Apr
30
चुनावी महाभारत अपने आखिरी पड़ाव में है, लेकिन इस बार जिस चीज़ की कमी सबसे ज्यादा महसूस की गई, वो था चुनाव प्रचार का ज़ोर-शोर। लोकसभा के लिए महासंग्राम का बिगुल तो बजा, लेकिन न तो बिगुल दिखा, न शोरशराबा करते चुनाव प्रचारक। आम-आदमी का चुनाव आम आदमी से कोसों दूर रहा। एक तरफ़ एक्ज़िट पोल गायब था, तो दूसरी तरफ़ चुनाव प्राचर के पुराने तरीके कहीं भी नज़र नहीं आये। बचपन में जब चुनाव की रणभेरी बजती थी, माहौल में एक अलग तरह का ही जोश होता था। काफ़ी पहले से चुनाव की तैयारियां शुरु हो जाती थीं। घर-घर में चुनाव के लिए पर्चियां बनाने का काम काफ़ी पहले ही शुरु हो जाता था। किस के घर में कितने वोट हैं, ये कार्यकर्ताओं को उंगलियों पर ही याद होता था। सुबह प्रचार का जो सिलसिला शुरु होता था, वो देर रात तक चलता था।
रिक्शेवाले लाऊडस्पीकर पर अपने खास उम्मीदवार का प्रचार करते थे, और जैसे ही रिक्शा गली के नुक्कड़ से गुज़रता, उसके पीछे बच्चों की भीड़ लग जाती थी। बिल्ले लेने के लिए बच्चों में होड़ मच जाती थी, रिक्शे वाला भी बच्चों को बिल्ले और झंडे बांटकर बदले में उनसे नारे लगवाता था। तो बच्चे भी कम नहीं थे, जिस नेता का रिक्शा देखा उसी की ज़िंदाबाद शुरु कर दी।

और तो और बच्चों का समूह हर नेता के दफ्तर पर जाता वहां नारे लगाता और खूब सारे बिल्ले और झंडे बटोरकर अगले नेता के घर रवाना हो जाता। बच्चे बी इतने समझदार थे कि जिस नेता के घर जाते थे उसी की जय-जयकार करते थे। पहले न तो इतनी गाड़ियां थीं, न नेता ही गाड़ियों पर प्रचार करने में दिलचस्पी दिखाते थे। नेताजी जब अपने लाव-लश्कर के साथ गुज़रते थे, तो उनके पीछे पैदल ही लंबा काफिला होता और गली-मुहल्ले के विकास के नाम पर वोट मांगे जाते थे।
इसके अलावा पेन्टर भी दिल लगाकर दीवारों को पैंट करते थे, उन पर खूबसूरत कलाकारी कर अपना हुनर दिखाते थे। नेताजी के साथ में उनकी पार्टी का चुनाव निशान होता, तो साथ में उनकी पार्टी के बड़े नेता जी का फोटो भी दीवार की शोभा बढ़ाता था। गली-मुहल्ले में नुक्कड़ सभाएं कर नेता वोट मांगते थे। इस दौरान न तो कोई गिला-शिकवा होता था न किसी की किसी से अदावत होती थी। दिनभर वोट और प्रचार के झंझट से निपटकर कार्यकर्ता जुट जाते थे अपने नेता जी के घर और फिर लगती थी खाने की पंगत।

