तारीख पहली जुलाई, सुबह छह बजे अख़बार वाले की आहट से आंख खुली, उनींदी आंखों से दरवाज़ा खोला, तो चौखट पर हिंदुस्तान अख़बार पड़ा था। ख़बर के चस्के में अख़बार उठाया, तो उसके मास्ट हेड पर बड़ा सा लिखा था आज पहली तारीख है। साथ में कैडबरी चॉकलेट का एड भी था। बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था ''खुश है ज़माना आज पहली तारीख है''। मतलब अगर पहली तारीख आती है, तो तनख्वाह मिलती है और आप चॉकलेट की पार्टी देते हैं। लेकिन अख़बार के इस एड को देखकर मेरा मन ख़राब हो गया। आखिर मेरी ज़िदगी में पहली तारीख़ कब आयेगी। तीन महीने हो गये पहली तारीख़ का इंतज़ार करते हुए। लेकिन ये पहली तारीख आना ही नहीं चाहती।
एक-एक दिन का इंतज़ार पहाड़ जैसा हो गया था। अख़बार और टीवी चैनल पर कैडबरी का एड मुंह चिढ़ा रहा था। नाच-गाकर पहली तारीख का जश्न मनाया जा रहा था, लेकिन अपने सीने पर तो सांप लौट रहा था। पहली तारीख तो अपने कैलेंडर में भी आई, लेकिन मोबाइल में मैसेज ही नहीं आया। कई बार उलट-पलट कर देखा शायद अब घंटी बजे, लेकिन किस्मत की घंटी बजना शायद अपने नसीब में था ही नहीं। उल्टे कर्ज़दारों ने घर की कॉलबेल बजाना ज़रुर शुरु कर दिया। मकान मालिक का दो महीने का किराया चढ़ चुका था, तो क्रेडिट कार्ड, मोबाइल, इंटरनेट, राशन और दूधवाले तक का बिल बकाया था। लेकिन पहली तारीख का सपना टूट ही नहीं रहा था।
सैलरी को लेकर कोई सीधा जवाब नहीं मिल रहा था, तो कभी तीन महीने की सैलरी मिलने के सब्ज़बाग दिखाए जा रहे थे। लेकिन मुझे खुद से ज्यादा इंडियन एयरलाइंस और सत्यम के लोगों की चिंता हो रही थी। उन लोगों को सैलरी मिलना तो दूर, नौकरियां जाने की भी नौबत आ चुकी थी। पत्रकार हैं, इसलिए उनका दर्द समझ में आता है, लेकिन अपना दर्द पूछने वाला शायद कोई नहीं है। सरकारें भी शायद कान बंद किये बैठी थीं। कंपनियां झूठी तसल्ली दे रही थीं, और बेबस कर्मचारी मन मसोस कर पहली तारीख का इंतज़ार कर रहे थे। दफ्तर में अजीब तरह का माहौल था। काम में किसी का मन नहीं लग रहा था। लेकिन काम तो करना ही था। तो घर पर बच्चे पापा की सैलरी का इंतज़ार कर रहे थे।
जुलाई का महीना शुरु हो चुका था, लुकाछिपी के बाद मानसून भी दस्तक दे चुका था। लेकिन पैसों की बरसात होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। जब दुनियाभर के मां-बाप अपने बच्चों को गर्मियां की छुट्टियों में तफ़रीह करा रहे थे, तो हमारे दफ्तर में लोग घर चलाने के लिए कर्ज़ का जुगाड़ करने में लगे थे। मां-बाप बच्चों को झूठी तसल्ली दे रहे थे, उनको अगली छुट्टियों में घुमाने के वादे किये जा रहे थे। लेकिन स्कूल खुलते ही बच्चों की फीस और एडमिशन का खर्च मुंह बाएं खड़ा था। तो मकान से लेकर गाड़ी तक की किस्त दिमाग की घंटी बजा रही थी। घरवालों की फ़रमाइशें पूरी करना तो दूर, दफ्तर तक आने के लिए किराए के भी लाले पड़ने लगे। कुछ लोग तो मजबूरन ऑफिस से छुट्टियां लेने को मजबूर हो गये।
हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। लेकिन किसी को भी हमारी फिक्र नहीं। ऊपर से सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ाकर एक और झटका दे दिया। अब पैदल चलने के सिवा कोई चारा नहीं था। लोग पहली तारीख को सैलरी मिलने पर भले ही जश्न मनाते हों, लेकिन यहां तो जश्न के बारे में सोचने की हिम्मत भी नहीं होती। कभी किसी से पांच रुपये उधार मांगने की नौबत नहीं आई, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ, जब दोस्तों के सामने उधारी के लिए हाथ फैलाना पड़ा हो। मजबूर ये हालात इधर भी थे और उधर भी। मंदी ने ऐसा मारा कि कमर कमान हो चुकी थी। दोस्त भी मंदी के मारे थे। पहली तारीख के सपने सब हवा हो चुके थे। पार्टियों में जाने के बजाए अब उनसे बचने की तरकीबें सोची जा रही थीं, इसी इंतज़ार में कि जल्द ही आयेगी पहली तारीख, लेकिन कब आयेगी ये किसी को पता नहीं है।
