रामपुरी की धार के आगे वैसे तो अच्छे-अच्छे कांप जाते हैं, लेकिन अब बारी खुद रामपुरी की है। अपने ही शहर में अब रामपुरी चाकू का कोई पुरसा हाल नहीं है। ख्वाजा अहमद उर्फ पच्चा उस्ताद का ये चाकू शायद अपने आखिरी दिन गिन रहा है। रामपुर शहर के बाज़ार नसरुल्ला खां का वो चाकू बाज़ार अब कहीं खो सा गया है। न तो बाज़ार में पहले जैसी रौनक है और न ही बाज़ार में चाकू के कद्रदान। और जो दुकानदार चाकू, छुरियों के बल पर अपनी रोज़ी-रोटी चलाते थे आज उनके बच्चे अपने अब्बा के इस बिजनेस को जी भर कर कोसते हैं।
1908 में पैदा हुए पच्चा उस्ताद के वालिद की रामपुर के पास ही रुद्रपुर में असलहे की दुकान थी। लिहाज़ा उन्होने भी यही काम शुरु कर दिया। पच्चा उस्ताद ने इस काम की शुरुआत घर से ही की। उनका ये चाकू का हुनर नवाब रज़ा अली खां को इतना पसंद आया कि उन्होंने शहर से कुछ दूर पनवड़िया की नुमाइश में पच्चा उस्ताद की कारीगरी से खुश होकर उन्हें 25 रुपये का ईनाम भी दिया। इस चाकू की खास बात ये थी कि इसे खोलने के लिए इसमें खुफिया बटन था, जिसकी वजह से इसे 'ट्रिक नाइफ़' नाम दिया गया। इसके बाद तो जैसे रामपुर शहर में चाकू का कारोबार चल निकला। लेकिन पिछले 48 साल से इस धंधे में लगे कर्नल खुशनूद मियां अब इस धंधे से तौबा करने लगे हैं। आज इस कारोबार की हालत ये है कि कभी 200 दुकानों वाला चाकू बाज़ार चार-पांच फुटपाथों की दुकानों तक सिमटकर रह गया है। कभी पांच हज़ार से ज्यादा लोगों का ये कारोबार अब तीन-चार सौ लोगों तक ही सिमट कर रह गया है। लेकिन चाकू की धार कुंद पड़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह है 1980 का मुरादाबाद दंगा। जिसकी वजह से प्रशासन ने इसके बेचने और खरीदने पर सख्ती शुरु कर दी। इसके अलावा 1979 में चाकू के बेचने और खरीदने पर लाइसेंस की शुरुआत भी कर दी, जिस वजह से ये कारोबार और भी सिकुड़ने लगा। लेकिन जानकारों की मानें तो इस कारेबार के बर्बाद होने के लिए पुलिस की सख्ती भी ज़िम्मेदार है। दरअसल पहले ये चाकू रामपुर से बाहर अलीगढ़, लखनऊ, मेरठ और मुंबई तक जाते थे, लेकिन लाइसेंस लगने की वजह से चाकू का बाहर जाना बंद हो गया। महाराष्ट्र में पहली बार बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनी तो चाकू पर बैन लग गया। कभी 12 इंच का मशहूर रामपुरी पाबंदिया लगने के बाद घटकर पांच इंच पर ठहर गया। आज हालत ये है कि ये लंबाई घटते-घटते सिर्फ़ 10 सेंमी तक सिमट गई है, वो भी सिर्फ़ रामपुर की हद तक। फ़ाइलें दफ़्तर में धूल खा रही हैं, और कारोबार अपनी आखिरी सांसे गिन रहा है। वैसे आज भी बाज़ार में आपको रामपुरी चाकू 20 रुपये से लेकर डेढ़ सौ रुपये तक में मिल जाएंगे, लेकिन इसके कद्रदान नहीं हैं। अगर आप चाहेंगे तो आज भी आपको रामपुर के खास बटनदार, आवाज़ वाले, कमानीदार, दांते वाले, गुप्ती और तलवारें तक मिल जाएंगीं। लेकिन एक तो ये हर किसी को मिल नहीं सकते, दूसरे इनकी मांग इतनी कम है कि हर वक्त तैयार भी नहीं मिलते। अलबत्ता आपको छोटे चाकू, सरौते या कैंचियां ज़रूर आसानी से मिल जाएंगीं। लेकिन अफ़सोस तो ये है कि कभी अपनी धार से रामपुर को दुनियाभर में शोहरत देने वाला चाकू आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है, और इसके दम पर अपनी शान बघारने वाले रहनुमा ख़ामोश हैं।
