2009 का आम चुनाव कई मायनों में ख़ास रहेगा। मुद्दों से दूर इस बार का लोकसभा चुनाव बेमतलब की फूहड़ बयानबाज़ी के लिये याद रखा जाएगा। वरुण गांधी के ज़हर बुझे तीरों से शुरु हुआ चुनावी सफ़र अब तक के सबसे घटिया दौर से गुज़र रहा है। जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिए नेता मुद्दों के बजाए एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। वरुण ने हाथ काटने की बात की, तो बिहार में राबड़ी देवी नीतीश कुमार के बारे में ऐसे-ऐसे बोल बोल गईं जो न सिर्फ़ तहज़ीब के खिलाफ़ थे, बल्कि देश की इमेज पर भी बट्टा लगा रहे थे। राबड़ी ने शुरुआत की तो लालू कहां पीछे रहने वाले थे। वरुण ने ज़हर उगला तो लालू वरुण पर रोड-रोलर चलवाने की धमकी दे गये।
मतलब हर नेता तू सेर तो मैं सवा सेर साबित होने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मज़े की बात ये है कि इस बार के चुनाव को नेताओं ने गंभीरता की बजाए प्रैक्टिकल ग्राउंड बना दिया। समाजवादी पार्टी ने ये जानते हुए भी कि संजय दत्त मुंबई मामले में दोषी हैं, उन्हें लखनऊ से लड़ाने का ऐलान कर दिया, लेकिन जब बाद में परमिशन नहीं मिली, तो संजय की जगह नफ़ीसा अली को मैदान में उतार दिया। इसका मतलब ये है कि यूपी की इस बड़ी पार्टी को लगता है कि लखनऊ के सिर्फ़ वही ठेकेदार हैं, और लखनऊ की आवाम को इसका फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है। संजय दत्त को नेता बनाने पर तुली पार्टी ने उन्हें महासचिव बना दिया, तो मुन्ना बहनजी के खिलाफ़ ऐसी घटिया ज़ुबान का इस्तेमाल कर गये कि उन्हें लेने के देने पड़ गये।
वैसे भी ले-देकर उन्हें एक ही डायलॉग आता है, 'मैं मुन्ना और आप मेरे सर्किट' वैसे उनके सर्वहारा भाई (जो अमूमन सभी फिल्मी सितारों के भाई बन जाते हैं) अमर सिंह ने तो रामपुर से जया प्रदा के चुनाव को अहम की लड़ाई बना लिया और अपनी ही पार्टी के आज़म खान को खरी खोटी सुना डाली। बयान बहादुर बनते-बनते अमर इतने भारी हो गये कि मंच भी उनका वज़न नहीं संभाल पाए। चलिए अब यूपी से आगे बढ़ते हैं। नेशनल लेवल पर नज़र डालें तो मौजूदा पीएम और पीएम इन वेटिंग ने एक दूसरे के खिलाफ़ तलवारें निकाल रखी हैं। अभी तक दोनों एक-दूसरे को कमज़ोर साबित करने पर तुले हैं, लेकिन शायद दोनों को ही सियासत का कॉम्पलेन पीने की ज़रूरत है। तो उधर बिहार में लालू और पासवान अपनी ही सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोले खड़े हैं। तलवारें तन गईं हैं और सभी की नज़र देश को एक मज़बूत सरकार देने के बजाए पीएम की कुर्सी पर लगी हैं।
तो बिहार में प्रणव मुखर्जी, लालू को उन्हीं के अंदाज़ में जवाब दे गये। ये अलग बात है कि बाद में वो कमज़ोर हिंदी का हवाला देकर बयान से किनारा कर गये। तो यूपी में दिग्विजय सिंह मायावती को सीबीआई की धमकी दे गये। और तो और बीजेपी में जेटली और राजनाथ सिंह में ही तलवारें खिंच गई, वो भी सिर्फ़ इसलिये कि जेटली को लगने लगा कि राजनाथ, सुधांशु मित्तल को आगे कर उनके पर कतर रहे हैं। हालात ये हो गई कि बयान बहादुर नेताओं के आगे चुनाव आयोग भी बेबस नज़र आ रहा है। चुनाव कराने से ज्यादा बड़ा काम तो उसके सामने नेताओं को नोटिस जारी करने का है। हालात ये हो गई है कि चुनाव आयोग को भी शायद याद नहीं होगा कि इस बार उसने कितने नोटिस बांटे हैं। लेकिन इस बार के चुनाव को बिना जूते के कैसे भूल सकते हैं। चिदंबरम पर जूता पड़ा तो टाइटलर और सज्जन कुमार चुनावी आंधी में उड़ गये।
