बचपन में मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी पड़ी थी ईदगाह... उसमें हामिद नाम का एक छोटा सा बच्चा था, जो अपनी दादी के लिए मेले से एक चिमटा लाया था, ताकि उसकी दादी के हाथ जलने न पाएं... उस कहानी को पढ़कर दो आंसू हामिद और उसकी दादी के लिए ज़रूर छलक आते थे... लेकिन न तो अब हामिद है, न उसकी दादी और न ही अब कहीं मेले नज़र आते हैं... हिंदुस्तान की पहचान मेले गांव-देहातों की शान हुआ करते थे, मेलों में सज धजकर जाना फख्र की बात माना जाता था... जहां कहीं मेला लगता था, वहां तो समझो ईद हो जाती थी.. बड़ी फुर्सत से जाते थे मेले में... दूर-दूर से नाते-रिश्तेदार भी मेला करने आते थे...
मेरे कस्बे में भी साल में कई मर्तबा मेला लगता था... लेकिन सबसे मशहूर मेला मुहर्रम का था.. दूर-दूर से दुकाने आती थीं, जिसमें बच्चों के लिए तमाम तरह के खिलौनों की दुकाने होती थीं, तो कहीं औरतों के लिए बिसातखाने की दुकाने... कहीं-कहीं हर माल वालों की दुकान भी होती थी, जहां पांच रुपये में सुई से लेकर मानों तो हवाई जहाज तक मिल जाता था... तो कहीं हल्वे-पराठे और जलेबियों की दुकाने भी लगती थी... गर्मागर्म जलेबी खाने के बाद अगर आपकी जीभ को कुछ चटपटा खाने की मंशा हो, तो समोसों से लेकर आलू टिक्की और गोल गप्पे तक हाज़िर होते थे... गोल गप्पे भी दिल्ली की तरह नहीं.. पांच रुपये में तीन... वहां तो भरपेट खाओ.. जितना मन करे, कचौड़ियों से लेकर पकौड़ियों तक.. लेकिन दाम बस एक से दो रुपये तक...
मेले में खिलौनो और खील-बताशों के बीच ही सबीलें भी लगाई जाती थीं, जहां लोगों को शर्बत पिलाया जाता था....अगर अब आप खाने-पीने और दुकानदारी से निपट गये हों, तो चले आईए मेले के दूसरे छोर पर... अहा.. क्या-क्या नज़ारे होते थे... बड़े-बड़े झूले...जिसमें बैठने के बाद रोंगटे खड़े हो जाएं... और कोई पहली बार बैठ गया, तो समझो उसको तो चक्कर आ जाए... झूले में बैठने के बाद लगता था, कि बस सबसे ऊपर तो अब हम ही हैं... मेले में फोटोग्राफर की दुकान पर सबसे ज्यादा मजमा जुटता था...नौजवान लड़के-लड़कियां बड़ी अदा के साथ उसकी दुकान पर फोटो खिंचवाते थे... कोई हाथ में टेलीफोन लेकर फोटो खिंचवाता था, तो कोई मोटरसाईकिल पर सवार होकर अपनी तस्वीर बनवाता था.. चश्मा लगाकर और बन-ठनकर फोटो खिंचवाने वालों की तो पूछिए मत...
दूसरी तरफ़ तमाशे वाले.. एक से एक तमाशे... कहीं मदारी बंदर का नाच दिखा रहा है, तो कहीं जादूगर बच्चे का सिर धड़ से काट देता था, और तमाशा देखने वाले दूसरे बच्चों का तो खून सूख जाता था... फिर जादूगर सबको धमकाकर कहता था, कि जो आदमी यहां से बिना पैसे दिये जाएगा.. वो घर तक सही सलामत नहीं पहुंच पाएगा... उसको जादू के करतब से मैं बीमार कर दूंगा... और मासूम बच्चे डर के मारे घर से जो पैसे लेकर आते थे, वो सब उसी को देकर चले जाते थे... इसके बाद बारी आती थी सर्कस की... अजब-गजब करतब करती लड़कियों को देखने के लिए पूरा का पूरा कस्बा जुट जाता था... सर्कस के बाहर शेर का बड़ा सा बोर्ड भी लगा होता था, लेकिन शेर कभी नज़र नहीं आया...
