ईद ख़त्म हो चुकी थी और अब घर से दिल्ली रवानगी का वक्त करीब आ रहा था। अम्मी ने बैग में करीब-करीब सारा सामान बांध दिया था। कपड़ों और किताबों के अलावा खाने का भी कुछ सामान बैग में था। फिर वो सुबह भी आई जब दिल्ली जाने का वक्त आया। घर से निकलते वक्त तमाम हिदायतें भी मिलीं। किसी से फालतू दोस्ती मत करना, रास्ते में कुछ खाना मत... वगैरह..वगैरह। अलसुबह हम बस में सवार हुए, घर से कोई सीधी बस दिल्ली नहीं जाती थी, इसलिए हमेशा की तरह पहले मुरादाबाद की बस ली, वहां से आगे दिल्ली की बस में सवार होना था। मुरादाबाद पहुंचे तो दिल्ली की बस भी तैयार मिल गई। अभी तक सफ़र बड़े आराम से कट रहा था। सफ़र लम्बा था, इसलिए मैंने सोचा क्यों न झपकी ही ले ली जाए।
लेकिन एक घंटे के बाद ही अचानक बस रुक गई, मालूम हुआ, कि बस एक रोडसाइड ढाबे पर रुकी है। दिल्ली के रास्ते में पड़ने वाले एक ढाबे पर.... कुछ नाम भी लिखा था, उस पर शायद वैष्णव ढाबा। किसी भी हाईवे या सड़क से आप गुज़र जाईये... थोड़ी-थोड़ी दूर पर आपको कुकुरमुत्तों की तरह उगे ऐसे हज़ारों ढाबे मिल जाएंगे। जिन पर लिखा होता है... काके दा ढाबा, पम्मी दा ढाबा, शेरे पंजाब ढाबा, माता वैष्णो ढाबा, गुलशन ढाबा, मुस्लिम ढाबा वगैरह वगैरह... कुछ ढाबे तो बाकायदा इस बात का दावा करते हैं, कि वो फलाने परिवहन निगम से अनुबंधित हैं। नेशनल हाईवे-24 की सुनसान सड़क के ऐसे ही एक ढाबे पर ड्राइवर ने यूपी रोडवेज़ की बस रोक दी। बस रोकने के बाद ढाबे वाले के साथ ही ड्राईवर और कंडक्टर भी आवाज़ लगा रहे थे, जिस किसी को कुछ खाना-पीना है, वो खाले... अभी आधे घंटे बस ढाबे पर रुकेगी... किसी को टॉयलेट बाथरूम जाना है, वो जा सकता है। एक-एक कर सारी सवारियां बस से नीचे उतर गईं।
ढाबे वाला आवाज लगा रहा था... बीस रुपये में भरपेट खाना खाइये। बीस रुपये की थाली है, जिसमें दाल-चावल रोटी, सब्ज़ी, रायता और अचार मिलेगा। हर कोई अपने-अपने अंदाज़ में आवाज़ लगा रहा था, ग्राहकों को लुभाने की या यूं कहें बेवकूफ बनाने की भरपूर कोशिश की जा रही थी। खाना तो मेरे बैग में ही था, जो अम्मी ने घर से चलते वक्त बनाकर दिया था, तो मैंने सोचा कि चलो एक कप चाय ही पी ली जाए, कुछ सुस्ती ही उतर जाएगी। आगे बढ़कर चाय वाले से एक चाय ली, जो पांच रुपये की थी। लेकिन उस चाय को मुंह में रखते ही ऐसा लगा जैसे कोई बदबूदार और कड़वी चीज़ मुंह में डाल ली हो, चाय के स्वाद से लगा, जैसे ये कई दिन पुरानी हो, उसका ज़ायका बयान करने लायक नहीं है। मैंने फौरन ही चाय पास ही कूड़ेदान में फेंक दी... चाय वाले से उसकी शिकायत की, तो ऐसा लगा जैसे वो मेरे ऊपर चढ़ बैठेगा। लेकिन इस अजनबी जगह में मैंने चुप रहना ही बेहतर समझा, और अपने पांच रुपये पर अफ़सोस कर बस में वापस आकर बैठ गया।
