Dec
25

जब कभी तन्हाई घेर लेती है
घर याद आता है, आंख भर आती है
दोस्त बचपन के बहुत याद आते हैं
तकिये में मुंह छिपाकर फिर ख़ूब रोते हैं
जब शैतानियां आंखों के सामने आती हैं
बचपन में चोरी और आईसक्रीम की ज़िद
धूप में क्रिकेट और गुल्ली डंडे का खेल
तपती दोपहरी में पेड़ों पर उछलकूद
गली के बच्चों संग किसी बूढ़े को चिढाना
और फिर डरके पापा की टांगों में छिप जाना
शहद के छत्ते पर गुलेल चलाना
मौहल्ले को सारे अपने सिर पर उठाना
बहाने से निकलकर घर से भाग जाना
जब चाहें खाना, जब चाहें सोना
फिर स्कूल से निकलकर कॉलेज के दिन
ट्रेन से आना और रोज़ ट्रेन से जाना
पंख लगाकर गुज़र गया वक्त
फिर नौकरी की तलाश में बड़े शहर का रुख़
और ट्रेन की खिड़की से छूटता हुआ घर
फिर पापा और मम्मी की अलविदाई मुस्कुराहट
जब याद आती है, तो आंख भर आती है
बचपन के सपने अब हवा हो गये सब
अब देर रात सोना और सुबह जाग जाना
काम के बोझ तले याद नहीं कुछ भी
पैसे की चकाचौंध में रिश्ते भी छूट गये
अब जब कभी तन्हाई घेर लेती है
घर याद आता है, आंख भर आती है।
अबयज़ ख़ान