दिल्ली के एक स्कूल में एक लड़की की इसलिए मौत हो गई कि क्योंकि टीचर ने उसे मुर्गा बना दिया था.. बच्ची के घरवालों का आरोप है कि टीचर ने बेरहमी से उसकी पिटाई भी की थी। ये थी एक छोटे से सरकारी स्कूल की कहानी। जहां मामूली सी फीस पर बच्चों का भविष्य बनाया जाता है। महज़ पचास रुपये की फीस देकर शन्नो के घरवाले अपनी बेटी के लिए सपने बुन रहे थे। अब चलते हैं राजधानी के एक हाईप्रोफ़ाइल स्कूल.. यहां भी एक लड़की की मौत हो जाती है, 12 वीं क्लास की इस लड़की के घरवालों का इल्ज़ाम है कि उनकी बच्ची स्कूल में बीमार हुई तो स्कूल वालों ने उसे वक्त पर इलाज मुहैया नहीं करवाया। जिस वजह से उनकी बच्ची को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। ये है एक बड़े स्कूल की कहानी। जहां पढ़ने वाली आकृति दस हज़ार रुपये से ज्यादा महीने की फीस अदा करती थी। दोनों ही स्कूलों में इल्ज़ाम के घेरे में आये स्कूल और टीचर।
सवाल ये है कि टीचर बेरहम हो गये हैं, या स्कूल लापरवाही की हद पर उतर आये हैं। आखिर क्या फर्क बचा एक सरकारी स्कूल और हाई प्रोफाइल स्कूल में। सरकारी स्कूल में शन्नो को वक्त पर इलाज नहीं मिला, तो पब्लिक स्कूल में आकृति को भी वक्त पर इलाज नहीं मिला। हालत दोनों स्कूलों की एक जैसी है। दोनों ही स्कूलों का कहना है कि इलाज वक्त पर मिला है, दोनों ही स्कूलों का कहना है कि लड़कियां बीमार थीं। फर्क सिर्फ़ इतना ही कि शन्नो की टीचर पर उसकी पिटाई करने का इल्ज़ाम है और आकृति के स्कूल पर उसको वक्त पर इलाज न देने का इल्ज़ाम है। दोनों ही मामले बहुत गंभीर हैं। सवाल ये है कि क्या बच्चों की कीमत कम हो गई है, या भारी दबाव में स्कूल टीचर उन पर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। हालांकि इसके लिए मीडिया का शुक्रगुज़ार होना पड़ेगा, जो अब क्लासरूम में भी पहुंच गया है। मेरे स्कूल में एक टीचर थे, नाम लिखना शायद ठीक नहीं होगा, लेकिन उनकी मार बहुत मशहूर थी, हर कोई उनकी पिटाई से थर्राता था। स्कूल में पिटाई का उनका अंदाज़ ही अलग था, अगर उनके सब्जेक्ट गणित में कोई गलती हो गई, तो समझिये उस लड़के की कयामत आ गई। बच्चों को सज़ा देने के लिए वो एक के पीछे एक चार पांच लड़कों को एक साथ मुर्गा बनाते थे, उसके बाद सबसे पीछे वाले लड़के के अपना घुटना मारते थे, जिसकी वजह से एक के पीछे एक बच्चों के सिर दीवार में लगते थे। और वो अपनी इस सज़ा पर बड़ा फक्र महसूस करते थे। लेकिन एक बार जब वो अपने घर में स्टूल पर चढ़कर पंखा लगा रहे थे, तभी अचानक स्टूल लुढ़क गया और मास्टर साहब ज़मीन पर गिर गये, जिससे उनका एक हाथ टूट गया। उस दिन के बाद से मास्टर जी ने बच्चों को सज़ा देने से तौबा कर ली। ये तो क्रूर सज़ा का एक नमूना भर है।
दिल्ली में स्कूली लड़कियों की मौत तो मीडिया की बदौलत सबके सामने है, लेकिन देशभर में ऐसे कितने ही स्कूल हैं, जहां बेरहम टीचर अपनी गुरुगर्दी साबित करने के लिए बच्चों को सज़ा देते हैं। लेकिन वो ख़बरें मीडिया के कैमरों से कोसो दूर रहती हैं, लिहाज़ा किसी की नज़र में नहीं आतीं। ये बच्चों को सज़ा देने का आज का मामला है, लेकिन पक्षपात करने का गुरुओं का इतिहास तो पुराना रहा है। गुरु द्रोण ने दक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा सिर्फ इसीलिए मांग लिया ताकि वो उनके प्यारे शिष्य अर्जुन की बराबरी न कर सके। इसे अजीब इत्तफ़ाक ही कहा जा सकता है कि जो बच्चे घर के बाद अपने लिए स्कूल को सबसे ज्यादा महफ़ूज़ समझते थे, आज स्कूलों से ही उन्हें मौत मिल रही है। गुरु जल्लाद बन गये हैं और स्कूल नरक में तब्दील होते जा रहे हैं। आखिर कब ख़त्म होगा स्कूलों का डर?