जिंदल पर जूता पड़ा को कांग्रेस की और भी फ़ज़ीहत हो गई। जूते पर कांग्रेस को घेरने वाली बीजेपी भी इस वार से नहीं बची, भले ही पीएम इन वेटिंग चप्पल का निशाना बने हों, लेकिन ये तो साफ़ हो गया कि भगवा पार्टी में भी सब कुछ ठीक नहीं है। यानि अब तक जनता से जुड़े मुद्दे कहीं भी नहीं। मंदिर पर फेल हुई बीजेपी इस बार काले धन का रोना रो रही है, जिसका न तो आम आदमी से कोई मतलब और न ही पैसा आने से रहा। लेकिन सबसे दिलचस्प रहा समाजवादी पार्टी का मेनीफेस्टो। मुद्दों की बात तो दूर, जनाब तो अंग्रेजी और कंप्यूटर के सफ़ाये की बात ही कर गये। इस बार के चुनाव में क्या-क्या नहीं हुआ जो बताया जाए, जब नेताजी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होने नोट बांटना ही शुरु कर दिये। मतलब लिखने को इतना कुछ कि किताब छप जाए, और शायद अगर इस पर किताब आ जाए तो बेस्ट सेलर भी बन जाए। ये उस देश के महासंग्राम का हाल है जहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कायम है। जहां सत्ता की कुंजी आम आदमी के हाथ में मानी जाती है, लेकिन चुनाव के बाद नेताजी की झोली भरती है और आम आदमी रह जाता है खाली हाथ। वैसे भी इस बार का ड्रामा देखकर तो यही लग रहा है कि ये नेता मंडली के कलाकार हैं और हम सब तमाशाई हैं, जिसका नाटक ज्यादा पसंद आयेगा उस पर वोट लुटा देंगे, और फिर उनके हाथ में सौंप देंगे अपनी किस्मत पांच साल के लिए। शायद इसीलिए ये चुनाव 'अमर' रहेगा। धन्य हो...मेरा भारत महान
मतलब हर नेता तू सेर तो मैं सवा सेर साबित होने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मज़े की बात ये है कि इस बार के चुनाव को नेताओं ने गंभीरता की बजाए प्रैक्टिकल ग्राउंड बना दिया। समाजवादी पार्टी ने ये जानते हुए भी कि संजय दत्त मुंबई मामले में दोषी हैं, उन्हें लखनऊ से लड़ाने का ऐलान कर दिया, लेकिन जब बाद में परमिशन नहीं मिली, तो संजय की जगह नफ़ीसा अली को मैदान में उतार दिया। इसका मतलब ये है कि यूपी की इस बड़ी पार्टी को लगता है कि लखनऊ के सिर्फ़ वही ठेकेदार हैं, और लखनऊ की आवाम को इसका फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है। संजय दत्त को नेता बनाने पर तुली पार्टी ने उन्हें महासचिव बना दिया, तो मुन्ना बहनजी के खिलाफ़ ऐसी घटिया ज़ुबान का इस्तेमाल कर गये कि उन्हें लेने के देने पड़ गये।
वैसे भी ले-देकर उन्हें एक ही डायलॉग आता है, 'मैं मुन्ना और आप मेरे सर्किट' वैसे उनके सर्वहारा भाई (जो अमूमन सभी फिल्मी सितारों के भाई बन जाते हैं) अमर सिंह ने तो रामपुर से जया प्रदा के चुनाव को अहम की लड़ाई बना लिया और अपनी ही पार्टी के आज़म खान को खरी खोटी सुना डाली। बयान बहादुर बनते-बनते अमर इतने भारी हो गये कि मंच भी उनका वज़न नहीं संभाल पाए। चलिए अब यूपी से आगे बढ़ते हैं। नेशनल लेवल पर नज़र डालें तो मौजूदा पीएम और पीएम इन वेटिंग ने एक दूसरे के खिलाफ़ तलवारें निकाल रखी हैं। अभी तक दोनों एक-दूसरे को कमज़ोर साबित करने पर तुले हैं, लेकिन शायद दोनों को ही सियासत का कॉम्पलेन पीने की ज़रूरत है। तो उधर बिहार में लालू और पासवान अपनी ही सरकार के खिलाफ़ मोर्चा खोले खड़े हैं। तलवारें तन गईं हैं और सभी की नज़र देश को एक मज़बूत सरकार देने के बजाए पीएम की कुर्सी पर लगी हैं।
