परदेस में रहके न अपने देश को भूलो तुम.
दूरियां बेशक रहें, पर दिल के तारों को जोड़ो तुम..
एक चिट्ठी तो कम से कम अपनी हम को लिख दो तुम
घर की मिट्टी बुला रही है, अब तो वापस आ जाओ
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तुम्हारा मनपसंद खाना, खलिहानों में गाना, गाना.
मुनिया के संग शरारत, फिर उसको बहलाना..
सूना-सूना है सारा आंगन, टूटा सबका मन.
रो-रो के कटती हैं रातें, रो-रोके कटते हैं दिन,
गांव के बच्चे बुला रहे हैं, अब तो वापस आ जाओ
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दादी की शकरकंद की खीर, दादा की आंखों में नीर.
पापा की थकी-थकी सी चाल, मम्मी की आंखों में आंसू
आमों का मौसम हो, या गन्ने के रस की मिठास.
सबकुछ फीका-फीका है, कोयल भी है अबकी उदास,
आम की बगिया बुला रही है, अब तो वापस आ जाओ..
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क्या शहर में तुमको याद नहीं आता गांव.
खेतों की पगडंडियां और मौहल्ले की सब लड़कियां..
छत की कच्ची मुंढेरों पर कबूतर उड़ाना
कंचों में बेमानी, लूडो में शैतानी
गणित में सिफ़र और स्कूल का डर
गांव के पोखर में डुबकियां लगाना
सब तुमको बुला रहे हैं अब तो वापस आ जाओ..
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क्यों भूल गये तुम इतनी जल्दी सब कुछ
गांव की टोली संग होली, ईद की सिंवइयां..
दीवाली के पटाखे और रंगोली..
रेशम की डोरी में लिपटा छोटी का प्यार
अपने बुला रहे हैं तुमको, अब तो वापस आ जाओ....
बहुत मार्मिक रचना...दिल को छू गयी...वाह....
नीरज
अबयज जी आपने ये कविता उस वक्त लिखी है जब घर की याद चरम पर है...
सच कह रहा हूं, कविता पढ़ते वक्त आंखों से आंसू बह रहे हैं...
घर की याद दिला दी आपने ,,,, बहुत सुन्दर
बहुत मार्मिक...बहुत अच्छा लिखा है आपने
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
क्या लिखूं वो कहते है न कुछ बातें शब्दों में नहीं कही जा सकती....