सवाल ये है कि टीचर बेरहम हो गये हैं, या स्कूल लापरवाही की हद पर उतर आये हैं। आखिर क्या फर्क बचा एक सरकारी स्कूल और हाई प्रोफाइल स्कूल में। सरकारी स्कूल में शन्नो को वक्त पर इलाज नहीं मिला, तो पब्लिक स्कूल में आकृति को भी वक्त पर इलाज नहीं मिला। हालत दोनों स्कूलों की एक जैसी है। दोनों ही स्कूलों का कहना है कि इलाज वक्त पर मिला है, दोनों ही स्कूलों का कहना है कि लड़कियां बीमार थीं। फर्क सिर्फ़ इतना ही कि शन्नो की टीचर पर उसकी पिटाई करने का इल्ज़ाम है और आकृति के स्कूल पर उसको वक्त पर इलाज न देने का इल्ज़ाम है। दोनों ही मामले बहुत गंभीर हैं। सवाल ये है कि क्या बच्चों की कीमत कम हो गई है, या भारी दबाव में स्कूल टीचर उन पर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। हालांकि इसके लिए मीडिया का शुक्रगुज़ार होना पड़ेगा, जो अब क्लासरूम में भी पहुंच गया है। मेरे स्कूल में एक टीचर थे, नाम लिखना शायद ठीक नहीं होगा, लेकिन उनकी मार बहुत मशहूर थी, हर कोई उनकी पिटाई से थर्राता था। स्कूल में पिटाई का उनका अंदाज़ ही अलग था, अगर उनके सब्जेक्ट गणित में कोई गलती हो गई, तो समझिये उस लड़के की कयामत आ गई। बच्चों को सज़ा देने के लिए वो एक के पीछे एक चार पांच लड़कों को एक साथ मुर्गा बनाते थे, उसके बाद सबसे पीछे वाले लड़के के अपना घुटना मारते थे, जिसकी वजह से एक के पीछे एक बच्चों के सिर दीवार में लगते थे। और वो अपनी इस सज़ा पर बड़ा फक्र महसूस करते थे। लेकिन एक बार जब वो अपने घर में स्टूल पर चढ़कर पंखा लगा रहे थे, तभी अचानक स्टूल लुढ़क गया और मास्टर साहब ज़मीन पर गिर गये, जिससे उनका एक हाथ टूट गया। उस दिन के बाद से मास्टर जी ने बच्चों को सज़ा देने से तौबा कर ली। ये तो क्रूर सज़ा का एक नमूना भर है।
दिल्ली में स्कूली लड़कियों की मौत तो मीडिया की बदौलत सबके सामने है, लेकिन देशभर में ऐसे कितने ही स्कूल हैं, जहां बेरहम टीचर अपनी गुरुगर्दी साबित करने के लिए बच्चों को सज़ा देते हैं। लेकिन वो ख़बरें मीडिया के कैमरों से कोसो दूर रहती हैं, लिहाज़ा किसी की नज़र में नहीं आतीं। ये बच्चों को सज़ा देने का आज का मामला है, लेकिन पक्षपात करने का गुरुओं का इतिहास तो पुराना रहा है। गुरु द्रोण ने दक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा सिर्फ इसीलिए मांग लिया ताकि वो उनके प्यारे शिष्य अर्जुन की बराबरी न कर सके। इसे अजीब इत्तफ़ाक ही कहा जा सकता है कि जो बच्चे घर के बाद अपने लिए स्कूल को सबसे ज्यादा महफ़ूज़ समझते थे, आज स्कूलों से ही उन्हें मौत मिल रही है। गुरु जल्लाद बन गये हैं और स्कूल नरक में तब्दील होते जा रहे हैं। आखिर कब ख़त्म होगा स्कूलों का डर?
स्कूल नरक, शिक्षक यमदूत और प्रबन्धक यमराज... ना-ना ऐसा मत कहिए. यमराज पैसे के लिए किसी को सज़ा नहीं देते. स्कूल वाले देते हैं.
ये सवाल अगर देश के नीति निर्धारकों से पूछा जाए तो उचित रहेगा
अक्सर पैरेंट्स भी कहते है कि अगर बच्चे नहीं पढ़े तो उनकी पिटाई करों...दरअसल कमी उस सोच में भी है कि बच्चें पढ़ेंगें नहीं तो ज़िन्दगी बेकार है..हर कोशिश उन्हें जबरन पढ़ाने की होती है...शन्नो को भी इग्लिश नहीं आने की वजह से सज़ा मिली...जिसने उसे मौत के मुंह में ढकेल दिया। स्कूलो का बेरहम रुख़ और शर्मनाक है...
दरअसल कमी उस सोच में भी है कि बच्चें पढ़ेंगें नहीं तो ज़िन्दगी बेकार है.आरती जी,
बाकी तो सही है लेकिन ये कहने का मतलब मुझे समझ नहीं आया। बिना पढ़े जिंदगी बेकार नहीं तो और क्या है????????
पढ़ाई का कोई विकल्प नहीं है ....
absolutely....u hv used d right word...GURUGARDI...teachers hv turned DRACULAS n schools indeed hv become NIGHTMARES!