वहीं पास में ही एक छोटा सा सनीमा वाला रोज़ाना तीन शो... शोले..शोले..शोले... सुपर डुपर हिट फिल्म... ज़रुर देखिए.. ज़रूर देखिए की आवाज़ लगाता था... सनीमा क्या था... पूरा जुगाड़ था... पटलों पर बैठकर वीसीआर पर फिल्म देखते थे... सनीमा से फ्री होने के बाद देर रात में एक और शो चलता था... नाम था डांस पार्टी... पता नहीं कहां से उसमें लड़कियां डांस करने आती थीं.. लेकिन उसमें मजमा बहुत जुटता था... देर रात तक डांस पार्टी चलती थी... और बिगड़ैल शहज़ादे उसमें पैसे लुटाकर देर रात घर लौटते थे...
सनीमा और सर्कस से निपट गये हों, तो चलिए आपको लेकर चलते हैं अजब अनूठे करतब में... जहां एक आदमी ऐलान करता है, कि वो बारह दिन तक साईकिल पर ही सवार रहेगा और बारहवें दिन समाधि ले लेगा... अजीबो-गरीब तमाशा होता था वो... आदमी बारह दिन तक साईकिल चलाता रहता था... उसी पर बैठकर खाता था... उसी पर नहाता था... गरज ये कि बारह दिन तक सारे काम साईकिल पर ही बैठकर करता था, फिर बारहवें दिन एक बड़ा सा गड्डा खोदा जाता था, जिसमें वो साईकिल समेत चला जाता था... फिर उसकी कब्र बनाई जाती थी, मतलब ये कि ज़िंदा आदमी कब्र में दफ्न.. फिर उसे दो दिन बाद कब्र से निकाला जाता था... और वो उसमें से जिंदा निकलता था... लेकिन इतना सब करने के बाद भी उसे मामूली से पैसे मिलते थे... लेकिन पेट भरने के लिए शायद उतना ही काफी होता था... हां इतना ज़रूर होता था, कि उस वक्त तमाशे और मेलों में भीड़ बहुत जुटती थी.. शायद उस वक्त लोगों को फुर्सत बहुत रही होगी... अब न वो मेले हैं और न फुरसत के वो चार दिन... जाने कहां गये वो मेले...
मेरे कस्बे में भी साल में कई मर्तबा मेला लगता था... लेकिन सबसे मशहूर मेला मुहर्रम का था.. दूर-दूर से दुकाने आती थीं, जिसमें बच्चों के लिए तमाम तरह के खिलौनों की दुकाने होती थीं, तो कहीं औरतों के लिए बिसातखाने की दुकाने... कहीं-कहीं हर माल वालों की दुकान भी होती थी, जहां पांच रुपये में सुई से लेकर मानों तो हवाई जहाज तक मिल जाता था... तो कहीं हल्वे-पराठे और जलेबियों की दुकाने भी लगती थी... गर्मागर्म जलेबी खाने के बाद अगर आपकी जीभ को कुछ चटपटा खाने की मंशा हो, तो समोसों से लेकर आलू टिक्की और गोल गप्पे तक हाज़िर होते थे... गोल गप्पे भी दिल्ली की तरह नहीं.. पांच रुपये में तीन... वहां तो भरपेट खाओ.. जितना मन करे, कचौड़ियों से लेकर पकौड़ियों तक.. लेकिन दाम बस एक से दो रुपये तक...
मेले में खिलौनो और खील-बताशों के बीच ही सबीलें भी लगाई जाती थीं, जहां लोगों को शर्बत पिलाया जाता था....अगर अब आप खाने-पीने और दुकानदारी से निपट गये हों, तो चले आईए मेले के दूसरे छोर पर... अहा.. क्या-क्या नज़ारे होते थे... बड़े-बड़े झूले...जिसमें बैठने के बाद रोंगटे खड़े हो जाएं... और कोई पहली बार बैठ गया, तो समझो उसको तो चक्कर आ जाए... झूले में बैठने के बाद लगता था, कि बस सबसे ऊपर तो अब हम ही हैं... मेले में फोटोग्राफर की दुकान पर सबसे ज्यादा मजमा जुटता था...नौजवान लड़के-लड़कियां बड़ी अदा के साथ उसकी दुकान पर फोटो खिंचवाते थे... कोई हाथ में टेलीफोन लेकर फोटो खिंचवाता था, तो कोई मोटरसाईकिल पर सवार होकर अपनी तस्वीर बनवाता था.. चश्मा लगाकर और बन-ठनकर फोटो खिंचवाने वालों की तो पूछिए मत...