तो बिहार में प्रणव मुखर्जी, लालू को उन्हीं के अंदाज़ में जवाब दे गये। ये अलग बात है कि बाद में वो कमज़ोर हिंदी का हवाला देकर बयान से किनारा कर गये। तो यूपी में दिग्विजय सिंह मायावती को सीबीआई की धमकी दे गये। और तो और बीजेपी में जेटली और राजनाथ सिंह में ही तलवारें खिंच गई, वो भी सिर्फ़ इसलिये कि जेटली को लगने लगा कि राजनाथ, सुधांशु मित्तल को आगे कर उनके पर कतर रहे हैं। हालात ये हो गई कि बयान बहादुर नेताओं के आगे चुनाव आयोग भी बेबस नज़र आ रहा है। चुनाव कराने से ज्यादा बड़ा काम तो उसके सामने नेताओं को नोटिस जारी करने का है। हालात ये हो गई है कि चुनाव आयोग को भी शायद याद नहीं होगा कि इस बार उसने कितने नोटिस बांटे हैं। लेकिन इस बार के चुनाव को बिना जूते के कैसे भूल सकते हैं। चिदंबरम पर जूता पड़ा तो टाइटलर और सज्जन कुमार चुनावी आंधी में उड़ गये।
जिंदल पर जूता पड़ा को कांग्रेस की और भी फ़ज़ीहत हो गई। जूते पर कांग्रेस को घेरने वाली बीजेपी भी इस वार से नहीं बची, भले ही पीएम इन वेटिंग चप्पल का निशाना बने हों, लेकिन ये तो साफ़ हो गया कि भगवा पार्टी में भी सब कुछ ठीक नहीं है। यानि अब तक जनता से जुड़े मुद्दे कहीं भी नहीं। मंदिर पर फेल हुई बीजेपी इस बार काले धन का रोना रो रही है, जिसका न तो आम आदमी से कोई मतलब और न ही पैसा आने से रहा। लेकिन सबसे दिलचस्प रहा समाजवादी पार्टी का मेनीफेस्टो। मुद्दों की बात तो दूर, जनाब तो अंग्रेजी और कंप्यूटर के सफ़ाये की बात ही कर गये। इस बार के चुनाव में क्या-क्या नहीं हुआ जो बताया जाए, जब नेताजी को कुछ नहीं सूझा तो उन्होने नोट बांटना ही शुरु कर दिये। मतलब लिखने को इतना कुछ कि किताब छप जाए, और शायद अगर इस पर किताब आ जाए तो बेस्ट सेलर भी बन जाए। ये उस देश के महासंग्राम का हाल है जहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कायम है। जहां सत्ता की कुंजी आम आदमी के हाथ में मानी जाती है, लेकिन चुनाव के बाद नेताजी की झोली भरती है और आम आदमी रह जाता है खाली हाथ। वैसे भी इस बार का ड्रामा देखकर तो यही लग रहा है कि ये नेता मंडली के कलाकार हैं और हम सब तमाशाई हैं, जिसका नाटक ज्यादा पसंद आयेगा उस पर वोट लुटा देंगे, और फिर उनके हाथ में सौंप देंगे अपनी किस्मत पांच साल के लिए। शायद इसीलिए ये चुनाव 'अमर' रहेगा। धन्य हो...मेरा भारत महान
पहली बार तुम्हारे ब्लाग से गुजरा हूं। अच्छा लगा। खासकर इसका ले आउट। मन कर रहा है..चुरा लूं। उम्मीद है मुझे पहचान रहे होगे।
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सही कहा आपने
Simply the best! I mean till date this one seems to be your best write-up...I know there are many more to come. Ek din aisa likhoge, duniya padhti reh jaayegi!!!