1908 में पैदा हुए पच्चा उस्ताद के वालिद की रामपुर के पास ही रुद्रपुर में असलहे की दुकान थी। लिहाज़ा उन्होने भी यही काम शुरु कर दिया। पच्चा उस्ताद ने इस काम की शुरुआत घर से ही की। उनका ये चाकू का हुनर नवाब रज़ा अली खां को इतना पसंद आया कि उन्होंने शहर से कुछ दूर पनवड़िया की नुमाइश में पच्चा उस्ताद की कारीगरी से खुश होकर उन्हें 25 रुपये का ईनाम भी दिया। इस चाकू की खास बात ये थी कि इसे खोलने के लिए इसमें खुफिया बटन था, जिसकी वजह से इसे 'ट्रिक नाइफ़' नाम दिया गया। इसके बाद तो जैसे रामपुर शहर में चाकू का कारोबार चल निकला। लेकिन पिछले 48 साल से इस धंधे में लगे कर्नल खुशनूद मियां अब इस धंधे से तौबा करने लगे हैं। आज इस कारोबार की हालत ये है कि कभी 200 दुकानों वाला चाकू बाज़ार चार-पांच फुटपाथों की दुकानों तक सिमटकर रह गया है। कभी पांच हज़ार से ज्यादा लोगों का ये कारोबार अब तीन-चार सौ लोगों तक ही सिमट कर रह गया है। लेकिन चाकू की धार कुंद पड़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह है 1980 का मुरादाबाद दंगा। जिसकी वजह से प्रशासन ने इसके बेचने और खरीदने पर सख्ती शुरु कर दी। इसके अलावा 1979 में चाकू के बेचने और खरीदने पर लाइसेंस की शुरुआत भी कर दी, जिस वजह से ये कारोबार और भी सिकुड़ने लगा। लेकिन जानकारों की मानें तो इस कारेबार के बर्बाद होने के लिए पुलिस की सख्ती भी ज़िम्मेदार है। दरअसल पहले ये चाकू रामपुर से बाहर अलीगढ़, लखनऊ, मेरठ और मुंबई तक जाते थे, लेकिन लाइसेंस लगने की वजह से चाकू का बाहर जाना बंद हो गया। महाराष्ट्र में पहली बार बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनी तो चाकू पर बैन लग गया। कभी 12 इंच का मशहूर रामपुरी पाबंदिया लगने के बाद घटकर पांच इंच पर ठहर गया। आज हालत ये है कि ये लंबाई घटते-घटते सिर्फ़ 10 सेंमी तक सिमट गई है, वो भी सिर्फ़ रामपुर की हद तक। फ़ाइलें दफ़्तर में धूल खा रही हैं, और कारोबार अपनी आखिरी सांसे गिन रहा है। वैसे आज भी बाज़ार में आपको रामपुरी चाकू 20 रुपये से लेकर डेढ़ सौ रुपये तक में मिल जाएंगे, लेकिन इसके कद्रदान नहीं हैं। अगर आप चाहेंगे तो आज भी आपको रामपुर के खास बटनदार, आवाज़ वाले, कमानीदार, दांते वाले, गुप्ती और तलवारें तक मिल जाएंगीं। लेकिन एक तो ये हर किसी को मिल नहीं सकते, दूसरे इनकी मांग इतनी कम है कि हर वक्त तैयार भी नहीं मिलते। अलबत्ता आपको छोटे चाकू, सरौते या कैंचियां ज़रूर आसानी से मिल जाएंगीं। लेकिन अफ़सोस तो ये है कि कभी अपनी धार से रामपुर को दुनियाभर में शोहरत देने वाला चाकू आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है, और इसके दम पर अपनी शान बघारने वाले रहनुमा ख़ामोश हैं।
दोस्त बहुत अच्छा लिखा है आपने। मज़ा आ गया।
और भी बहुत कुछ लिखिये। क्या आपसे संपर्क हो सकता है। मेरा ईमेल है ravish@ndtv.com
बहुत रोचक आलेख है।बहुत बढिया लिखा है।बधाई स्वीकारें।
aapne sach bataya ki rampuri chaku ka karobar ab khtam ho raha hai .....par kuch bhi kahie aaj bhi bachcha bachcha style se chaku ko rampuri kahta hai,chahe vo chaku kaisa bhi ho.
रामपुरी चाकू हिमाचल प्रदेश के छोटे कस्बों तक प्रसिद्ध है। मेरे दादा जी की बातों में अक्सर इसका ज़िक्र आया करता था लेकिन मैंने आज तक इसे नहीं देखा है।