लेकिन थोड़ी देर बाद अचानक फिर कुछ शोर सा सुनाई दिया। मारो-मारो साले को... आवाज़ सुनकर मैं भी नीचे उतर गया। भीड़ में कुछ लोग एक आदमी को पीट रहे थे और वो बेचारा बचाने की गुहार लगा रहा था... जब वो लोग मारकर चलते बने तो मैंने उससे हमदर्दी के बतौर पूछा... भाई साहब क्या हुआ, ये लोग आपको क्यों मार रहे थे?? इतना कहते ही उस बेचारे की रुलाई फूट पड़ी। कहने लगा भईया हमें क्या पता था... ये लोग चिल्ला रहे थे बीस रुपये में भरपेट खाना खाओ। मैं भी खाने बैठ गया, लेकिन खाने खाने के बाद ये लोग खाने का डेढ़ सौ रुपया मांग रहे थे। हमने कहा भईया आप तो बीस रुपये में आवाज़ लगा रहे थे, तो कहने लगे ज्यादा जबान मत लड़ा... चल पैसे निकाल... मैंने कहा, मैं बीस से ज्यादा नहीं दूंगा... तुम लोगों को बेवकूफ़ बनाकर लूट रहे हो... बस इतना कहना था.. कि सारे लोग मुझे चिपट गये और मुझे मारने लगे। इतना सुनते ही मेरे बदन में कंपकपी छूट गई... मैंने सोचा मैं बड़ा खुशनसीब था, नहीं तो शायद वो चाय वाला मेरी भी ऐसी ही हालत करता। ये तो तस्वीर सिर्फ़ एक ढाबे की है, लेकिन सड़कों के किनारे पर बने ऐसे सैकड़ों-हज़ारों ढाबों का यही हाल है।
इन ढाबों पर बसों के ड्राईवर और कंडक्टर तो मुफ्त में खाना खाते हैं, लेकिन उसके बदले में उनकी सवारियों को बुरी तरह लूटा जाता है। अवैध तरीके से खुले इन ढाबों पर न तो पुलिस छापा मारती है और न ही प्रशासन कोई कार्रवाई करता है। जनता लुटती रहे तो उनकी बला से। उनका हफ्ता बंधा होता है जो तय वक्त पर उनके पास पहुंच जाता है। ढाबे वाले सवारियों से न सिर्फ़ मनमाने दाम वसूलते हैं, बल्कि उनके साथ बाउसरों और गुंडो की एक टीम भी होती है, जो आनाकानी करने वालों को मार-मार कर सबक सिखा देते हैं। उस आधे घंटे के दौरान ढाबे वालों का बस चले तो सवारियों के कपड़े उतार ले। हर चीज़ के दाम बाज़ार से तिगुने और चौगुने वसूले जाते हैं, और जो कोई रेट को लेकर एतराज़ करता है, उसे उनके मुस्टंडे अच्छी तरह से आटे-दाल का भाव समझा देते हैं। जनता आखिर करे भी तो क्या... सरकारें तो गूंगी-बहरी हैं।
जब आप सड़क पर होते है हैं तो निहायत अकेले होते है। यह आजकल आम बात हो गई है । बेहतर है अपने पास खाने का सामान पहले से ही रखा जाये ।
परदेसियों को हर जगह लूटा जाता है...
कुछ ढाबे तो बाकायदा इस बात का दावा करते हैं, कि वो फलाने परिवहन निगम से अनुबंधित हैं।
....बिलकुल सही, फर्क सिर्फ इतना है ये परिवहन निगम से नहीं बल्कि ड्राईवर और कंडक्टर से अनुबंधित होते है.. तभी बस ठीक इनके ढाबे के पास ही रूकती है.
सड़क पर सतर्कता चूके और आप लूट लिए जाते हैं.
रूडकी बस अड्डे और मुजफ्फरनगर के खतौली बस अड्डे पर मैं इसी तरह की लूट और गुन्डागर्दी स्वयं देख चुका हूँ.पुलिस प्रशासन, बस ड्राईवर और परिचालक के साथ मिलकर ये यात्रियों को सरेआम लूटते हैं.