दूसरी तरफ़ तमाशे वाले.. एक से एक तमाशे... कहीं मदारी बंदर का नाच दिखा रहा है, तो कहीं जादूगर बच्चे का सिर धड़ से काट देता था, और तमाशा देखने वाले दूसरे बच्चों का तो खून सूख जाता था... फिर जादूगर सबको धमकाकर कहता था, कि जो आदमी यहां से बिना पैसे दिये जाएगा.. वो घर तक सही सलामत नहीं पहुंच पाएगा... उसको जादू के करतब से मैं बीमार कर दूंगा... और मासूम बच्चे डर के मारे घर से जो पैसे लेकर आते थे, वो सब उसी को देकर चले जाते थे... इसके बाद बारी आती थी सर्कस की... अजब-गजब करतब करती लड़कियों को देखने के लिए पूरा का पूरा कस्बा जुट जाता था... सर्कस के बाहर शेर का बड़ा सा बोर्ड भी लगा होता था, लेकिन शेर कभी नज़र नहीं आया...
वहीं पास में ही एक छोटा सा सनीमा वाला रोज़ाना तीन शो... शोले..शोले..शोले... सुपर डुपर हिट फिल्म... ज़रुर देखिए.. ज़रूर देखिए की आवाज़ लगाता था... सनीमा क्या था... पूरा जुगाड़ था... पटलों पर बैठकर वीसीआर पर फिल्म देखते थे... सनीमा से फ्री होने के बाद देर रात में एक और शो चलता था... नाम था डांस पार्टी... पता नहीं कहां से उसमें लड़कियां डांस करने आती थीं.. लेकिन उसमें मजमा बहुत जुटता था... देर रात तक डांस पार्टी चलती थी... और बिगड़ैल शहज़ादे उसमें पैसे लुटाकर देर रात घर लौटते थे...
सनीमा और सर्कस से निपट गये हों, तो चलिए आपको लेकर चलते हैं अजब अनूठे करतब में... जहां एक आदमी ऐलान करता है, कि वो बारह दिन तक साईकिल पर ही सवार रहेगा और बारहवें दिन समाधि ले लेगा... अजीबो-गरीब तमाशा होता था वो... आदमी बारह दिन तक साईकिल चलाता रहता था... उसी पर बैठकर खाता था... उसी पर नहाता था... गरज ये कि बारह दिन तक सारे काम साईकिल पर ही बैठकर करता था, फिर बारहवें दिन एक बड़ा सा गड्डा खोदा जाता था, जिसमें वो साईकिल समेत चला जाता था... फिर उसकी कब्र बनाई जाती थी, मतलब ये कि ज़िंदा आदमी कब्र में दफ्न.. फिर उसे दो दिन बाद कब्र से निकाला जाता था... और वो उसमें से जिंदा निकलता था... लेकिन इतना सब करने के बाद भी उसे मामूली से पैसे मिलते थे... लेकिन पेट भरने के लिए शायद उतना ही काफी होता था... हां इतना ज़रूर होता था, कि उस वक्त तमाशे और मेलों में भीड़ बहुत जुटती थी.. शायद उस वक्त लोगों को फुर्सत बहुत रही होगी... अब न वो मेले हैं और न फुरसत के वो चार दिन... जाने कहां गये वो मेले...
" janab , aapne to hamare purane din yaad dila diye ..sach hai humne mele ki mouz ko kho diya hai ...bahut hi sunder post ..her alfaz me purani yaadain bhar di hai aapne ."
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा. और यह पोस्ट तो बस बचपन की याद दिला गयी. चलिये...इस बहाने हम कुछ अनुभव तो बाँट ही लेते हैं. गाँव-कस्बों के वो रूमानियत भरे दिन बहुत याद आते हैं.
बहुत खुबसूरत रचना अपने बचपनकी यादों को ताज़ा कर दिया |
बहुत बहुत आभार
अच्छी याद दिलाई आपने मेलों की । मेंलो बहुददेश्यीय हुआ करते थे । मिलन स्थल । बच्चों के लिए तो मौज मस्ती और कौतूहल के साधन ।
अब भी मेले लगते हैं , लेकिन अब उतना उत्साह नहीं है ।
उस खूबसूरत पर गुमशुदा दुनिया की सैर एक बार फिर कराने का शुक्रिया.
बहुत खूब. हमने तो खूब मेले किये हैं. पता नहीं कितनी-कितनी चीज़ें खरीदीं हैं. हमारे यहां के मेले में तो आगरे से आने वाली खाजे की दुकान सबसे ज़ोरदार होती थी. बढिया संस्मरण.