देर रात तक चाय का सिलसिला तो आम बात होती थी। लोग भी चुनाव में खूब दिलचस्पी दिखाते थे। चाय की दुकान तो समझो सियासत का अड्डा बन जाती थी, वहां लंबी-चौड़ी बहसों में तय हो जाता था कि फलां सीट पर कौन जीत रहा है, और देश में किसकी सरकार बन रही है। या फलां नेता ने कौन सा बयान दिया है, या उसमें ऐसी कौन सी कमियां हैं, जिसकी वजह से इस बार उसकी हार तय है। एक से डेढ़ रूपये की चाय में हिंदुस्तान की तस्वीर तय हो जाती थी। पहले के लोग पप्पू भी नहीं होते थे, वोट डालने के दिन सुबह से ही घर में किसी मेले जैसा आलम होता था। सज-धजकर सुबह से लोग वोट डालने की तैयारियों में जुट जाते थे। लेकिन अब ये सब चीजें कहीं नदारद सी हो गईं है। शायद लोगों की दिलचस्पी भी कुछ कम हो गई है। खाना-पीना और मौज-मस्ती तो अभी भी बाकी है, लेकिन पहले वाली रौनक कहीं गायब सी हो गई हैं। रही-सही कसर चुनाव आयोग की पाबंदियों ने पूरी कर दी है। शायद ये ज़रूरी भी था, क्योकिं नेता भी खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ाने में अपनी शान समझते थे। लेकिन कुछ भी हो, पुराने चुनावों का अपना एक मज़ा था, जो कहीं खो सा गया है।
रिक्शेवाले लाऊडस्पीकर पर अपने खास उम्मीदवार का प्रचार करते थे, और जैसे ही रिक्शा गली के नुक्कड़ से गुज़रता, उसके पीछे बच्चों की भीड़ लग जाती थी। बिल्ले लेने के लिए बच्चों में होड़ मच जाती थी, रिक्शे वाला भी बच्चों को बिल्ले और झंडे बांटकर बदले में उनसे नारे लगवाता था। तो बच्चे भी कम नहीं थे, जिस नेता का रिक्शा देखा उसी की ज़िंदाबाद शुरु कर दी।

और तो और बच्चों का समूह हर नेता के दफ्तर पर जाता वहां नारे लगाता और खूब सारे बिल्ले और झंडे बटोरकर अगले नेता के घर रवाना हो जाता। बच्चे बी इतने समझदार थे कि जिस नेता के घर जाते थे उसी की जय-जयकार करते थे। पहले न तो इतनी गाड़ियां थीं, न नेता ही गाड़ियों पर प्रचार करने में दिलचस्पी दिखाते थे। नेताजी जब अपने लाव-लश्कर के साथ गुज़रते थे, तो उनके पीछे पैदल ही लंबा काफिला होता और गली-मुहल्ले के विकास के नाम पर वोट मांगे जाते थे।
इसके अलावा पेन्टर भी दिल लगाकर दीवारों को पैंट करते थे, उन पर खूबसूरत कलाकारी कर अपना हुनर दिखाते थे। नेताजी के साथ में उनकी पार्टी का चुनाव निशान होता, तो साथ में उनकी पार्टी के बड़े नेता जी का फोटो भी दीवार की शोभा बढ़ाता था। गली-मुहल्ले में नुक्कड़ सभाएं कर नेता वोट मांगते थे। इस दौरान न तो कोई गिला-शिकवा होता था न किसी की किसी से अदावत होती थी। दिनभर वोट और प्रचार के झंझट से निपटकर कार्यकर्ता जुट जाते थे अपने नेता जी के घर और फिर लगती थी खाने की पंगत।

देर रात तक चाय का सिलसिला तो आम बात होती थी। लोग भी चुनाव में खूब दिलचस्पी दिखाते थे। चाय की दुकान तो समझो सियासत का अड्डा बन जाती थी, वहां लंबी-चौड़ी बहसों में तय हो जाता था कि फलां सीट पर कौन जीत रहा है, और देश में किसकी सरकार बन रही है। या फलां नेता ने कौन सा बयान दिया है, या उसमें ऐसी कौन सी कमियां हैं, जिसकी वजह से इस बार उसकी हार तय है। एक से डेढ़ रूपये की चाय में हिंदुस्तान की तस्वीर तय हो जाती थी। पहले के लोग पप्पू भी नहीं होते थे, वोट डालने के दिन सुबह से ही घर में किसी मेले जैसा आलम होता था। सज-धजकर सुबह से लोग वोट डालने की तैयारियों में जुट जाते थे। लेकिन अब ये सब चीजें कहीं नदारद सी हो गईं है। शायद लोगों की दिलचस्पी भी कुछ कम हो गई है। खाना-पीना और मौज-मस्ती तो अभी भी बाकी है, लेकिन पहले वाली रौनक कहीं गायब सी हो गई हैं। रही-सही कसर चुनाव आयोग की पाबंदियों ने पूरी कर दी है। शायद ये ज़रूरी भी था, क्योकिं नेता भी खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ाने में अपनी शान समझते थे। लेकिन कुछ भी हो, पुराने चुनावों का अपना एक मज़ा था, जो कहीं खो सा गया है।