एक-एक दिन का इंतज़ार पहाड़ जैसा हो गया था। अख़बार और टीवी चैनल पर कैडबरी का एड मुंह चिढ़ा रहा था। नाच-गाकर पहली तारीख का जश्न मनाया जा रहा था, लेकिन अपने सीने पर तो सांप लौट रहा था। पहली तारीख तो अपने कैलेंडर में भी आई, लेकिन मोबाइल में मैसेज ही नहीं आया। कई बार उलट-पलट कर देखा शायद अब घंटी बजे, लेकिन किस्मत की घंटी बजना शायद अपने नसीब में था ही नहीं। उल्टे कर्ज़दारों ने घर की कॉलबेल बजाना ज़रुर शुरु कर दिया। मकान मालिक का दो महीने का किराया चढ़ चुका था, तो क्रेडिट कार्ड, मोबाइल, इंटरनेट, राशन और दूधवाले तक का बिल बकाया था। लेकिन पहली तारीख का सपना टूट ही नहीं रहा था।
सैलरी को लेकर कोई सीधा जवाब नहीं मिल रहा था, तो कभी तीन महीने की सैलरी मिलने के सब्ज़बाग दिखाए जा रहे थे। लेकिन मुझे खुद से ज्यादा इंडियन एयरलाइंस और सत्यम के लोगों की चिंता हो रही थी। उन लोगों को सैलरी मिलना तो दूर, नौकरियां जाने की भी नौबत आ चुकी थी। पत्रकार हैं, इसलिए उनका दर्द समझ में आता है, लेकिन अपना दर्द पूछने वाला शायद कोई नहीं है। सरकारें भी शायद कान बंद किये बैठी थीं। कंपनियां झूठी तसल्ली दे रही थीं, और बेबस कर्मचारी मन मसोस कर पहली तारीख का इंतज़ार कर रहे थे। दफ्तर में अजीब तरह का माहौल था। काम में किसी का मन नहीं लग रहा था। लेकिन काम तो करना ही था। तो घर पर बच्चे पापा की सैलरी का इंतज़ार कर रहे थे।
जुलाई का महीना शुरु हो चुका था, लुकाछिपी के बाद मानसून भी दस्तक दे चुका था। लेकिन पैसों की बरसात होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। जब दुनियाभर के मां-बाप अपने बच्चों को गर्मियां की छुट्टियों में तफ़रीह करा रहे थे, तो हमारे दफ्तर में लोग घर चलाने के लिए कर्ज़ का जुगाड़ करने में लगे थे। मां-बाप बच्चों को झूठी तसल्ली दे रहे थे, उनको अगली छुट्टियों में घुमाने के वादे किये जा रहे थे। लेकिन स्कूल खुलते ही बच्चों की फीस और एडमिशन का खर्च मुंह बाएं खड़ा था। तो मकान से लेकर गाड़ी तक की किस्त दिमाग की घंटी बजा रही थी। घरवालों की फ़रमाइशें पूरी करना तो दूर, दफ्तर तक आने के लिए किराए के भी लाले पड़ने लगे। कुछ लोग तो मजबूरन ऑफिस से छुट्टियां लेने को मजबूर हो गये।
हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। लेकिन किसी को भी हमारी फिक्र नहीं। ऊपर से सरकार ने पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ाकर एक और झटका दे दिया। अब पैदल चलने के सिवा कोई चारा नहीं था। लोग पहली तारीख को सैलरी मिलने पर भले ही जश्न मनाते हों, लेकिन यहां तो जश्न के बारे में सोचने की हिम्मत भी नहीं होती। कभी किसी से पांच रुपये उधार मांगने की नौबत नहीं आई, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ, जब दोस्तों के सामने उधारी के लिए हाथ फैलाना पड़ा हो। मजबूर ये हालात इधर भी थे और उधर भी। मंदी ने ऐसा मारा कि कमर कमान हो चुकी थी। दोस्त भी मंदी के मारे थे। पहली तारीख के सपने सब हवा हो चुके थे। पार्टियों में जाने के बजाए अब उनसे बचने की तरकीबें सोची जा रही थीं, इसी इंतज़ार में कि जल्द ही आयेगी पहली तारीख, लेकिन कब आयेगी ये किसी को पता नहीं है।
हम सबकी कहानी...
चिंता जनक हालात।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आज चाहे पहली हो या दूसरी या हो तीसरी...अपन के लिए तो जब मैसेज हो तभी पहली तारीख है और चाकलेट खाने का दिन हो
बीती रात चॉकलेट वाली कंपनी से मैसेज आया तो दिमाग खराब हो गया।
खैर अब किया क्या जा सकता है।
ईश्वर उन्हें सद्बबुद्धि दे जो समझ नहीं पा रहे
वैष्णव जन तो तेणे रे कहिए....जो पीर पराई जाने रे.......