahee kahaa aapane ye shaayad ab ghar ghar ki kahani ban gayee hai basiya post shubhkaamanayen
मुज़े लगता है कि किस्तों में केवल मकान लेना चाहिए। क्योंकि मकान किराए भत्ते से आधी किस्त भरी जा सकती है।
घुघूती बासूती
अब सपने देखे नहीं जाते, बल्कि बनाये जाते हैं। सही बात कही है आपने और इन्हीं को बनाने में इंसान ज़िन्दगी जीना भूल जाता है।
aap logo ko likhna nhii aata to kyo likh rhey hooo itna rdii mn kar ta hey kii jla daloo dhoo shrm aatii hey itne gnde essay/paraghraph
bkvas
bkvass hey kya likh rhkha hey locl